गांवों के सूने दलानों के लौटे पुराने दिन, लौटी बहार
जागरण संवाददाता सुपौल पंचायत चुनाव सिर पर आते ही पंचायतों की रंगत बदल गई है। हर पंच
जागरण संवाददाता, सुपौल : पंचायत चुनाव सिर पर आते ही पंचायतों की रंगत बदल गई है। हर पंचायत में इस चुनाव के प्रत्याशी हैं। इनमें से कई ऐसे भी हैं जिन्हें पिछले चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा था तो कई ऐसे हैं जो कई चुनावों से अपने पद पर काबिज हैं। अब जीते प्रत्याशी हों या फिर हारे एक बार फिर चुनावी समर के लिए कमर कस चुके हैं। वैसे लोग भी प्रत्याशी बनने की प्रत्याशा में हैं जो पंचायत के विकास से संतुष्ट नहीं हैं और उनमें कुछ कर दिखाने का जज्बा है। तो कुछ ऐसे भी हैं जो लोगों को साइकिल से लग्जरी गाड़ियों तक का सफर तय करता देख पहली बार चुनावी वैतरणी पार उतरने के लिए तैयार हैं। ऐसे में उनके दलानों पर समर्थकों का आना-जाना लगा रहता है। जीते प्रत्याशी जो चुनाव बाद कार्यालय कार्य से बाहर ही रहते थे, ग्रामीणों को जरूरत होने पर उन्हें खोजना मुश्किल होता था वे भी अब मुस्कुराते हुए लोगों का स्वागत करते हैं और चाय-पानी का भी प्रबंध करते हैं। अब उनका अधिकांश समय दलान पर ही कटता है, चाहे वह अपना दलान हो या फिर पड़ोसियों का। चुनाव की घोषणा होते ही गांवों के सूने दलानों पर बहार लौटने लगी है अन्यथा इसका उपयोग या तो बकरियां सुस्ताने के लिए करती थीं या फिर दोपहर के समय निठल्ले बैठे युवाओं की फौज ताश खेलने के लिए।
दलान बैठक, बरामदा, मकान के बाहर लोगों के बैठने की छतदार खुली जगह या ओसारे को कहा जाता है। गांवों में इसका खास महत्व था और उपयोगिता भी। जिसका दलान जितना बड़ा उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा उतनी बड़ी होती थी। घर के मुखिया का यह निवास स्थल होता था लिहाजा आनेवाले लोग पहले यहीं बिराजते थे। दलानों पर दो-चार लोग हमेशा बैठे मिल जाते थे। समय बदला तो खेती-बाड़ी से लोगों की गुजर-बसर मुश्किल हो गई नतीजा हुआ कि रोजी-रोटी के लिए लोगों का पलायन होने लगा। दलानों की रौनक खत्म होने लगी। कमाने लायक लोग परदेश चले गए और दलानों की शोभा खांसते बूढ़े लोग, अट्ठा-गोटी खेलती बच्चियों की टोली और जुगाली करती बकरियां बढ़ाने लगी। खैर सबका दिन एक जैसा नहीं रहता है इसी संयोग को आजकल गांव के दलान चरितार्थ कर रहे हैं। अब दलान पर पड़ी चौकी पर चादर भी रहती है और आंगन के लोगों की नजर भी दलान पर रहती है। पता नहीं कब कौन प्रत्याशी आ धमके। पांच साल तक जो चरण जिस दलान पर नहीं पड़े थे अब सरेआम पड़ने लगे हैं। आजकल चाह-पानी की व्यवस्था तो लगभग हर घर में रहती है। रहे भी क्यों नहीं आखिर दलान के मर्यादा का सवाल है और पांच साल बाद ही तो यह मौका आमलोगों को मिलता है। दलानों पर ताश की चौकड़ी फिलहाल कम ही जम रही है, यहां प्रत्याशी या उनके समर्थक चुनावी चर्चा में जुटे रहते हैं। चुनाव के बहाने ही सही गांवों के सूने दलानों के पुराने दिन लौट आए हैं यहां बहार लौट आई है।