लॉकडाउन से विद्यालयों में विरानगी, उग आए घास-पात
शिवहर। कोरोना और लॉकडाउन ने न सिर्फ जिदगी की रफ्तार धीमी कर दी है बल्कि इसके कई अप्रत्यक्ष दुष्परिणाम हैं।
शिवहर। कोरोना और लॉकडाउन ने न सिर्फ जिदगी की रफ्तार धीमी कर दी है बल्कि इसके कई अप्रत्यक्ष दुष्परिणाम हैं। विकास की अहम कड़ी शिक्षा पर इसके दूरगामी परिणाम दिखाई दे रहे। पहले शिक्षकों की हड़ताल और फिर लॉकडाउन में क्रमश: अवधि विस्तार ने बच्चों की पढ़ाई पर ग्रहण लगा दिया। वहीं विद्यालय जहां बच्चों को शिक्षादान दिया जाता था महज एक मकान बन कर रह गया। वहां होने वाली नियमित सफाई बंद हो गई साथ ही बंद हो गई वाíनंग, टिफिन, पीरियड और छुट्टी के घंटी की आवा•ा। यह अलग बात है कि इस अवधि में ऑनलाइन पढ़ाई की कवायद की जा रही। कितु यह मुकम्मल पढ़ाई का हिस्सा नहीं बन सकती। मौजूदा हाल यह है कि अधिकांश विद्यालय परिसरों में घास व झाड़ उग आए हैं। चापाकल जहां पहले पानी पीने को बच्चों में मारा- मारी होती थी, शिक्षक तक शिकायत पहुंचती थी। वे चापाकल अब सूखे पड़े हैं। इतना ही नहीं जिन कमरों में बच्चे बैठ शिक्षा ग्रहण के साथ जीवन जीने की कला और संस्कार ग्रहण करते थे वहां धूल जमी हुई है। पुस्कालय की किताबें और कार्यालय के कागजात चूहे कुतर रहे। इसकी एक वजह यह भी कही जा सकती है कि अमूमन विद्यालयों में चपरासी या सफाई कर्मी नहीं है यह काम विद्यालय के बच्चों के जिम्मे ही होता है हालांकि इसके भी सकारात्मक परिणाम होते हैं। यह काम बच्चों में जिम्मेदारी सहित अन्य सकारात्मक सोच भरने में सहायक होता है। हां इस बीच कोरोना काल में विद्यालयों का क्वारंटाइन सेंटर/ कैंप के रूप में उपयोग किया जा रहा। वहां साफ सफाई भी दिखाई दे रही। बावजूद इसके बच्चों की जगह प्रवासियों का ठिकाना बने विद्यालय में वह चमक और आकर्षण नहीं जो स्कूली बच्चों की उपस्थिति में हुआ करती थी। हालांकि एक समानता जरुर दिख रही कि बच्चे भी छुट्टी का इंतजार करते थे। अब प्रवासियों को वहां से मुक्ति का इंतजार करते देखा जा रहा।
हाल के दिनों में परिस्थितियां बदली है। शिक्षकों को विद्यालय में योगदान करने का विभागीय निर्देश मिलने से वे विद्यालय पहुंच रहे। कितु जब बच्चे पढ़ने ही नहीं आ रहे तो फिर रौनक की वापसी भला कैसे संभव है?