भारतीय संस्कृति और उसकी विरासत को एक बार फिर से समृद्ध बनाने के करने होंगे साझा प्रयास
बीते आठ वर्षो के दौरान ऐसे अनेक तथ्य सामने आए हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि हमारी सांस्कृतिक विरासतों के प्रति इतिहास लेखन में निष्पक्षता नहीं बरती गई जिससे उनके प्रति गौरवबोध का वह भाव नहीं जग पाया जो जगना चाहिए था।
प्रो. आतिश पाराशर। कहा जाता है कि किसी को उसकी जड़ से काटना हो तो उसे उसके अतीत से काट दो, उसे उसके गौरवबोध का अहसास मत होने दो। एक बार अतीत से पीछा छूट जाए तो व्यक्ति का गौरवबोध न केवल हमेशा के लिए जाता रहेगा, बल्कि उसके लिए उसका अपना ही इतिहास बेगाना हो जाएगा। वह किसी भी घटना या संदर्भ को वैसे ही समङोगा, जैसी व्याख्या उसके सामने प्रस्तुत की जाएगी। सैकड़ों वर्षो की पराधीनता और इस दौर की घटनाओं की मनमानी व्याख्या के जरिए यह प्रयास लंबे समय से चलता रहा है कि जनसामान्य या तो गौरवबोध से वंचित रहे या उसका इतिहासबोध विकृति का शिकार हो जाए। और इसी कारण इतिहास के जिन पृष्ठों से हम प्रेरित हो सकते थे और जिन प्रतीकों से समाज पुनर्जागरण के लिए प्राणवायु ले सकता था, उस पर सुनियोजित ढंग से प्रहार किए जाते रहे।
वृहत्तर भारतीय समाज : कभी ताकत के बल पर तो कभी किसी और प्रपंच के सहारे जनसमूह को दिग्भ्रमित करके ऐसा परिवेश बनाने का प्रयास हुआ, जिससे वृहत्तर भारतीय समाज का अपने इतिहास, अपने इतिहास पुरुषों, ऐतिहासिक घटनाओं और प्रतीकों के प्रति अनास्था या उदासीनता का भाव जगे। तत्कालीन परिस्थितियों में इन शक्तियों और इनकी दुरभिसंधियों को सफलता भी मिली। तमाम कारणों से ऐसा परिवेश बना कि हमारा अपने ही अतीत से नाता बना नहीं रह सका, और न ही हम अपने अतीत के प्रति जागरूक बने रह सके। अपने प्रतीकों पर हुए आक्रमण को विवशता से देखते रहने की इस बाध्यता ने हमें इतना कुंठित कर दिया कि सदियों तक हम यही मानते रहे कि हमारे इतिहास और हमारी संस्कृति के बारे में हम स्वयं कुछ नहीं जानते हैं। ऐसी स्थिति में यह अवश्यंभावी था कि हमें जैसा बताया जाता, वैसा मानने को हम अभिशप्त होते। ऐसा हुआ भी।
इतिहास का विकृत स्वरूप : अपने प्रतीक चिह्नें के परिवर्तित स्वरूपों को मान्यता देने या इतिहास की विकृति को स्वीकार कर पाठ्यपुस्तकों में लिखी बातों को सत्य मानने के अतिरिक्त हमारे पास कोई चारा नहीं था। अगर कहीं कुलबुलाहट थी भी तो इसे ताड़कर शिक्षित वर्ग को प्रभाव में लेने का ऐसा कुचक्र रचा गया कि वे भी तोतारटंत की तरह उसी भाषा में बोलने लगे। परिणामस्वरूप देखते-देखते देश में शिक्षित लोगों का एक ऐसा समूह तैयार हो गया जो रंग-रूप में भले ही देसी था, परंतु उसकी रगों में भारतीयता या भारत के प्रति गौरवबोध का एक कतरा भी नहीं था। ऐसे लोगों के लिए भारत, भारतीयता तथा भारतीय संस्कृति गौरव के विषय नहीं बने। इनके लिए तो मुगलों की महानता उल्लेखनीय हो गई, उनकी न्यायप्रियता, वास्तुशिल्प के प्रति आकर्षण और भारतीयता को आत्मसात करने जैसी कहानियां ही उल्लेख योग्य बनीं। ऐसे लोगों के लिए अंग्रेजों की न्यायप्रियता और शिक्षा के प्रति उनका प्रयास ही उल्लेख योग्य था।
ऐसी कहानियां, ऐसे विवरण पुस्तकों में ठूंस-ठूंस कर भरे गए, जिससे यह स्थापित हो कि हमारे पास जो भी गर्व करने लायक उपलब्धियां हैं वे या तो मुस्लिम शासकों की देन हैं या फिर अंग्रेजी शासन की। स्वाधीनता के बाद स्थितियां बदलने की उम्मीद थी, परंतु ऐसा हो नहीं पाया। कांग्रेस के लंबे शासनकाल में ऐसी मान्यताएं और बलवती हुईं। शैक्षिक परिदृश्य पर भी ऐसे तत्वों का प्रभुत्व हो गया जो विकृत तथ्यों को पाठ्यक्रमों में समाहित कर नई पीढ़ी को भी गौरवबोध से वंचित करने के पक्षधर थे। ऐसे में कई पीढ़ियां इतिहास की गलत व्याख्या को सही मानकर पढ़ती रहीं और अपने बच्चों को वैसा ही पढ़ाती भी रहीं।
लेकिन कहते हैं, परिस्थितियां सदैव एक जैसी नहीं रहतीं। 21वीं सदी में दस्तक देती दुनिया के साथ भारत की परिस्थितियां भी जब बदलीं और जिस तरह का राजनीतिक-सामाजिक परिवेश बना, उसमें विध्वंसक शक्तियों को चुनौती मिलनी ही थी। अपना कार्यकाल पूरा करने वाली केंद्र में पहली गैर कांग्रेसी सरकार अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी और विभिन्न राजनीतिक विवशताओं के कारण यह सरकार भले बहुत कुछ नहीं कर पाई, किंतु ऐसी शक्तियों की पेशानी पर बल पड़ना स्वाभाविक था, जो यह सपने देखती आई थीं कि उनकी मान्यताएं जड़ जमा चुकी हैं और उनकी व्याख्या को जनमानस स्वीकार कर चुका है। वे यह भूल गए कि सांस्कृतिक परिवर्तन की आंधी जड़ जमाए पुराने वृक्षों को भी उखाड़ देती है। अयोध्या प्रकरण पर वर्षो से चली आ रही यथास्थिति में बदलाव को इसी परिवर्तन के रूप में स्वीकार किया गया।
नई सांस्कृतिक लहर का आरंभ : इसने अन्य बातों के अतिरिक्त यह भी किया कि देश में नई सांस्कृतिक लहर पैदा की। तब जो ज्वार उठा उसकी परिणति आगे किस रूप में होगी, इसकी कल्पना क्या लोगों के मन में आने नहीं लगी थी? क्या मथुरा और वाराणसी को लेकर तब धीमे स्वरों में उठती आवाज की गूंज सुनाई नहीं देने लगी थी? दर्जन भर से अधिक राजनीतिक दलों को मिलाकर बनी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार अपना कार्यकाल पूरा कर सत्ता से बेदखल हुई अवश्य, किंतु सांस्कृतिक स्तर पर नवजागरण की जो शुरुआत 1991-92 में हुई थी, वह निरंतर अग्रगामी रही। इसी कारण जब वर्ष 2004 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में संप्रग सरकार सत्ता में आई तो सरकार के स्तर से किए जाने वाले बदलावों पर प्रतिक्रिया भी तत्काल देखने को मिली।
संप्रग की यह सरकार ऐसे राजनीतिक गठबंधन की उपज थी जिसके लिए सांस्कृतिक इतिहास या सांस्कृतिक शुचिता का कोई विशेष महत्व नहीं था, अस्तु इसने आते ही अपनी और सहयोगियों की विचारधारा को पुन: प्रश्रय देना शुरू कर दिया। ऐसा माना जाता है कि जनता के दक्षिणपंथी रुझान और सांस्कृतिक ऐक्य को कम करने के लिए संप्रग में शामिल विभिन्न राजनीतिक दलों का यह एजेंडा भी था। फिर निशाना बने बच्चे और उनकी पुस्तकें। इतिहास की जिन विकृतियों में संशोधन का काम पूर्ववर्ती सरकार ने शुरू किया था, उस पर न केवल विराम लगा, बल्कि नवोन्मेष और नवाचार के नाम पर वैसी नीतियां बनने लगीं जिनसे पूरा देश आंदोलित हो उठा। मई 2004 में संप्रग सरकार अस्तित्व में आई और आते ही उसने प्रमुख पदों पर नियुक्त अधिकारियों को हटाना और पाठ्यक्रम में मनमाने बदलाव की प्रक्रिया शुरू कर दी। यौन शिक्षा की शुरुआत का प्रयास भी इसी कड़ी से जुड़ा था। विभिन्न सामाजिक, धार्मिक और शैक्षिक संगठनों ने इसका विरोध किया। ऐसे ही कुछ अन्य प्रकरणों से वर्ष 2007 में शिक्षा बचाओ आंदोलन के गठन की पृष्ठभूमि तैयार हुई।
इसी को स्थायी स्वरूप देने के लिए ‘शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास’ का गठन हुआ। इस न्यास के पूर्ववर्ती संगठन ‘शिक्षा बचाओ आंदोलन’ ने इतिहास की विकृतियों को दूर करने की दिशा में उल्लेखनीय कार्य किए। इस संगठन ने एनसीईआरटी की छठी से 12वीं तक की इतिहास की पुस्तक के विकृत अंशों को हटाने का अभियान शुरू करने के साथ ही न्यायालयों का दरवाजा भी खटखटाया। न केवल एनसीईआरटी, वरन इग्नू की पाठ्य सामग्री के विकृत अंशों-अध्यायों का संशोधन भी आंदोलन से संभव हो पाया। निश्चित तौर पर जब इतिहास को विकृत करने की कुत्सित मनोवृत्ति और इस पर कुठाराघात के प्रयासों का निष्पक्ष आकलन होगा तो इतिहास के पुनर्लेखन की आवश्यकता महसूस होगी। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में इस पर व्यापक चिंतन किया जाना चाहिए। सांस्कृतिक विरासतों के प्रति गौरवानुभूति का नवनीत भी इसी चिंतन और विमर्श से निकलेगा।
इतिहास की पुस्तकों में तथ्य देने के पीछे की मानसिकता को समझने पर शैक्षणिक-सांस्कृतिक संगठनों के महत्व को समझा जा सकता है। यह कहना कठिन है कि शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास और इसके पूर्ववर्ती संगठन की पहल के बिना इतिहास की तमाम विकृतियों पर किसी का ध्यान गया भी होता या नहीं या जाता भी तो इसे हटाने के प्रति तत्परता का स्तर क्या होता, परंतु सामान्य तौर पर देखें तो यह कहा जा सकता है कि हिंदी की पाठ्यपुस्तक में हिंदी के नाम पर मजाक जैसी स्थिति बनी रहती, इतिहास के नाम पर देवी-देवताओं के अपमान जैसी स्थिति भी यथावत रहती। न्यायालयों तक में याचिका और वाद के जरिए इन विकृतियों के संशोधन-परिमार्जन का प्रयास इस संगठन ने जिस तत्परता से किया वह ध्यान देने योग्य है। संस्कृत के साथ अन्य भाषाओं के प्रति संवेदनशीलता दिखाने की पहल भी आंदोलन और न्यास के जरिए हुई, संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में भाषायी अन्याय के विरुद्ध भी न्यास ने आवाज उठाई।
यह सांस्कृतिक आंदोलन केवल पाठ्यपुस्तकों की विकृति को दूर करने तक सीमित नहीं रहा। अमेरिकी लेखिका प्रो. वेंडी डोनिगर की पुस्तक ‘द हिंदूज : एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री’ की इस स्थापना का भी आंदोलन और ट्रस्ट की ओर से विरोध किया गया जिसमें कहा गया कि हिंदुओं की कोई मूल पुस्तक नहीं है, विवेकानंद ने भी गोमांस खाने की पैरवी की है, आदि। इस स्थापना के विरोध में अमेरिकी दूतावास के सामने प्रदर्शन हुआ और इसी का परिणाम था कि पूरे देश में इस पुस्तक पर न केवल प्रतिबंध लगा, बल्कि इसे बाजार से भी वापस लिया गया। भारतीय संस्कृति के विशिष्ट तत्वों को रेखांकित कर भारतीय विद्वानों के शोध, अनुसंधान और उनके व्यक्तित्व को महत्व देने के न्यास ने अन्य कई नवाचार भी किए। यह जानना दिलचस्प है कि 22 दिसंबर 2012 को महान गणितशास्त्री श्रीनिवास रामानुजन की 125वीं जयंती पर इस दिन को हर वर्ष राष्ट्रीय गणित दिवस के रूप में मनाने की पहल न्यास ने ही की थी। इसके पहले श्रीनिवास रामानुजन के अवदानों के प्रति गणित के छात्र और शिक्षक भी बहुत कम ही जानते थे। 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने की परंपरा भी न्यास की पहल का ही परिणाम है।
नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के निर्माण और इसे लागू कराने में भी न्यास की पहल उल्लेखनीय है। सूची लंबी हो सकती है, परंतु इन तमाम संदर्भो को जोड़कर देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि इतिहास के विकृत पृष्ठों को हटाने के साथ सांस्कृतिक विरासतों और व्यक्तित्वों को महत्व देने में न्यास और शिक्षा आंदोलन की पहल का महत्वपूर्ण योगदान है।
[डीन, मीडिया अध्ययन विभाग, दक्षिण बिहार केंद्रीय विवि, गया]