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बिहार संवादी के मंथन में युवाओं ने तलाश ली सांस्कृतिक ऊर्जा

बिहार संवादी के मंथन में युवाओं ने सांस्‍कृतिक उर्जा की तलाश की। हिंदी और बिहार को समझने बड़ी संख्या में पहुंचे युवाओं ने मुख्यमंत्री की बातों को पुख्ता किया।

By Ravi RanjanEdited By: Published: Sun, 22 Apr 2018 03:43 PM (IST)Updated: Sun, 22 Apr 2018 06:58 PM (IST)
बिहार संवादी के मंथन में युवाओं ने तलाश ली सांस्कृतिक ऊर्जा

पटना [अश्विनी]। मन में उमड़-घुमड़ रहे सवालों के साथ संवाद, संवाद और सिर्फ संवाद। खुले मंच से हिंदी साहित्य के अतीत, वर्तमान और भविष्य की तलाश करती बहस में बिहार संवादी ने यहां की माटी की सांस्कृतिक ऊर्जा का भी अहसास किया।

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दैनिक जागरण की इस पहल को एक बेहतर साहित्यिक-सांस्कृतिक माहौल की कवायद बताते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और उत्तरपद्रेश विधानसभा अध्यक्ष हृदयनारायण दीक्षित से लेकर ख्यात साहित्यकारों-पत्रकारों, रंगकर्मियों ने भी सराहा। 

अपनी राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति प्रेम-अनुराग की सबसे बड़ी बानगी बनकर खड़े हुए वे युवा, जिन पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अंग्रेजियत का ठप्पा लग चुका है। इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट की पढ़ाई पढऩे वाले युवाओं की एक बड़ी तादाद जिस तरह दो दिनों तक लगातार पूरी तन्मयता के साथ बिहार संवादी का हिस्सा बनी, उसने मुख्यमंत्री के उस कथन पर मुहर लगा दी कि यहां से एक नई शुरुआत होगी। तनाव-टकराव भी तभी दूर होंगे, जब संवाद होंगे।

शिल्पी, अंकुर, शुचिता, निलेश जैसे युवाओं का यह कहना मायने रखता है कि बिहार संवादी के कार्यक्रम में आकर पहली बार यहां की साहित्यिक-सांस्कृतिक ऊर्जा को समझने का मौका मिला। साहित्य, शिक्षण और मीडिया से जुड़ी कई बड़ी हस्तियों ने इसमें शिरकत की।

अजीत अंजुम, हृषिकेश सुलभ, प्रो. जितेंद्र कुमार सिंह, एसएन चौधरी, डॉ. नेहरा तिवारी, प्रो. रामवचन राय, महुआ माजी जैसी कई शख्सियत दो दिवसीय समारोह का हिस्सा बनी। इस आयोजन में एक ओर साहित्यिक आयामों पर बहस तो दूसरी ओर स्टॉल पर मिट्टी के हाथी-घोड़े, सूप-मउनी बिहार की आंचलिक संस्कृति-परंपरा और शादी-ब्याह से लेकर तमाम अवसरों पर यहां के लोकरंग के कई नजारे प्रस्तुत कर रहे थे।

यह खासियत रही इस संवादी की, जिसमें पूरे देश-प्रदेश से आए लोगों ने यहां के जीवन की खूबसूरती को भी देखा, महसूस किया। जीवन के यही विविध रंग साहित्य का भी हिस्सा बनते रहे हैं। बिहार संवादी में शब्दों में गढ़े उस रंग पर एक तरफ वैचारिक बहस तो दूसरी ओर उसका जीवंत नजारा भी।

फणीश्वर नाथ रेणु की आंचलिक कथाओं में जिन रंगों को पढ़ा-सुना जाता है, खास तौर से युवा पीढ़ी ने उसे यहां आकर बड़ी शिद्दत से महसूस किया। बात संवाद की थी तो संवाद भी हुआ, खूब हुआ। एक-एक पहलू पर चर्चा। कहां चूके, कहां रहे पीछे, कहां है गुंजाइश और हमें क्या करना चाहिए। इन सारे सवालों का जवाब भी कि ऐसे ही संवादों से बनेगा वह माहौल। यही जोड़ेगा गांव-जवार से शहरों तक सबको और वही होगी एक खूबसूरत शृंखला-बिहार की। 


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