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समा-चकेवा सिर्फ मनोरंजन वाला खेल नहीं, अपितु हमारी लोक-परंपरा की अनूठी मिसाल भी

सीतामढ़ी। हमारी अनूठी संस्कृति व परंपरा ग्रामीण अंचलों में सामा-चकेवा के रूप में आज भी जिदा हैं। भाई-बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक सामा-चकेवा हमारी लोक-परंपरा का अनूठा उदाहरण है।

By JagranEdited By: Published: Fri, 12 Nov 2021 11:30 PM (IST)Updated: Fri, 12 Nov 2021 11:30 PM (IST)
समा-चकेवा सिर्फ मनोरंजन वाला खेल नहीं, अपितु हमारी लोक-परंपरा की अनूठी मिसाल भी
समा-चकेवा सिर्फ मनोरंजन वाला खेल नहीं, अपितु हमारी लोक-परंपरा की अनूठी मिसाल भी

सीतामढ़ी। हमारी अनूठी संस्कृति व परंपरा ग्रामीण अंचलों में सामा-चकेवा के रूप में आज भी जिदा हैं। भाई-बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक सामा-चकेवा हमारी लोक-परंपरा का अनूठा उदाहरण है। पारंपरिक लोकगीतों से जुड़ा सामा-चकेवा हमारी संस्कृति की वह खासियत है जो सभी समुदायों के बीच व्याप्त जड़ बाधाओं को तोड़ता है। सामा चकेवा पर्व का संबंध पर्यावरण से भी है। सामा चकेवा की तैयारियां दीपावली के समय से ही शुरू हो जाती हैं। कार्तिक मास की पंचमी शुक्ल पक्ष तिथि से सामा चकेवा के मूर्ति बनाने का कार्य शुरू हो जाता है। पंचमी से पूर्णिमा तक चलने वाला यह लोकपर्व उत्साह और उल्लास से पूरी तरह सरावोर है। आठ दिनों तक यह उत्सव मनाया जाता है और नौवें दिन बहनें अपने भाइयों को धान की नई फसल का चूड़़ा एवं दही खिला कर सामा-चकेवा की मूर्तियों को तालाब में विसर्जित कर दिया जाता है। सीतामढ़ी शहर के कोट बाजार वार्ड नंबर-15 में सामा-चकेवा को लेकर बच्चों से लेकर बुजुर्ग महिलाओं तक में जबरदस्त उमंग व उत्साह देखा जा रहा है। दसवी कक्षा में पढ़ने वाली शिवानी गुप्ता ने बताया कि इस खेल में उसके साथ चाची-दादी भी पूरा हिस्सा ले रही हैं। आशा देवी, रीना देवी, किरण देवी, परी कुमारी, वंदना कुमारी, सुरभि गुप्ता, सिमरन कुमारी, रिमी कुमारी, जह्नावी कुमारी आदि सामा-चकेवा का खेल खेलने से लेकर मूर्ति बनाने और उसके रंग-रोगन में भी सबने हाथ बंटाया है। शिवानी ने बताया कि शाम ढ़लते ही बहनों द्वारा डाला में सामा-चकेवा को सजाकर सार्वजनिक स्थान पर बैठकर गीत गाया जाता है। जैसे सामा चकेवा अइह हेज्! वृंदावन में आग लगलेज्! सामा चकेवा खेल गेलीए हे बहिनाज् आदि गीतों द्वारा हंसी-ठिठोली की जाती है और भाई को दीर्घायु होने की कामना की जाती है। भाई-बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक व विलुप्त होती लोक-परंपरा की अनूठी मिसाल भी सामा-चकेवा सामा-चकेवा हिमालय की तलहट्टी से लेकर गंगा तट तक और संपूर्ण मिथिलांचल में में धूमधाम से मनाया जाता है। यह पर्व मुख्यत: कुवांरी लड़कियों व नवविवाहिताओं में अधिक लोकप्रिय है। इस लोक-नाट्य में भाई-बहन का अटूट प्यार, ननद-भौजाई की नोंक-झोंक तथा पति-पत्नी का प्रेम अभिव्यंजित हुआ है। सामा-चकेबा में एक पात्र होता है चुगला। सबसे बड़ा चुगलखोर। यानी पीठ पीछे निदा करने में माहिर। सामा-चकेबा में और भी कई पात्र दिलचस्प हैं। सामा बहन है चकेवा भाई। अन्य पात्र हैं-चुगला, सतभइया, वनतीतर, झांझी, कुत्ता एवं वृंदावन। सामा बहन है चकेवा भाई। अन्य पात्र हैं-चुगला, सतभइया, वनतीतर, झांझी, कुत्ता एवं वृंदावन। इस लोक-नाट्य का प्रदर्शन नदी किनारे-या वन में होता है। बताया कि सामा खेलने के दौरान चुगला-चुगली को जलाने का उद्देश सामाजिक बुराइयों का नाश करना है। शाम में सामा चकेवा का विशेष श्रृंगार भी किया जाता है। उसे खाने के लिए धान की बालियां दी जाती है। शाम होने पर गांव की युवतियां एवं महिलाएं अपनी सखी सहेलियों की टोली में मैथिली लोकगीत गाते हुए अपने-अपने घरों से बाहर निकलती हैं।

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