देश भर में मिठास घोलकर अपनी ही जमीन से उखड़ता जा रहा गन्ना, जानिए
कभी देश को सर्वाधिक चीनी देने वाला बिहार आज केवल दो फीसद उत्पादन कर रहा है। ऐसा तब, जबकि बिहार में गन्ने की खेती के लिए उपयुक्त माहौल है। इसके पीछे के कारणों को जानिए इस खबर में।
By Amit AlokEdited By: Published: Fri, 09 Nov 2018 12:47 PM (IST)Updated: Fri, 09 Nov 2018 10:38 PM (IST)
पटना [अरविंद शर्मा]। बिहार कभी देश की 40 फीसद चीनी का उत्पादन करता था। आज महज दो फीसद की भागीदारी है। बिहार के पूसा में 1905 में एशिया का पहला कृषि शोध संस्थान खुला था। 1912 में कोयंबटूर एवं यूपी के शाहजहांपुर में गन्ना शोध संस्थान खोले गए थे, जिसका नियंत्रण भी बिहार के पास ही था। इतना गौरवशाली अतीत के बावजूद गन्ना अपनी ही धरती से धीरे-धीरे उखड़ता जा रहा है।
गन्ना के लिए उपयुक्त माहौल, पर चीनी मिलों की कमी
पूसा स्थित गन्ना शोध संस्थान के निदेशक डॉ. एसएस पांडेय के मुताबिक आज भी बिहार में गन्ने की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु है। माहौल है। मजदूर हैं। कृषि वैज्ञानिक हैं। शोध हैं। नई-नई किस्में हैं। सिर्फ नहीं हैं तो पर्याप्त चीनी मिलें। सार्थक प्रयास भी नहीं है।
60-70 के दशक में देश भर में कुल 136 चीनी मिलें थीं। इनमें बिहार के पास 35 मिलें थीं। 1990 तक 29 मिलें चालू थीं। आज सिर्फ 11 हैं। जो चालू हैं, वे भी समय पर भुगतान नहीं करती हैं। ऐसे में गन्ना से किसानों का मोहभंग लाजिमी है।
राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय ने जगाई उम्मीदें
राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय (पूसा) की कोशिशों ने थोड़ी उम्मीदें जगाई है। हाल के वर्षों में कृषि वैज्ञानिकों ने उन्नत किस्में ईजाद कर किसानों को प्रोत्साहित किया है, किंतु इसका सकारात्मक नतीजा तभी निकल सकता है, जब सरकार भी इच्छाशक्ति दिखाए। बंद मिलों को चालू कराए। मिल परिसर को कॉम्पलेक्स की तरह विकसित किया जाए। इथनॉल उत्पादन को भी बढ़ावा मिले।
केवल चार जिलों में केंद्रित चालू चीनी मिलें
कृषि वैज्ञानिक एवं राजेंद्र राष्ट्रीय कृषि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. डीएन कामत बिहार में गन्ने की खेती में नुकसान का फार्मूला सीधा समझाते हैं। 90 के दशक में चालू सभी चीनी मिलें बिहार के अलग अलग कोने में थीं। आज सब एक जगह हैं। बिहार में कुल 38 जिले हैं, लेकिन चालू मिलें सिर्फ चार जिलों पश्चिमी चंपारण, सीतामढ़ी, गोपालगंज एवं समस्तीपुर में ही केंद्रित हैं। बाकी 34 जिले खाली हैं। किसान क्यों उपजाए गन्ना? उपजाए तो बेचे कहां? अकेले पश्चिमी चंपारण में ही छह चीनी मिलें हैं। दक्षिण बिहार में एक भी नहीं। यह हाल तब है जब बिहार में कृषि उद्योग का मतलब गन्ने की खेती से लिया जाता है।
पूसा ने ईजाद की ढाई सौ किस्में
पूसा में अभी तक गन्ने की ढाई सौ से अधिक किस्में ईजाद की जा चुकी हैं। 56 किस्में खेतों तक पहुंच गई हैं। कई किस्मों को दूसरे प्रदेशों ने भी अपनाया है। यहां तक पूर्वी यूपी के किसान हमारी ही किस्मों से अच्छी फसल ले रहे हैं। पूसा ने गन्ना की पहली उन्नत किस्म 1948 में बीओ-10 नाम से विकसित की थी। अभी यह कड़ी बीओ-154 तक पहुंच गई है।
आजादी के पहले तक सबसे ज्यादा चीनी की मात्रा बिहार के गन्ने में पाई जाती थी। 1978 में बीओ-91 रिलीज हुई तो पूरे देश में चर्चा हुई। जलरोधी होने के कारण इसका कोई मुकाबला नहीं। 1984 में केंद्र ने इसे अधिसूचित किया तो अगले कुछ वर्षों में ही यह पूरे देश में फैल गई। 1994 में यह देश के कुल गन्ना क्षेत्रफल के 30 फीसद हिस्से में लगी थी।
घातक सिद्ध हुआ 90 का दशक
आजादी के बाद भी 60-70 के दशक तक गन्ना उत्पादन में बिहार का प्रमुख स्थान था। कम क्षेत्रफल में भी अच्छी उपज और प्रमुख नकदी फसल होने के चलते गन्ना को बिहार में 'ग्रीन गोल्ड' कहा जाने लगा था। किंतु इसके बाद के दशक घातक सिद्ध हुए।
1990 के बाद दूसरे राज्यों में इसके उत्पादन में वृद्धि होती गई और बिहार में गिरावट। चीनी मिलें बंद होती गईं। यूपी, महाराष्ट्र, तमिलनाडु में ईख की औसत उत्पादकता 100 से 150 टन प्रति हेक्टेयर तक पहुंच गई, किंतु बिहार में महज 63.1 टन रह गई है। दूसरी फसल खूंटी की उत्पादकता महज 37.78 टन ही है।
गन्ना के लिए उपयुक्त माहौल, पर चीनी मिलों की कमी
पूसा स्थित गन्ना शोध संस्थान के निदेशक डॉ. एसएस पांडेय के मुताबिक आज भी बिहार में गन्ने की खेती के लिए उपयुक्त जलवायु है। माहौल है। मजदूर हैं। कृषि वैज्ञानिक हैं। शोध हैं। नई-नई किस्में हैं। सिर्फ नहीं हैं तो पर्याप्त चीनी मिलें। सार्थक प्रयास भी नहीं है।
60-70 के दशक में देश भर में कुल 136 चीनी मिलें थीं। इनमें बिहार के पास 35 मिलें थीं। 1990 तक 29 मिलें चालू थीं। आज सिर्फ 11 हैं। जो चालू हैं, वे भी समय पर भुगतान नहीं करती हैं। ऐसे में गन्ना से किसानों का मोहभंग लाजिमी है।
राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय ने जगाई उम्मीदें
राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय (पूसा) की कोशिशों ने थोड़ी उम्मीदें जगाई है। हाल के वर्षों में कृषि वैज्ञानिकों ने उन्नत किस्में ईजाद कर किसानों को प्रोत्साहित किया है, किंतु इसका सकारात्मक नतीजा तभी निकल सकता है, जब सरकार भी इच्छाशक्ति दिखाए। बंद मिलों को चालू कराए। मिल परिसर को कॉम्पलेक्स की तरह विकसित किया जाए। इथनॉल उत्पादन को भी बढ़ावा मिले।
केवल चार जिलों में केंद्रित चालू चीनी मिलें
कृषि वैज्ञानिक एवं राजेंद्र राष्ट्रीय कृषि विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डॉ. डीएन कामत बिहार में गन्ने की खेती में नुकसान का फार्मूला सीधा समझाते हैं। 90 के दशक में चालू सभी चीनी मिलें बिहार के अलग अलग कोने में थीं। आज सब एक जगह हैं। बिहार में कुल 38 जिले हैं, लेकिन चालू मिलें सिर्फ चार जिलों पश्चिमी चंपारण, सीतामढ़ी, गोपालगंज एवं समस्तीपुर में ही केंद्रित हैं। बाकी 34 जिले खाली हैं। किसान क्यों उपजाए गन्ना? उपजाए तो बेचे कहां? अकेले पश्चिमी चंपारण में ही छह चीनी मिलें हैं। दक्षिण बिहार में एक भी नहीं। यह हाल तब है जब बिहार में कृषि उद्योग का मतलब गन्ने की खेती से लिया जाता है।
पूसा ने ईजाद की ढाई सौ किस्में
पूसा में अभी तक गन्ने की ढाई सौ से अधिक किस्में ईजाद की जा चुकी हैं। 56 किस्में खेतों तक पहुंच गई हैं। कई किस्मों को दूसरे प्रदेशों ने भी अपनाया है। यहां तक पूर्वी यूपी के किसान हमारी ही किस्मों से अच्छी फसल ले रहे हैं। पूसा ने गन्ना की पहली उन्नत किस्म 1948 में बीओ-10 नाम से विकसित की थी। अभी यह कड़ी बीओ-154 तक पहुंच गई है।
आजादी के पहले तक सबसे ज्यादा चीनी की मात्रा बिहार के गन्ने में पाई जाती थी। 1978 में बीओ-91 रिलीज हुई तो पूरे देश में चर्चा हुई। जलरोधी होने के कारण इसका कोई मुकाबला नहीं। 1984 में केंद्र ने इसे अधिसूचित किया तो अगले कुछ वर्षों में ही यह पूरे देश में फैल गई। 1994 में यह देश के कुल गन्ना क्षेत्रफल के 30 फीसद हिस्से में लगी थी।
घातक सिद्ध हुआ 90 का दशक
आजादी के बाद भी 60-70 के दशक तक गन्ना उत्पादन में बिहार का प्रमुख स्थान था। कम क्षेत्रफल में भी अच्छी उपज और प्रमुख नकदी फसल होने के चलते गन्ना को बिहार में 'ग्रीन गोल्ड' कहा जाने लगा था। किंतु इसके बाद के दशक घातक सिद्ध हुए।
1990 के बाद दूसरे राज्यों में इसके उत्पादन में वृद्धि होती गई और बिहार में गिरावट। चीनी मिलें बंद होती गईं। यूपी, महाराष्ट्र, तमिलनाडु में ईख की औसत उत्पादकता 100 से 150 टन प्रति हेक्टेयर तक पहुंच गई, किंतु बिहार में महज 63.1 टन रह गई है। दूसरी फसल खूंटी की उत्पादकता महज 37.78 टन ही है।
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