हमने 'भगवान' माना, आप तो इंसान भी न रहे
डॉक्टरों को शायद इसलिए 'धरती का भगवान' कहा गया होगा कि वे मरीजों की जान बचाते हैं। अफसोस कि ये आत्ममुग्ध भगवान साधारण आदमी जितनी भी इंसानियत भूल गए।
पटना [सद्गुरु शरण। दौलती देवी स्वतंत्रता सेनानी की विधवा हैं, यह संयोग है। हमारे लिए इतना काफी है कि वह 92 वर्ष उम्र की मरीज हैं जो अपना इलाज कराने के लिए अपने बेटे-बहू के साथ दिनभर राजधानी के सरकारी अस्पतालों में भटकती रहीं लेकिन आइजीआइसी और आइजीआइएमएस जैसे प्रतिष्ठित अस्पतालों में उन्हें भर्ती नहीं किया गया।
उनकी बिगड़ती हालत देखकर उनके परिवारजन उन्हें एक प्राइवेट अस्पताल में ले गए, जहां भर्ती करके उनका इलाज शुरू हुआ। देर शाम इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के चैनलों पर यह न्यूज फ्लैश होने पर शासन के अफसरों ने अस्पतालों के अफसरों को झकझोर कर जगाया। तब दौलती देवी को प्राइवेट अस्पताल में से लाकर सरकारी अस्पताल में भर्ती किया गया।
मीडिया और शासन के अफसर शायद इसलिए संवेदनशील हुए क्योंकि दौलती देवी एक स्वतंत्रता सेनानी की विधवा हैं और महज चार-पांच दिन पहले बिहार सरकार ने स्वतंत्रता सेनानियों के सम्मान में बड़ा आयोजन किया था। देश की आजादी के लिए अपना यौवन-जीवन दांव पर लगाने वाले राष्ट्रभक्त परिवारों के लिए यह चिंता सराहनीय है।
सवाल यह है कि यदि दौलती देवी स्वतंत्रता सेनानी परिवार के बजाय साधारण नागरिक होतीं तो उन्हें सरकारी अस्पताल में इलाज कराने का अधिकार नहीं मिलता? बीमारी यह नहीं समझती कि किसकी क्या पहचान है। उसे इलाज चाहिए लेकिन बिहार की राजधानी में यह आसान नहीं है। करीब दोगुना बड़े क्षेत्र व जनसंख्या वाले यूपी में एम्स नहीं है, पटना में है।
पीजीआइ के टक्कर का आइजीआइएमएस है, आइजीआइसी है, पीएमसीएच और एनएमसीएच तो हैं ही। कह सकते हैं कि इंफ्रास्ट्रक्चर के स्तर पर कोई कमी नहीं है। इसके बावजूद गया से इलाज कराने के लिए पटना पहुंचीं दौलती देवी को यहां के नाम-धन्य सरकारी अस्पतालों में एक बेड मुहैया नहीं होता क्योंकि बेड पर पसरकर अव्यवस्था खर्राटे ले रही है।
डॉक्टरों को शायद इसलिए 'धरती का भगवान' कहा गया होगा कि वे मरीजों की जान बचाते हैं। अफसोस कि ये आत्ममुग्ध भगवान साधारण आदमी जितनी भी इंसानियत भूल गए। सड़क पर कोई हादसा होता है या कहीं कोई अन्य घटना होती है तो अपरिचित लोग तुरंत वाहन की व्यवस्था करके उस व्यक्ति को अस्पताल पहुंचाते हैं, जरूरत हुई तो अपना खून देते हैं ताकि उस अनजाने व्यक्ति की जिंदगी बच जाए।
दूसरी तरफ ये 'भगवान' हैं जो अपने दर पर आए हुए मरीज को भगा देते हैं। कैसी संवेदनहीन चिकित्सा व्यवस्था है यह? जिन्हें यह सवाल परेशान करता है कि पटना में इतने बड़े-बड़े सरकारी अस्पतालों के बावजूद इतनी बड़ी संख्या में नर्सिंग होम कैसे फल-फूल रहे हैं, मुफ्त दवाओं की गारंटी के बावजूद हर सरकारी अस्पताल के सामने दवा दूकानों की मंडी कैसे चलती है, उन्हें दौलती देवी की आपबीती से जवाब मिल गया होगा।
दौलती देवी सौभाग्यशाली हैं कि उनके पति ने जंग-ए-आजादी में शिरकत की, इसलिए दिनभर ठोकरें खाने के बाद देर शाम सही, उन्हें सरकारी अस्पताल में एक बेड मयस्सर हो गया लेकिन उन साधारण और साधनहीन लोगों का क्या कुसूर है जिनके परिवार में कोई स्वतंत्रता सेनानी नहीं है? क्या उन्हें अपना इलाज कराने का अधिकार नहीं है।
संसाधनों की कमी का रोना फैशन बन गया है। डॉक्टर कम हैं, बेड नहीं हैं, उपकरण नहीं है, पैरा मेडिकल कर्मचारी नहीं हैं, दवाएं नहीं हैं, एम्बुलेंस नहीं हैं। सरकारी अस्पतालों के अफसरों से लेकर निचले स्तर तक कर्मचारी बात-बात में यही कमियां गिनाते हैं। कोई यह नहीं बताता कि जो सुविधाएं हैं, उनका इस्तेमाल किस तरह किया जा रहा?
डॉक्टर समय पर ओपीडी में क्यों नहीं रहते? जो दवाएं स्टोर में उपलब्ध हैं, वे मरीजों को क्यों नहीं मिलतीं? मरीजों को खास दूकानों से ही दवाएं खरीदने और जांचें कराने के लिए क्यों बाध्य किया जाता है? जूनियर डॉक्टर हमेशा गुस्से में क्यों रहते हैं? उन्हें मरीजों के परेशान हाल परिवारजनों के साथ मारपीट का अधिकार किसने दिया? क्या इन डॉक्टरों को वह शपथ याद है जो डिग्री हासिल करते वक्त उन्होंने ली थी?
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याद है तो वे किसी भी वजह से हड़ताल कैसे कर सकते हैं? डॉक्टरों को इन सवालों पर विचार करना चाहिए। वे भगवान नहीं हैं, लेकिन यदि किसी ने खुशफहमी या गलतफहमी में उन्हें भगवान कह ही दिया तो उन्हें इस भावना की कद्र करनी चाहिए। वे बेशक भगवान न बनें, पर इंसान तो बने रहें। भविष्य में किसी दौलती देवी को इस तरह तंग न करें।
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