तीसरी कसम: प्यार की अनोखी दास्तान पर बनी फिल्म, जो अफसाना बन गई
बिहार के ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म तीसरी कसम एक यादगार फिल्म है। फणीश्वर नाथ रेणु के मारे गए गुलफाम की कहानी और प्रेम की इस अद्भुत दास्तान को लोग आज भी याद करते हैं।
पटना [काजल]। बिहार का गांव और ग्रामीण पृष्ठभूमि पर चली सधी कलम और वो भी प्रेम की अद्भुत दास्तान तीसरी कसम जिसे 1967 में ‘राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार’ का सर्वश्रेष्ठ हिंदी फीचर फिल्म का पुरस्कार दिया गया। इस अद्भुत प्रेम कहानी को पर्दे पर उतारा था राजकपूर और वहीदा रहमान ने और इस प्रेम कहानी को लिखा था कृतिकार फणीश्वर नाथ रेणु ने।
हिंदी सिनेमा में मील का पत्थर थी फिल्म
बासु भट्टाचार्य के निर्देशन में बनी इस फिल्म के निर्माता थे सुप्रसिद्ध गीतकार शैलेन्द्र । यह फिल्म हिंदी सिनेमा में मील का पत्थर जाती है। हीरामन और हीराबाई की इस प्रेम कथा ने प्रेम का एक अद्भुत महाकाव्यात्मक पर दुखांत कसक से भरा आख्यान सा रचा जो आज भी पाठकों और दर्शकों को लुभाता है।
प्रेम कहानियों में सबसे अलग है तीसरी कसम
आज तक जितनी भी प्रेम कहानियों पर फिल्में बनीं, तीसरी कसम इनमें सबसे अलग है। फणीश्वरनाथ रेणु द्वारा लिखित कहानी ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’ एक अंचल की कथा है जिसका परिवेश ग्रामीण है, जहां जीविकोपार्जन का साधन कृषि और पशु-पालन है। इस कहानी के मूल पात्र हीरामन और हीराबाई हैं।
हीरामन और हीराबाई की लव स्टोरी है तीसरी कसम
हीरामन एक गाड़ीवान है। हीराबाई नौंटकी में अभिनय करने वाली एक खूबसूरत अदाकारा है जिसे सामान्य भाषा में ‘बाई’ कहा जाता है। इस कहानी का नायक हीरामन एक सीधा सादा और भोला ग्रामीण युवक है। हीरामन लंबे अरसे से यानी बीस साल से बैलगाड़ी हांकता आ रहा है और इस कला में उसे महारत हासिल है।
फ़िल्म की शुरुआत एक ऐसे दृश्य के साथ होती है जिसमें वो अपना बैलगाड़ी को हाँक रहा है और बहुत खुश है। उसकी गाड़ी में सर्कस कंपनी में काम करने वाली हीराबाई बैठी है। हीरामन कई कहानियां सुनाते और लीक से अलग ले जाकर हीराबाई को कई लोकगीत सुनाते हुए सर्कस के आयोजन स्थल तक हीराबाई को पहुंचा देता है।
हीरामन अपने पुराने दिनों को याद करता है जिसमें एक बार नेपाल की सीमा के पार तस्करी करने के कारण उसे अपने बैलों को छुड़ा कर भगाना पड़ता है। इसके बाद उसने कसम खाई कि अब से "चोरबजारी" का सामान कभी अपनी गाड़ी पर नहीं लादेगा। उसके बाद एक बार बांस की लदनी से परेशान होकर उसने प्रण लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए वो बांस की लदनी अपनी गाड़ी पर नहीं लादेगा।
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दोनों की अपनी-अपनी मजबूरी है
हीरामन हीराबाई से मिलकर खुश है, उसपर दिलोजान न्योछावर करता है, हीराबाई से अगाध प्रेम है और वह उसे दुनिया की नजरों से बचाकर रखना चाहता है, लेकिन हीराबाई से वह कह नहीं पाता कि वह उससे कितना प्यार करता है। हीराबाई भी हीरामन को दिलो जान से चाहती है लेकिन नौटंकी में नाच दिखाना उसके जीवन की मजबूरी है, उसकी जीविका का साधन है।
दोनों का मूक प्रेम रह जाता है अधूरा गरीबी और अपनी-अपनी प्राथमिकताओं के बीच प्यार के रुप में मिली बेवफाई जो जान-बूझकर नहीं की गई थी, हीराबाई को जाना पड़ता है और हीरामन का दिल टूट जाता है। इस सहज और बिल्कुल अलग तरह से फिल्माई गई इस फिल्म को आज भी देखकर उस वक्त के ग्रामीण परिवेश और लोगों की जीवन शैली का पता चलता है।
हीरामन ने खायी तीसरी कसम
अन्त में हीराबाई के चले जाने और हीरामन के मन में हीराबाई के लिए उपजी भावना के प्रति हीराबाई के बेमतलब रहकर विदा लेने के बाद उदास मन से वो अपने बैलों को झिड़की देते हुए तीसरी क़सम खाता है कि अपनी गाड़ी में वो कभी किसी नाचने वाली को नहीं ले जाएगा। इसके साथ ही फ़िल्म खत्म हो जाती है।
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तीसरी कसम को मिला राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार
अभिनय और निर्देशन की नजर से यह फिल्म बेजोड़ थी। इसका अभिनय उच्चकोटि का रहा। इसीलिए 1967 में ‘राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार’ में इसे सर्वश्रेष्ठ हिंदी फीचर फिल्म का पुरस्कार दिया गया। सबसे महत्वपूर्ण बात यह रही कि सब कुछ सादगी से दर्शाया गया।
निसंदेह ‘तीसरी कसम’ अपने दोनों माध्यमों में ऊंचे दरजे का सृजन है। इससे साहित्य और सिनेमा दोनों में निकटता आई है। आजादी के बाद भारत के ग्रामीण समाज को समझने के लिए ‘तीसरी कसम’ मील का पत्थर साबित हुई।