बिहार संवादी: कहानी गतिशील हो, जो ठहर जाए वह समकालीन नहीं
भूत नहीं वर्तमान समकालीन है। जिस काल में रह रहे हैं वह समकालीन नहीं अपितु पुरानी कथाओं को लेते हुए वर्तमान चुनौतियों को आत्मसात करना जरूरी है।
पटना [अक्षय पांडेय]। बिहार संवादी के तीसरे सत्र में 'रचनात्मकता का समकाल' विषय को यथार्थ करने के लिए चार साहित्यकारों की चौकड़ी मंचासीन थी। परंपरा को बनाए रखते हुए साहित्य में तत्कालीन समाज के बिंब को दर्शा देने की बात पर तारामंडल सभागार में तालियां गूंजी। साहित्य के साथ कविताओं और दादी-नानी की कहानियों को भी गतिमान बनाए रखने के लिए जोर दिया गया। विचार व्यक्त कर रहे थे अवधेश प्रीत, संतोष दीक्षित, अनिल विभाकर और अनु सिंह चौधरी। संचालन की जिम्मेदारी राज शेखर ने संभाल रखी थी।
साहित्य में हो परंपरा का समावेश
सत्र की शुरुआत का पहला सवाल संतोष दीक्षित के लिए था। किसे कहें समकालीनता? जवाब- रचनात्मकता को समकालीनता कह सकते हैं, अगर वह परंपरा बनाए रखे। जैसे पुराने साहित्य की स्मृति समकालीन है। जो कहानी ठहर जाए वह समकालीन नहीं। गतिशीलता इसका बेहतर उदाहरण है।
अनुपस्थिति में हो जाए पाठकों की उपस्थिति
साहित्य में अनुपस्थित कारणों पर उठे सवाल को अवधेश प्रीत ने समकालीनता की संज्ञा दी। कहा, प्रेमचंद्र इसके सबसे बड़े उदाहरण हैं। लेखन भिन्न नहीं है। पाठकों की अनुपस्थिति में उनकी उपस्थिति कराना लेखक का काम है। यही रचनात्मकता है और समकालीन भी। एक तरह से ये चुनौतियों से जूझती पीढिय़ों की कहानी है।
स्त्री हर काल को समझने में माहिर
संचालक ने जैसे ही महिलाएं नारीवादी लेखन अधिक कर रही हैं? सवाल किया तो सभागार में मौजूद सभी लोगों की निगाहें अनु सिंह चौधरी पर रुक गईं। जवाब भी मुस्कुराहट के साथ मिला, अगर कोई ईमानदारी से लेखन कर रहा है तो उसे प्रेरणा दी जानी चाहिए। पुरुषों के लेखन में नारी के पूरे जीवन की व्यथा झलकनी आसान नहीं है। स्त्री हर काल को समझते हुए उसे रचनाओं में पिरो सकती है। हमारा नजरिया नया है। हमारे शब्दों में हर किसी की बातें हो रही हैं।
लिखा वही जाए जो हो सच
एक कवि समकालीनता को कहां देखता है? अनिल विभाकर ने कहा, भूत नहीं वर्तमान समकालीन है। जिस काल में रह रहे हैं वह समकालीन नहीं अपितु पुरानी कथाओं को लेते हुए वर्तमान चुनौतियों को आत्मसात करना जरूरी है। भविष्य की घटनाओं का समावेश लेखन में होना चुनौती पूर्ण है। थोड़ा रुककर अनिल बोले, लिखने में समय भले ही लगे लेकिन लिखा वही जाए, जो सच हो। लेखन में जीवन की कथा और व्यथा दोनों जीवंत हों।
रोजाना आत्मसात करना है चुनौती
सवाल उठा- कहानियों में समकालीन रचनात्मकता भी बनाए रखना बड़ी चुनौती है? अब बारी थी संतोष दीक्षित की। कहा, लेखन में बिंब नहीं आना बड़ी बात है। रोजाना नया आत्मसात करना चुनौती है। समाज की भिन्नता शत्रुता में बदल रही है, उसको समेटकर लिखना जरूरी है। किस्से कहानियों में पर्दे के पीछे बहुत से सच छिप जाते हैं, लेखन ऐसा होना चाहिए कि पर्दे जैसी संभावना ही न रहे।
प्रतिक्रियाओं के लिए युवा पाठकों का होना जरूरी
कहानी लिखने में एक नहीं साझा चुनौतियां हैं। अनु चौधरी ने कहा कि संवाद के तरीके बदल रहे हैं। तकनीक भी एक नई चुनौती बनकर सामने आ रही है। युवा पाठकों तक पहुंच बनाना मुश्किल हो गया है। युवाओं से प्रतिक्रियाएं मिलती हैं। इस लिए उन तक हमारी बातें पहुंचनी चाहिए। कहानियों केवल सोशल नेटवर्क की गलियों में न ठहरें, इसका भी ख्याल रखना होगा।
क्या चुने, क्या नहीं बनी है बड़ी चुनौती
रचनात्मकता के पीछे कई पीढिय़ां वैचारिक काम करती हैं। अवधेश प्रीत ने कहा, पुराने और आज के किस्सों का संगम होना जरूरी है। हर उम्र को पढऩे की प्रवृत्ति बनाए रखना जरूरी है। यथार्थ के तेजी से गिरने में क्या चुने क्या नहीं ये बड़ी चुनौैती बनकर उभरी है। एक कहानी का सारांश देते हुए अवधेश ने कहा, दुख इस बात का नहीं होना चाहिए कि मेरी दीवारों पर इतनी कीलें हैं खुशी इसकी होनी चाहिए कि मुझे सीने से कीलें निकालने का मौका तो मिला है।
वाट्सएप पर बच्चे सुन रहे लोरी
अनिल ने कहा, एक पक्षीय लेखन होना समाज के लिए ठीक नहीं। कविताओं का स्थान स्मार्ट फोन ने ले लिया है। बचा-कुचा समय बच्चे टीवी पर कार्टून देखने में बिता रहे हैं। अवधेश प्रीत बोले, पहले दादी-नानी की कहानियों को बच्चे सुनकर सोते थे। अगले दिन उसी कहानी को आगे जानने की जिज्ञासा रखते थे। आज वो झुर्रियों वाली दादी-नानी कहां? उसकी जगह बच्चों को फोन पर चुटकुले भेज दिए जाते हैं। सुनाती दिखाती भी नानी हैं, पर कहानियां नहीं वाट्सएप संदेश।
महिलावादी राह पर चलने की जरूरत
सत्र के अंत में सवाल-जबाब का सिलसिला शुरू हुआ। दादी-नानी से जुड़ा सवाल एक वृद्ध महिला ने अवधेश प्रीत से पूछा, महिलाएं ही कहानी सुनाने के लिए क्यों हों जिम्मेदार। दादा-नाना का जिक्र क्यों नहीं होता? अवधेश प्रीत ने जवाब दिया, हमें पता है कि पुरुषवादी समाज की राह पकड़ हम काफी समय से चल रहे हैं। आपका सवाल जायज है। परंपरा बदलनी चाहिए। दादा-नाना के कंधे ही नहीं कहानियां भी होनी चाहिए।