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आजादी के पहले से जारी पटना रंगमंच का सफर, बस बदलते गए किरदार

पटना रंगमंच से जुड़े कलाकार शहर के अंदर और बाहर रहकर भी दर्शकों को गुदगुदाते रहते हैं। कभी समाज की दशा दिखाते हैं तो कभी दिशा देते हैं। आइए पटना रंगमंच के सफर पर नजर डालते हैं।

By Akshay PandeyEdited By: Published: Sat, 28 Mar 2020 09:07 AM (IST)Updated: Sat, 28 Mar 2020 09:07 AM (IST)
आजादी के पहले से जारी पटना रंगमंच का सफर, बस बदलते गए किरदार
आजादी के पहले से जारी पटना रंगमंच का सफर, बस बदलते गए किरदार

प्रभात रंजन पटना। पटना के रंगमंच का अपना तिलिस्म है। संसाधन कम हो या ना हो रंगमंच से जुड़े कलाकार दर्शकों को प्रेक्षागृह तक लाने में जी-जान लगाते रहे हैं। आरंभ के दिनों से लेकर आजतक रंगमंच से जुड़े कलाकारों ने केवल रंगमंच को नई दिशा दी बल्कि रंगमंच के जरिए फिल्मी जगत में अपनी पहचान बनाई। रंगमंच से जुड़े कलाकार शहर के अंदर और शहर के बाहर रहकर भी दर्शकों को गुदगुदाते रहे हैं। भले ही शहर में ऑडिटोरियम हो न हो, पैसा और भविष्य न दिखे फिर भी रंगमंच से जुड़े कलाकारों ने नित्य नये आयाम गढ़ने के साथ आने वाली पीढि़यों को भी रंगमंच के प्रति जागरूक करने में लगे हैं।

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पटना की रंगमंच की बात करें तो यहा पर पृथ्वी राज कपूर के साथ-साथ रामायण तिवारी, प्यारे मोहन सहाय, विनीत कुमार, पंकज त्रिपाठी आदि कलाकारों ने अपने अभिनय से रंगमंच के साथ फिल्मी दुनिया में अपना नाम कमाया। पटना रंगमंच से जुड़े पुराने कलाकार अपने निभाए किरदार कोई खदेरन की माई, तो कोई बटुक भाई तो फाटक बाबा, तो कोई सम्राट और पहलवान चाचा के नाम से काफी मशहूर हुए। 

कलाकारों ने दर्शकों पर डाला प्रभाव

पटना के रंगमंच में नाटक के अनुसार किरदार हमेशा से बदलते रहा है। नाट्य निर्देशक अपनी सुविधा और दर्शकों को मंच तक रोकने के लिए अलग-अलग किरदारों का प्रयोग करते रहे हैं। हर नाटक मंचन के दौरान किरदार की भूमिका कोई निश्चित नहीं होती। स्क्रिप्ट के अनुसार नाटक के किरदार बदलता रहता है। कभी किसी नाटक में कोई कलाकार विभीषण बन जाता है तो किसी नाटक में सीता चाची बन जाता है। लेकिन इन्हीं नाटकों में कई ऐसे नाटक होते हैं जो कलाकारों को एक उपनाम भी दे देते हैं। 

शहर के वरिष्ठ रंगकर्मी सुमन कुमार की मानें तो 60 के दशक में वरिष्ठ रंगकर्मी रामेश्वर सिंह कश्यप के नाटक 'लोहा सिंह' ने 1950 के दशक में दर्शकों पर काफी प्रभाव डाला। इनके नाटकों का मंचन शहर के रंगमंच पर तो हुआ ही, पटना आकाशवाणी से भी खूब प्रसारित हुए। इसको सुनने के लिए लोग काफी उत्सुक रहते थे। सुमन कुमार बताते हैं कि इन नाटकों में काम करने वाले किरदार को लोग उपनाम से जानते थे। लोहा सिंह के नाटक में काम करने को लेकर युवा कलाकारों की खूब उत्सुकता रहती थी। इनके नाटक में प्रभात चंद्र मिश्रा 'फाटक बाबा' के नाम से मशहूर थे तो शाति देवी 'खदेरन की माई' से जानी जाती थीं। बाद के दिनों में अखिलेश्वर प्रसाद सिन्हा ने फाटक बाबा का किरदार निभाया तो बुलाकी की भूमिका में सुमन कुमार ने अभिनय कर दर्शकों पर अमिट छाप छोड़ी। 

अपने किरदारों को जिया

वरिष्ठ रंगकर्मी प्रेमलता मिश्र ने बताया कि वैसे तो हर नाटक के लिए अलग-अलग किरदार होते हैं। नाटक के अनुसार कलाकारों का भी किरदार बदलता जाता है। 1973 से पटना के रंगमंच पर सक्रिय भूमिका निभाने वाली प्रेमलता मिश्र बताती हैं कि नाटक 'रूक्मिणी हरण' नाटक करने के दौरान रूक्मिणिया की मा का किरदार निभाया था। कुछ समय तक लोगों की जुबान पर यही नाम था। शहर के वरिष्ठ निर्देशक गुप्तेश्वर कुमार की मानें तो पटना रंगमंच में रामेश्वर सिंह कश्यप को 'लोहा सिंह' के नाम से लोग जानते थे तो अजीत भाई को 'थियेटरवाला' और आरपी तरुण वर्मा को 'तरुण भाई' के नाम से लोग जानते रहे हैं। बाद के दिनों में अभिनेता विनीत कुमार को पहलवान से संबोधन करते थे। इन कलाकारों ने न केवल अपने अभिनय से समाज में जगह बनाई बल्कि अपने किरदारों को भी खूब जिया है।

शहर के रंगमंच का पुराना इतिहास

भारतीय रंगमंच को मजबूत करने में पटना रंगमंच का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। पटना रंगमंच के इतिहास का कोई पुख्ता प्रमाण तो नहीं मिलता लेकिन पुराने रंगकर्मियों की मानें तो इसकी शुरुआत 1925 के आसपास हुई थी। साल 1926 के आसपास अंग्रेजी और बाग्ला भाषा में नाटकों का मंचन हुआ था। प्रदीप गागुली बताते हैं कि भोलानाथ गागुली नाटक करते थे, लेकिन उस तरह की गतिविधिया नहीं होती थीं। आरंभ के दिनों में बाग्ला व पारसी थियेटर की धूम थी। फिल्म अभिनेता पृथ्वी राज कपूर भी पृथ्वी थियेटर से जुड़े कलाकारों को लेकर पटना आए थे। शहर के वरिष्ठ रंगकर्मी स्वर्गीय डॉ. चतुर्भुज के पुत्र डॉ. अशोक प्रियदर्शी बताते हैं कि फिल्म अभिनेता पृथ्वी राज कपूर अपनी टीम के साथ 1956 में पटना आए थे। उनकी टीम में शम्मी कपूर और शशि कपूर भी आए थे। 

पृथ्वी राज कपूर के आगमन पर हुई थी अखाड़े की सफाई

डॉ. प्रियदर्शी की मानें तो बाकरगंज स्थित रूपक सिनेमा हॉल के पीछे 'कला मंच' नामक संस्था थी। कपूर के आगमन के लेकर वहा बने अखाड़े की साफ-सफाई हुई थी। इसी जगह पर पृथ्वी राज कपूर अपनी टीम के साथ सात दिनों तक नाट्य प्रस्तुति की थी। इस दौरान पठान, पैसा, आहुति, यहूदी की लड़की का स्टेज शो किया था, जिसे देखने के लिए खूब भीड़ उमड़ी थी। पृथ्वी कपूर ने बिहार के रंगमंच पर टिप्पणी की थी यहा पर बेहतर नाटकों का प्रदर्शन नहीं होता। इसके जबाव में मगध कलाकार के संस्थापक डॉ. चतुर्भुज ने पंडारक में कलिंग विजय नाटक की प्रस्तुति दी थी, जिसे देखने के लिए कपूर परिवार आया था। कलाकारों के अभिनय से पृथ्वी राज कपूर काफी प्रभावित हुए थे। दर्शकों की दीवानगी को देख कपूर ने कहा था कि जहां इतनी संख्या में नाटक के दर्शक हों, उस प्रदेश में गाव-गाव में नाटक होना चाहिए। 

1961 में हुई थी बिहार आर्ट थियेटर की स्थापना

यूनेस्को फ्रांस में साल 1961 में रंगमंच दिवस मनाने की बात सामने आयी। ठीक उसी दिन पटना में रंगकर्मियों की जमात को इकट्ठा कर बिहार आर्ट थियेटर की गयी। बाद के दिनों में स्वर्गीय अनिल मुखर्जी के प्रयास 1972 में कालिदास रंगालय सास्कृतिक कॉम्पलेक्स के लिए एक महत्वपूर्ण भूखंड बिहार आर्ट थियेटर को सरकार ने उपलब्ध कराया। प्रेक्षागृह नहीं होने के कारण तब रंगकर्मी खुले आकाश के नीचे बास और बल्ले के सहारे तंबू लगाकर नाटकों का मंचन करते थे। नाटक देखने के लिए पटना के दर्शकों की रुचि बढ़ने लगी और सप्ताह में पाच दिन नाटकों का मंचन होता रहा।

रंगमंच को गंभीर रंगकर्मी मिलें, इसके लिए अनिल कुमार मुखर्जी ने अपने आवास पुनाईचक में बिहार नाट्यकला प्रशिक्षणालय की स्थापना साल 1970 में की। अरुण कुमार सिन्हा ने बताया कि उन दिनों हिंदी रंगमंच और अंग्रेजी रंगमंच के कलाकारों द्वारा प्रशिक्षण दिया जाता था। हॉलीवुड की सिने तारिका रही नोटेड्रम स्कूल की प्राचार्य रही मेरी पीटर क्लोवर अंग्रेजी थियेटर जैसे रंगकर्मी द्वारा कलाकारों को प्रशिक्षण दिया जाता था।

पंडित केशवराम भट्ट ने की थी पटना नाटक मंडली की स्थापना

पटना में रंगमंडली की स्थापना पंडित केशवराम भट्ट ने वर्ष 1876 में पटना नाटक मंडली की स्थापना की थी। उसी दौरान उन्होंने शमशाद सौसन नामक नाटक लिखा, जिसमें उन्होंने अंग्रेज मजिस्ट्रेट की अतृप्त कामुकता, बेईमानी और अनाचार को दिखाया था। रंगकर्मी अशोक प्रियदर्शी की मानें तो पंडित गोवर्धन शुक्ल के प्रयास से 1905 में पटना सिटी के हाजीगंज मुहल्ले में रामलीला नाटक मंडली की स्थापना की गई थी। पटना सिटी के नाट्य आदोलन का प्रभाव बिहार के दूसरे शहरों पर खूब पड़ा।

ये थी पटना की प्रमुख संस्थाएं -

यंगमेंस ड्रामेटिक एसोसिएशन - 1934

पाटलिपुत्र कला मंदिर - 1948

नील कमल कला मंदिर - 1948

मगध कलाकार - 1952

बिहार आर्ट थियेटर - 1961

मगध कला परिषद - 1968

रूप रंग - 1970

यहां से निकले कई कलाकार

पटना रंगमंच से जुड़े रहने वाले कई रंगकर्मी आज सिनेमा जगत में अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुए हैं। इनमें संजय त्रिपाठी, आशीष विद्यार्थी, संजय मिश्र, रामायण तिवारी मनेर वाले, विनोद सिन्हा, अखिलेंद्र मिश्र, विनीत कुमार, अजित अस्थाना, दिलीप सिन्हा, पंकज त्रिपाठी, विनीत कुमार आदि कई रंगमंच से जुड़े कलाकार रहे हैं, जिन्होंने अपनी पहचान फिल्म जगत में भी बनाई।

पूरे देश में बनाई पहचान

रंगकर्मी  डॉ. अशोक प्रियदर्शी कहते हैं, पटना के रंगमंच का इतिहास काफी पुराना है। रंगमंच से जुड़े कलाकारों ने न केवल रंगमंच को गति दी बल्कि देश में भी अपनी पहचान बनाई। पुराने कलाकारों ने परंपरा की शुरुआत की, जिसका निर्वाह आज के कलाकार बखूबी निभा रहे हैं। आने वाले दिनों में इसे मजबूत बनाने की जरूरत है।

युवा कलाकार बेहतर तरीके से कर रहे तकनीक का प्रयोग

रंगकर्मी सुमन कुमार कहते हैं, पहले और आज के रंगकर्म में काफी बदलाव आया है। आज युवा कलाकार तकनीकों का प्रयोग कर बेहतर नाटकों का प्रदर्शन करने में लगे हैं। उन दिनों कोलकाता से पर्दा मंगाए जाते थे। पानी, पहाड़, जंगल आदि का सीन दिखाने के लिए अलग-अलग पर्दे का प्रयोग खूब होता था। दर्शकों को प्रेक्षागृह तक लाने के लिए कलाकार जगह-जगह बैनर पोस्टर लगाकर चंदा मागते थे। 

कलाकारों ने रंगकर्म को बनाया सशक्त

रंगकर्मी गुप्तेश्वर कुमार कहते हैं, पटना के रंगमंच ने कई ऐसे कलाकार दिए जिन्होंने फिल्मों में भी जगह बनाई। रंगमंच समृद्ध होने के साथ सशक्त भी हुआ है। कलाकार रंगमंच को जिंदा रखने के लिए हर संभव प्रयास करने में लगे हैं। ऐसे में सरकार को भी इस दिशा में सकारात्मक कदम उठाने की जरूरत है जिससे रंगमंच और समृद्ध हो सके।

काफी समय तक उपनाम से जाने गए कलाकार

रंगकर्मी प्रेमलता मिश्र कहती हैं, नाटक में अपना किरदार निभाने वाले कलाकारों को कुछ समय के लिए उनके उपनाम से भी जाना जाता था। वैसे तो नाटक के हिसाब से किरदार बदलते रहता है। लेकिन कुछ किरदार लोगों की जुबान पर हमेशा याद रहती है। रंगमंच को नई पीढ़ी पुराने कलाकारों के अनुभवों से सीख सींचने में लगे हैं। 


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