मिट्टी के दीये की जगह खास, बनाने वाले बदहाल
रोहतास। दिवाली चाहे किसी युग की हो, लोगों में मिट्टी के दीयों के प्रति जो लगाव व श्रद्धा है, व
रोहतास। दिवाली चाहे किसी युग की हो, लोगों में मिट्टी के दीयों के प्रति जो लगाव व श्रद्धा है, वह खत्म नहीं हो सकती। हालांकि पिछले कुछ सालों में मिट्टी के दीयों की मांग काफी कम हो गई थी। लेकिन इस बार इन दीयों की मांग एक बार फिर से बढ़ती हुई दिख रही है। हालांकि अभी भी इन्हें बनाने वाले कुम्हारों की स्थिति काफी दयनीय है। उनकी मानें तो कभी दिवाली उनके लिए भी खुशियां लेकर आती थी। मिट्टी के दिए बेच जरूरत भर रकम जमा हो जाती थी। लेकिन उनकी मांग अब धीरे-धीरे कम होती जा रही है।
काली मंदिर रोड निवासी बंटी प्रजापति ने बताया कि पूर्व में दीपावली पर्व आने के दो से तीन माह पूर्व से ही मिट्टी का दीया, गणेश-लक्ष्मी की मूर्ति व मिट्टी के खिलौने बनने लगते थे। घर के सदस्य रात दिन मेहनत करते थे। महिलाएं मिट्टी की मूर्ति में रंग भरने का काम करती थीं। छोटे बच्चे भी काम में हाथ बंटाते रहते थे। लेकिन धीरे-धीरे इन मिट्टी के दीयों व मूर्ति की मांग कम होने लगी। आज के दौर में चाइनीज रंग बिरंगी झालर व लाइट के बाजार में आ जाने से इनकी मांग कम होने लगी है। इस पुश्तैनी धंधे से दो वक्त की रोटी का जुगाड़ भी संभव नहीं है। सरकार भी इस पुश्तैनी धंधे को बचाने के लिए कोई मदद नहीं कर रही है। गोपाल प्रजापति ने बताया कि अब बहुत से लोग अपने पुस्तैनी धंधे को छोड़ कर दूसरे कामों में लग गए हैं। पहले उनके पुश्तैनी धंधे से सालों भर की कमाई हो जाती थी। शादी-विवाह के मौके पर भी पूर्व में मिट्टी के बर्तन की मांग होती थी।लेकिन आज के दौर में थर्मोकोल के बर्तन आ जाने से उनके रोजगार पर बुरा असर पड़ा है। ग्रामीण रंजीत गुप्ता का कहना है कि दिवाली के दिन मिट्टी के दीप ही जलाने की मान्यता है। मिट्टी के दीप ही देवालय में जलाए जाते हैं। पूजा पाठ के दौरान भी मिट्टी के दीप की ही महत्ता है। ग्रामीण मुकेश कुमार, गुड्डू कुमार आदि का कहना है कि मिट्टी के दीये जलाने में खर्च ज्यादा है। चाइनीज लाइट के बाजार में आ जाने से लोगों का आकर्षण उसके प्रति बढ़ा है। जबकि उसका न तो कोई गारंटी है, न ही वह सुरक्षित है। इसके अलावा उसके चलते ही मिट्टी के कारीगरों के पुश्तैनी धंधे पर विपरीत असर पड़ रहा है।