Bihar Chunav Result 2020: सुशासन बाबू की छवि में नीतीश को विस्तार संग रोजगार प्रदाता की छवि को भी गढ़ना होगा
नीतीश को यह समझ जाना चाहिए कि विकास पुरुष और सुशासन बाबू की जो उनकी छवि है उसमें उन्हें विस्तार करते हुए रोजगार प्रदाता की छवि को भी गढ़ना होगा। प्रमुख विपक्षी दल की इतनी सीटें आने का बड़ा कारण रोजगार का वादा ही माना जा रहा है।
शाहिद-ए-चौधरी। बिहार विधानसभा चुनाव के लिए जब प्रचार चल रहा था, तो यह उम्मीद अवश्य बंधी कि इस बार मतदाता अपने मताधिकार का प्रयोग जीवन के लिए महत्वपूर्ण मुद्दे जैसे रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि को मद्देनजर रखते हुए करेंगे, लेकिन जब नतीजे अंतिम रूप से स्पष्ट हुए तो मालूम हुआ कि एक बार फिर राज्य के मतदाता जाति व धर्म के बंधनों से शायद स्वयं को मुक्त न कर सके। नीतीश कुमार भाजपा के सहारे बतौर मुख्यमंत्री अपने चौथे टर्म के लिए लौट तो गए हैं, लेकिन पहले से बहुत कमजोर स्थिति में होंगे। पहले एनडीए में उनकी जदयू सीनियर पार्टनर हुआ करती थी, इस बार बीजेपी होगी।
इससे प्रशासन पर उनकी पहली सी पकड़ शायद नहीं रहेगी। वैसे यह बात तो चुनाव प्रचार के दौरान ही दिखाई दे गई थी कि नीतीश कुमार का अब एनडीए में पहले जैसा दबदबा नहीं रहा है। हालांकि भाजपा के पास जदयू से 31 विधायक अधिक हैं, लेकिन फिलहाल नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाए रखने की उसकी मजबूरी है। यह कोई सिद्धांत की बात नहीं है कि भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने चुनावी वायदा कर लिया था कि नीतीश कुमार ही मुख्यमंत्री होंगे, बल्कि तथ्य यह है कि भाजपा अपना मुख्यमंत्री बनाने की स्थिति में है ही नहीं। लगभग तीन दशक पहले इस राज्य ने राजनीति का ताना बाना जातिगत पहचान के इर्दगिर्द बुना।
नतीजा यह हुआ कि जातीय गणित से ही चुनावी जीत व हार तय होने लगी, लेकिन इस बार चुनाव प्रचार से यह संकेत तो अवश्य मिले हैं कि उत्तर भारत में सियासत एक नई करवट ले रही है और अधिक समय नहीं लगेगा जब देश में ठोस मुद्दों पर चुनाव लड़े जाएंगे, जिनमें फोकस इस बात पर होगा कि वायदों व महत्वाकांक्षाओं की पूíत हो रही है या नहीं। रोजगार अवसर या उनका अभाव अब तक देश के चुनावों में विषय या मुद्दा नहीं हुआ करता था, लेकिन अब से हुआ करेगा। इसकी नींव पड़ गई है। यह सकारात्मक परिवर्तन है।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि मतदाताओं, विशेषकर युवाओं के लिए बेरोजगारी सबसे बड़ा मुद्दा था, लेकिन क्या केवल इसी को संज्ञान में लेते हुए मत प्रयोग किया गया? नहीं, ऐसा नहीं है कि इसे लेकर वोट हुआ। फिर भी कहना चाहिए कि रोजगार पर सियासी दलों की लफ्फाजी के बावजूद इस मुद्दे का समाधान करने के लिए इच्छा शक्ति का अभाव है। इसलिए लगता नहीं कि नीतीश कुमार की नई सरकार अर्थव्यवस्था को वरीयता देगी या ऐसा करने की स्थिति में होगी। जब अर्थव्यवस्था गड़बड़ाई हुई है, जॉब्स कहीं दिखाई नहीं दे रहे हैं, तो खालिस वायदों से क्या किया जा सकता है? ऐसी स्थिति में नई सरकार को चाहिए कि उद्योगपतियों में विश्वास जागृत करे कि बिहार में निवेश के अच्छे अवसर हैं। अगर ऐसा होता है तो बिहार के लिए इस चुनाव के लिए हुए प्रचार की यह सबसे बड़ी उपलब्धि होगी। यह उत्तर भारत के अन्य राज्यों को ही नहीं, बल्कि सभी राज्यों को प्रेरित करने में सहायक होगा।
नीतीश कुमार को अपनी शराबबंदी योजना की समीक्षा करनी चाहिए। इस चुनाव के दौरान, चुनाव आयोग के अनुसार, लगभग 25 करोड़ रुपये मूल्य की शराब पकड़ी गई। वर्ष 2015 व 2019 के चुनावों में पकड़ी गई शराब के मूल्य से यह कहीं अधिक है। दरअसल शराबबंदी एक ऐसी नीति है जो निरंतर और हर बार नाकाम ही रही है। साथ ही, जब लंबे समय तक किसी राज्य में शराबबंदी रहती है तो भ्रष्टाचार के साथ समानांतर अर्थव्यवस्था उत्पन्न हो जाती है, जिससे राजस्व को नुकसान पहुंचता है। इसके अलावा, अवैध व जहरीली शराब बिकती है, जिससे गरीबों की जान को खतरा रहता है और बड़ी संख्या में लोग जेल भी पहुंच जाते हैं।