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बकरीद पर विशेष : हजरत इब्राहिम ने अल्लाह के लिए दी बेटे की कुर्बानी

रिजवानुर रहमान, मैरवा (सिवान) : पैगंबर हजरत इब्राहिम ने अपने इकलौते बेटे की कुर्बानी अल्

By JagranEdited By: Published: Sat, 02 Sep 2017 03:04 AM (IST)Updated: Sat, 02 Sep 2017 03:04 AM (IST)
बकरीद पर विशेष : हजरत इब्राहिम ने अल्लाह के लिए दी बेटे की कुर्बानी
बकरीद पर विशेष : हजरत इब्राहिम ने अल्लाह के लिए दी बेटे की कुर्बानी

रिजवानुर रहमान, मैरवा (सिवान) :

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पैगंबर हजरत इब्राहिम ने अपने इकलौते बेटे की कुर्बानी अल्लाह की रजामंदी के लिए दे दी। अल्लाह तआला को हजरत इब्राहिम के इस त्याग और समर्पण का अमल इतना पसंद आया कि कुर्बानी इस्लाम धर्म में इब्राहिम की सुन्नत करार दी गई।

इसे एक बड़ी इबादत मानी गई। कुर्बानी त्याग, समर्पण एवं बलिदान का प्रतीक है। अल्लाह के हुक्म पर सपने को सच्चाई में बदल कर हजरत इब्राहिम ने दुनिया वालों को हक परस्ती की नसीहत दी। यह कुर्बानी कोई मामूली नहीं थी, बल्कि सिर्फ और सिर्फ अल्लाह के हुक्म का पालन करने और अल्लाह की मर्जी एवं रजा के लिए अपने जिगर के टुकड़े का बलिदान थी। हजरत इब्राहिम ने स्वप्न में देखा कि वे अल्लाह की रजामंदी के लिए अपने इकलौते पुत्र हजरत इस्माइल को कुर्बान कर रहे हैं। हजरत इब्राहिम ने समझा कि अल्लाह का इशारा जानवरों की कुर्बानी की तरफ है। अगले दिन एक ऊंट अल्लाह की राह में उन्होंने कुर्बान कर दिया लेकिन दूसरी रात फिर वही सपना उन्होंने देखा। उन्होंने समझा कि अल्लाह और कुर्बानी मांग रहे हैं। इब्राहिम ने एक और ऊंट की कुर्बानी दी। अगले दिन फिर वहीं सपना देखा। इस बार वे समझ गए कि अल्लाह उनके बेटे इस्माइल की कुर्बानी मांग रहे हैं। लंबी दुआ के बाद 80 साल की उम्र में उन्हें इकलौते पुत्र रत्न हजरत इस्माइल की कुर्बानी देना उनके लिए काफी कठिन था लेकिन अल्लाह की मर्जी समझ उन्होंने अपने बेटे से कहा -'बेटा! अल्लाह चाहता है कि मैं उसकी राह में तुम्हें कुर्बान कर दूं। मैं चाहता हूं कि अल्लाह के हुक्म को पूरा करो। बताओ तुम्हारा क्या ख्याल है।' बेटे ने कहा, अब्बा जान आप अल्लाह का हुक्म जरूर पूरा कीजिए। इंशाअल्लाह तआला मुझे साबिर पाएंगे।

बेटे ने अपने पिता से कहा कि आप आंखों पर पट्टी बांध लें और मेरे हाथ-पैर भी बांध दें, ताकि छटपटाहट पर कहीं पिता का प्रेम उमड़ इस कुर्बानी से विचलित न कर दे। फिर दोनों एक सुनसान मैदान में पहुंचे।

इस दौरान शैतान ने बाप और बेटे को खुदा की राह में कुर्बानी से रोकने के लिए भटकाने की कोशिश की, जिसे उन्होंने नाकाम कर दिया और अपने इरादे से विचलित नहीं हुए। सुनसान मैदान में पहुंचकर हजरत इब्राहिम ने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली। बेटे को लिटा दिया और गर्दन पर छुरी चला दी। कुर्बानी देने के बाद जब आंखों से पट्टी हटाई तो बेटे को अलग पाया। दुंबे को कुर्बान देखा। यह एक इम्तिहान था, जो अल्लाह ने हजरत इब्राहिम से लिया और जन्नत से दुंबा भेजकर उनके हाथों कुर्बान करा दिया।

कुरान शरीफ में है कि हजरत इब्राहिम के इस अमल से अल्लाह तआला ने खुश होकर फरमाया -'इब्राहिम तुमने स्वप्न सच कर दिखाया।' अल्लाह को हजरत इब्राहिम की कुर्बानी इतनी पसंद आई कि कयामत तक के लिए बंदे पर इसे सुन्नत के तौर पर वाजिब कर दिया।

कुर्बानी हर मालिक ए नेसाब पर वाजिब :

कुर्बानी अल्लाह को प्यारी है। इस्लाम धर्म में यह बड़ी इबादत है। यह आर्थिक रूप से संपन्न लोगों पर वाजिब है। विशेष जानवर की निर्धारित दिन में अल्लाह के लिए शवाब की नीयत से जबह करना कुर्बानी है।

कुर्बानी किस पर वाजिब : मुसलमान मुकीम, मालिक ए नेसाब, आजाद व्यक्ति पर कुर्बानी वाजिब है। मुसाफिर पर कुर्बानी वाजिब नहीं है लेकिन नफिल का शवाब पाने के लिए कुर्बानी कर सकते हैं।

कुर्बानी का निर्धारित समय जिलहिज्जा (बकरीद का महीना) की 10वीं तारीख की सुबह से 12वीं के सूर्यास्त तक कुर्बानी कर सकते हैं लेकिन 10वीं तारी़ख को कुर्बानी अफजल माना जाता है।

कुर्बानी का गोश्त और खाल : कुर्बानी के बाद गोश्त (मांस) तीन हिस्सा करके एक हिस्सा गरीबों में वितरित कर दिया जाता है। दूसरा हिस्सा दोस्तों, पड़ोसियों, रिश्तेदारों को दिया जाता है। तीसरा हिस्सा परिवार में खर्च किया जाता है। मांस का पूरा हिस्सा सदका भी दिया जा सकता है।

कुर्बानी का जानवर : कुर्बानी का जानवर मोटा-ताजा तंदुरुस्त होना चाहिए। अलग-अलग जानवरों के लिए अलग-अलग उम्र निर्धारित है।

अल्लाह ने इब्राहिम से ली तीसरी परीक्षा

कुर्बानी हजरत इब्राहिम की तीसरी परीक्षा थी, जिसमें वे सफल रहे। पहली परीक्षा के दौरान उन्हें आग के ढेर से गुजरना पड़ा था। दूसरी परीक्षा से वे तब गुजरे, जब उन्होंने बुढ़ापे की पूंजी अपने इकलौते बेटे इस्माइल और पत्नी हाजरा को सुनसान जगह में खुद से जुदा कर अल्लाह के भरोसे ही छोड़ देना पड़ा। दोनों परीक्षा में सफल होने के बाद तीसरी परीक्षा काफी कठिन थी। खुदा के हुक्म को मानते हुए उन्होंने अपने इकलौते बेटे की कुर्बानी अल्लाह की राह में पेश की। यह अदा अल्लाह को बहुत महबूब लगी।


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