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Rohtas: कैमूर पहाड़ी के पुरा पाषाणकालीन शैलचित्रों में शिकार और संग्रहण के दृश्यों की है भरमार

Kaimoor Hills Cave Paintings इतिहासकार डॉ. श्याम सुंदर तिवारी बताते हैं कि पुरा पाषाणकाल और मध्यपाषाण युग में मानव घुमक्कड़ था। पर मौसम से बचाव और जंगली जानवरों से रक्षा के लिए उसने जहां भी गुफाएं पाईं शरण लेने लगा। इन्हीं गुफाओं को हम शैलाश्रय कहते हैं।

By brajesh pathakEdited By: Ashish PandeyPublished: Thu, 30 Mar 2023 05:59 PM (IST)Updated: Thu, 30 Mar 2023 05:59 PM (IST)
Rohtas: कैमूर पहाड़ी के पुरा पाषाणकालीन शैलचित्रों में शिकार और संग्रहण के दृश्यों की है भरमार
कैमूर पहाड़ी के शैलचित्रों में शिकार और संग्रहण के दृश्यों की है भरमार

ब्रजेश पाठक, सासाराम (रोहतास): पिछले पैर पर खड़ा होकर चलना मानव के विकास की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना मानी जाती है। कालांतर में आदिमानव की बुद्धि विकसित हुई और उसने बोलना तथा समुदाय में रहना सीखा। फिर अपने उदर तृप्ति के लिए उसने पशु-पक्षियों का शिकार करना सीखा। इसके लिए वे पत्थर के हथियार बनाने लगे। इसी युग को पाषाण युग कहते हैं।

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पाषाण युगीन मानव का जीवन आखेटक था। मानव वहां रहना चाहता था, जहां उसका जीवन निर्वाह हो सके और भोजन तथा पानी की आपूर्ति होती रहे। यह सिर्फ नदी घाटियों तथा पहाड़ी ढलानों पर ही संभव था। इसी कारण अब तक उत्तर भारत में गांगेय क्षेत्र को छोड़कर पहाड़ी ढलानों तथा उसकी तराई में स्थित नदी घाटियों में पुरापाषाण तथा मध्यपाषाण काल के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इसी आधार पर मध्य सोन घाटी में कैमूर की तलहटी को उच्च पुरापाषाण कालीन मानव ने अपने कार्यस्थल के लिए चुना।

शैलचित्रों पर शोधकार्य कर चुके व गत 22 वर्षों में अबतक 160 से अधिक शैलचित्रों से युक्त शैलाश्रयों का अन्वेषण करने वाले रोहतास के इतिहासकार डॉ. श्याम सुंदर तिवारी बताते हैं कि पुरापाषाण काल और मध्य पाषाण युग में मानव घुमक्कड़ था। फिर भी मौसम से बचाव और जंगली जानवरों से रक्षा के लिए उसे शरण की आवश्यकता थी। उसने जहां भी पर्वत गुफाओं को पाया शरण लेने लगा। इन्हीं गुफाओं को हम शैलाश्रय कहते हैं।

जब आदि मानव का उदर तृप्त होने लगा, तो उनमें कला की आरम्भिक अवस्था का प्रस्फुटन हुआ। शैलाश्रयों में रहने के दौरान आदिमानव ने अपनी कला को शैलाश्रयों की छत तथा दीवारों पर उकेरा। इसी को हम शैलचित्रकला कहते हैं। हजारों वर्षों तक आदिमानव ने अपने आसपास प्रकृति को जिस रूप में देखा, उसे अपनी कला में प्रदर्शित किया। इनके विषयवस्तु विभिन्न प्रकार के पशु, आखेट-दृश्य एवं मानव के अन्य विभिन्न क्रियाकलाप थे।

मध्य भारत के शैलाश्रयों में चित्रण ऊपरी पुरापाषाण काल से लेकर मध्य पाषाण काल, नवपाषाण काल, ताम्र पाषाण काल, ऐतिहासिक काल और मध्यकाल तक होता रहा। ऐसे कुछ शैलाश्रयों में शैलचित्रों पर अध्यारोपण स्पष्ट देखा जा सकता है। इन शैलचित्रों से आदिमानव के विकास की विभिन्न अवस्थाओं को देखा और समझा जा सकता है।

बताते हैं कि रोहतास जिले की कैमूर पहाड़ी की शैलचित्रकला में शिकार और संग्रहण के दृश्य चित्रण की बहुलता है। जंगली पशुओं को मनुष्यों के समूह द्वारा घेरकर अथवा अकेले मानव द्वारा पशु-पक्षियों का शिकार करते चित्रित किया गया है। जंगली सूअर, हिरण, भैंस-भैंसा, गाय-सांड़, बकरी, नीलगाय और अन्य जानवरों के शिकार का कैमूर पहाड़ी के शैलाश्रयों में बखूबी चित्रण है।

शिकार के लिए जिन उपकरणों का प्रयोग किया गया है, उनमें बरछी, भाले, हारपून यानी कांटेदार बरछी, डंडे, पत्थरों और तीर-धनुष का प्रयोग दिखाया गया है। अपने शिकार को घेरकर पत्थरों से मारते हुए चित्रांकन घोरघट घाटी मान और खरवार मान में है तो शिकार के लिए मानव द्वारा बरछी का प्रयोग करते हुए सतघरवा मान, सासाराम, पंचकोपड़ी मान, सासाराम, गौरमाना मान, खरवार मान, घोरघट घाटी मान, मजहर पहाड़ी मान में दिखाया गया है। कटार जैसे हथियार के प्रयोग का चित्रण कोनवा मान में किया गया है।

हारपून यानी कांटेदार बरछी का प्रयोग शिकार के लिए करते हुए चित्रांकन मच्छर घाटा मान, कोनवा मान, घोरघट घाटी मान, तेलहर कुंड मान आदि में किया गया है। बंडा के मिठइया मान, पंच कोपड़ी मान, मूर्चवामान, गौरमाना मान, धरनिया मान, डिहवार मान, घोरघट घाटी मान, कोहबरवा मान लौंड़ी में तीर धनुष से पशुओं का शिकार करते हुए अंकन है तो पशुओं पर सवारी करते हुए तीर धनुष से अपने शिकार को मारते गौर माना मान में चित्रण किया गया है। नौहट्टा के बजरमरवा मान में शिकारियों द्वारा दो हंसों का बरछी से शिकार करते हुए एक विशेष अंकन है।

शिकार के अतिरिक्त संग्रहण के दृश्यों का भी कैमूर पहाड़ी के कई शैलाश्रयों में चित्रांकन है। मधु निकालते हुए एक प्रमुख अंकन गौरमाना मान में चित्रित किया गया है। कहा जा सकता है कि कैमूर पहाड़ी के शैलचित्र मध्य भारत के शैलचित्रों के सदृश हैं। आज इन शैलाश्रयों के संरक्षण की जरूरत है, ताकि आने वाली पीढ़ियों के लिए इन्हें बचाकर रखा जा सके।


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