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क्‍या हुआ था जब चंद्रकांता के क्रूर सिंह के पटाखों की थैली उनके पापा ने पकड ली थी

चंद्रकांता के क्रूर सिंह ने अपने बचपन की दिवाली के यादों का खोला पिटारा। पिताजी पटाखों के बिल्‍कुल खिलाफ थे । उन्‍होंने पकड लिया था पटाखों का थैला।

By Akshay PandeyEdited By: Published: Sat, 03 Nov 2018 06:06 PM (IST)Updated: Sat, 03 Nov 2018 06:06 PM (IST)
क्‍या हुआ था जब चंद्रकांता के क्रूर सिंह के पटाखों की थैली उनके पापा ने पकड ली थी

पटना [जेएनएन] दिवाली को लेकर मन मेें बचपन से ही काफी उत्सुकता रहती थी। मिट्टी से घरौंदा बनाने की और रातभर पटाखे और फूलझरी छोडऩे की होड़ लगी रहती थी। पटना आए चंद्रकांता में क्रूर सिंह का किरदार निभाने वाले अखिलेंद्र मिश्र ने अपने बचपन की दिवाली की यादें ताजा कीं । उन्‍होंने बताया कि पटाखे खरीदने के लिए महीने भर पहले से पैसे एकत्र किए जाते थे और कंदील जलाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती थी। मिट्टी के दीयों को भिगाने की जुगत इसलिए होती थी ताकि यह ज्‍यादा तेल न पी जाए। घर के चप्पे-चप्पे की सफाई इसलिए होती थी कि कहीं माता लक्ष्मी घर के द्वार से घूम कर चली न जाएं। फिल्म अभिनेता अखिलेंद्र मिश्र ने याद की अपनी यादगार दिवाली।

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दिवाली का असली मजा तो बचपन में आता है। मेरा बचपन भी ऐसे ही मौज-मस्ती के बीच थी। एक महीने पहले से दिवाली को लेकर सभी जुटते थे। इसकी तैयारी को लेकर काफी उत्सुकता रहती थी। पटाखे के लिए पैसे तो घर से नहीं मिलते थे इसलिए घर के सभी बच्चे महीनों पहले से दादी-नानी, मौसी और संगे संबंधियों से दिए हुए पैसे एकत्र कर लिया करते थे। पटाखों को चोरी-छिपे थैली में बंद करके रखने का अपना ही मजा था। जब पूरे मोहल्ले के पटाखे खत्म हो जाते थे तब पटाखे छोडऩे का आनंद ही अलग होता था।

पापा ने पकड़ ली पटाखों की थैली

दिवाली से मुझे अपने रंगेहाथ पकड़े जाने का वाकया याद है। उन दिनों में मुश्किल से सात से आठ साल का था। जब पापा ने पटाखों की थैली पकड़ ली थी। मेरे पिताजी क्षत्रपति मिश्र पटाखों के सख्त खिलाफ थे। पटाखों पर सख्त मनाही और हिदायत बचपन से ही दी गई थी। पापा से छिपकर पटाखे फोड़ा करते थे। ऐसे में हमारी दिवाली पैसे इकट़़ठा करने और पटाखे को बचाने में गुजर जाती थी। इसी दौरान एक दिन पटाखों की थैली पापा के हाथों लग गई। जिसके बाद सभी के  होश उड़ गए। न कोई पापा की बातों का जबाव दे रहा था और न हीं पटाखों की चोरी-छिपे इकटठे करने की बात कोई स्वीकार कर रहा था। फिर पापा ने कहा कि जब ये किसी की है नहीं तो मैं ऑफिस लेकर जा रहा हूं। वह दिवाली आज भी हमारे दिमाग में रचा-बसा है।

मिट्टी के दीये का था महत्व

दिवाली की तैयारियों को लेकर मन में काफी जोश रहता था। गांव-देहात में एक कहावत थी जितनी सफाई होगी मां लक्ष्मी आएगी। स्वच्छता अभियान तो हमारा तब चला करता था। जब हमलोग जोर-शोर से घर और कमरे की सफाई में जुट जाते थे। अपनी किताब को सहेज कर रखना, कमरे की सफाई करना। घर को संवारने में पूरा बच्चा पार्टी जुट जाता था। दीयों के लिए तो हमलोग दिन भर मेहनत करते थे। दिवाली तो मिट्टी के दीए से ही हुआ करती थी। नए चाक पर पकाए हुए दीये को पूरे दिन एक बड़े बर्तन में पानी से भिगोने को छोड़ देते थे। इससे पानी जितना सोखना होता था तो दीया सोख लेता था। रात भर हर बच्चे को काम होता था कि दीये में तेल डालना। बचपन में तो लगता था कि अगर दीया बुझा तो माता लक्ष्मी मेरे घर नहीं आएंगी इसलिए रात भर का जागरण भी हो जाता था।

रंगीन कंदील बनाने की रहती थी उत्सुकता

दिवाली में बांस से बने कंदील और और उसपर रंगीन कागज का लेप लगाने का अपना महत्व रहता था। कंदील बनाने के लिए दिवाली के कुछ दिन पहले से इसकी तैयारी करते थे। रंगीन कंदील जब रात में आसमान के नीचे अपने प्रकाश को फैलाता था तो कंदील से निकलने वाले रंगीन प्रकाश की सुंदरता देखते बनती थी। गांव के हर घर में कंदील से निकलने वाले प्रकाश से पूरा महकमा प्रकाशवान होता था। हमारे कंदील औरों से अलग दिखे जिसके लिए खूब मेहनत करते थे।


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