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कास-पटेर से बुनी जा रही स्वावलंबन की चटाई

-चटाई गांव के नाम से जाना जाता है बारा टोला गांव फोटो फाइल नंबर-23एसयूपी-7 जागरण संवा

By JagranEdited By: Published: Sun, 24 Mar 2019 12:24 AM (IST)Updated: Sun, 24 Mar 2019 12:24 AM (IST)
कास-पटेर से बुनी जा रही स्वावलंबन की चटाई

-चटाई गांव के नाम से जाना जाता है बारा टोला गांव

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फोटो फाइल नंबर-23एसयूपी-7

जागरण संवाददाता, सुपौल: सदर प्रखंड के बारा गांव को स्वावलंबन की मिसाल के तौर पर पेश किया जा सकता है। इस गांव के हर घर में चटाई बुनने का काम किया जाता है। यहां महिलाएं दिन भर चटाई बनाने का काम करती हैं। पुरुष इसे गांव-गांव में घूमकर बेचते हैं। गांव को लोग चटाई गांव के नाम से भी जानने लगे हैं। इस काम में लगभग 100 परिवार जुड़े हुए हैं। इस काम से एक परिवार को महीने में सात से आठ हजार रुपये की आमदनी हो जाती है।

बुजुर्गों की मानें तो यह उनलोगों का पुस्तैनी धंधा है जो वर्षों से चला आ रहा है। आज भी गांव के करीब डेढ़ सौ परिवार इस व्यवसाय से जुड़े हैं। यहां की निर्मित चटाई की ख्याति दूर-दूर तक फैली हुई है। खास कर इस व्यवसाय से जुड़े परिवारों की महिलाएं चटाई बुनाई का काम करती है, जबकि पुरुष दूर-दराज गांवों में इसे बेचने का काम करते हैं। हालांकि बदलते परिवेश के साथ इस धंधे में गिरावट आई है और बाजार में डिमांड भी घटा है। बावजूद आज भी इस गांव के घरों से ताना (बुनाई में उपयोग किया जाने वाला स्थानीय संयंत्र) की आ रही फट-फट की आवाज यहां की पहचान है। इस धंधे को चलाने में घर की महिलाएं व पुरुष की हिस्सेदारी बराबरी की होती है। जहां पुरुष अन्य गांवों से पटेर लाने के साथ-साथ तैयार चटाई को बेचने का काम करते हैं वहीं महिलाएं चटाई निर्माण में तन मन से जुटी होती है। नतीजा है कि यह गांव स्वावलंबन की मिसाल के तौर पर जाना जाता है।

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पुस्तैनी धंधे से आज भी है जुड़ाव

इस गांव के लोग आज भी अपने पुस्तैनी धंधे से जुड़े हुए हैं और बखूबी अपना जीवन-यापन कर रहे हैं। बहुतायत परिवार के इस व्यवसाय से जुड़े होने के कारण इस गांव को चटाई गांव के नाम से भी लोग जानते हैं। इस धंधे से जुड़े 80 वर्षीय मो. सद्दीक बताते हैं कि वे 16 वर्ष के भी नहीं थे और इस धंधे से जुड़ गए थे। इस धंधे के प्रति यहां के लोगों के रुझान के बाबत कहते हैं कि आसपास में जंगल होने के कारण आसानी से पटेर मिल जाता था जिससे चटाई निर्माण आसान होता था। तब चटाई की कीमत महज एक रुपये होती थी। दूर-दूर के गांवों के लोग यहां चटाई खरीदने आते थे। यहां लगभग हरेक घर में चटाई का निर्माण किया जाता था। मांग अधिक रहने के कारण डिमांड को पूरा करने के लिए घर की महिलाएं भी हाथ बंटाती थी। धीरे-धीरे यही परिपाटी हो गई और महिलाओं के हाथों ही चटाई का निर्माण होने लगा।

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औसतन एक सौ चटाई होती है रोज तैयार

भले ही आधुनिकता दौर में अब हाथ से बनी चटाई की चमक कुछ कम हो गई है। बावजूद एक तो रोजगार का अभाव और दूसरा अपने पुस्तैनी धंधे को जीवंत रखने की चाहत इन परिवारों को डिगने नहीं दे रहा है। एक दिन में आज भी एक सौ चटाई यहां तैयार कर ली जाती है। प्रति बोझा पटेर से 10 से 12 चटाई तैयार हो जाती है। जिसे तैयार करने में दो मजदूरों को तीन दिन का समय लगता है। इस व्यवसाय से जुड़े सलाउद्दीन, इसलाम, कमरूद्दीन आदि बताते हैं कि अब पटेर आसानी से उपलब्ध नहीं हो पाता जिससे काफी परेशानी हुआ करती है।


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