महागठबंधन की हार का मंथन कर रहा RJD, आखिर किसे कठघरे में किसे खड़ा करेंगे तेजस्वी?
मंगलवार को आरजेडी बिहार में महागठबंधन की हार का मंथन कर रहा है। लेकिन सवाल यह है कि जब पार्टी के सभी बड़े फैसले तेजस्वी ने लिए तो आखिर किसे कठघरे में किसे खड़ा किया जाएगा?
By Amit AlokEdited By: Published: Mon, 27 May 2019 06:42 PM (IST)Updated: Tue, 28 May 2019 05:56 PM (IST)
पटना [अरविंद शर्मा]। लोकसभा चुनाव (Lok Sabha Election) में राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के सफाए की वजहों और गुनहगारों की तलाश के लिए मंगलवार से महामंथन का दौर शुरू है। दो दिनों तक चलने वाली समीक्षा बैठक में जानने की कोशिश होगी कि इतनी बुरी हार के लिए कौन जिम्मेदार है। इस संदर्भ में सुदर्शन फाकिर की दो पंक्तियां पार्टी के मौजूदा हालात और हस्र को सटीक बयां करती हैं- 'मेरा कातिल ही मेरा मुंसिफ है...क्या मेरे हक में फैसला देगा।'
राबड़ी-तेजस्वी की अध्यक्षता में लगेगी पार्टी की अदालत
पार्टी की अदालत राबड़ी देवी (Rabri Devi) और तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) की अध्यक्षता में लगी है। पहले दिन हारे हुए प्रत्याशियों और पदाधिकारियों तथा दूसरे दिन विधायकों से पूछा जाएगा कि हम क्यों हारे?
कैप्टन की होती है हार-जीत की मुख्य जिम्मेवारी
जवाब जो आएंगे, वो आएंगे, लेकिन सबसे पहले तेजस्वी यादव को अपने आप से यह सवाल करना चाहिए। किसी भी लड़ाई में हार-जीत की मुख्य जिम्मेवारी कैप्टन की होती है। रणनीतियां बनाने, उनपर अमल करने और सैनिकों का उत्साह बढ़ाने का काम सेनापति करता है। ऐसे में आरजेडी खेमे में सबसे बड़ा और कड़ा सवाल यह है कि तेजस्वी ने कितनी कुशलता से अपने दायित्वों का निर्वहन किया?
आरजेडी में आरंभ से अंत तक रहे केवल तेजस्वी
लालू प्रसाद (Lalu Prasad Yadav) की अनुपस्थिति में आरजेडी में आरंभ से अंत तक सिर्फ तेजस्वी यादव हैं। पूरे चुनाव पार्टी की पूरी कमान उन्होंने खुद के पास रखी। जैसा चाहा, पार्टी को वैसा ही चलाया। महागठबंधन में सियासी दलों की एंट्री, आरजेडी की हिस्सेदारी, सीट बंटवारा, टिकट वितरण, प्रत्याशी चयन से लेकर स्टार प्रचारक तक की सारी भूमिकाओं के वे अकेले किरदार हैं।
वरिष्ठ नेताओं को निर्णय प्रक्रिया से रखा दूर
लालू के जेल जाने के बाद उनकी उम्र से भी ज्यादा अनुभवी रघुवंश प्रसाद सिंह, जगदानंद सिंह, रामचंद्र पूर्वे, अब्दुल बारी सिद्दीकी एवं शिवानंद तिवारी ने नए नेता को स्वीकार-अंगीकार किया। किंतु लालू के बिना हुए पहले चुनाव की पूरी प्रक्रिया से तेजस्वी ने अपने वरिष्ठ नेताओं को दूर रखा। न बात, न मशवरा, न निर्णयों की भनक लगने दी। स्टार प्रचारकों की सूची में नाम तो दर्ज कर दिया, किंतु हेलीकॉप्टर में जगह नहीं दी गई। मंगनीलाल मंडल और अली अशरफ फातमी की दावेदारी भी छीन ली। आपत्ति जताई तो पार्टी से निकाल दिया।
अब इन नेताओं से क्या सवाल करेंगे तेजस्वी?
सवाल यह है कि अब इन नेताओं से तेजस्वी क्या सवाल करेंगे? रामचंद्र पूर्वे या उनके सरीखे कोई और नेता क्या बताएगा कि आरजेडी क्यों हार गया? इसलिए सबसे पहले तेजस्वी को अपना गुनाह खुद स्वीकार करना चाहिए। साथ ही मीसा भारती, तेज प्रताप यादव और राबड़ी देवी को भी खुद की समीक्षा करनी चाहिए कि उन्होंने पार्टी को पराजय से बचाने के लिए क्या-क्या किया?
लहर क्या, हवा भी नहीं दिखी
समीक्षा बैठक में तर्क दिया जा सकता है कि मोदी लहर के चलते हारे, लेकिन इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि आरजेडी ने हवा जैसा भी अहसास नहीं कराया। शुरू से ही कागजों पर हवाई किले बनते रहे। संगठन में सुधार के लिए कुछ नहीं किया गया। कार्यकर्ताओं की निष्ठा की अनदेखी की जाती रही।
तेज प्रताप के नखरे बर्दाश्त, दूसरों पर कार्रवाई
लालू परिवार में कलह से पार्टी लगातार घायल होती रही। तेज प्रताप के सारे नखरे बर्दास्त किए जाते रहे, जबकि दूसरे नेताओं पर कार्रवाई में कोताही नहीं हुई। पार्टी को घर की खेती समझ लेने का खामियाजा तो भुगतना ही था।
फैसले भी तानाशाहीपूर्ण व अलोकतांत्रिक
लालू यादव के फैसले लेने का अंदाज अनोखा होता था। अपने निर्णय को थोपने का तरीका भी लोकतांत्रिक। लालू वरिष्ठों को बुलाकर ध्यान से सुनते थे। यह अलग बात होती थी कि मुहर अपनी पसंद पर लगवाते थे। तेजस्वी का तरीका तानाशाही वाला है। वरिष्ठ नेताओं से मिलना नहीं। कुछ पूछना भी नहीं। बस फैसले करके बता देना।
कसौटी पर खरे नहीं उतरे नए सलाहकार
उनके नए सलाहकार भी पार्टी की कसौटी पर खरे नहीं उतरे। चुनाव मैदान में तेजस्वी को अकेले घुमाया। रटा-रटाया एक जैसा भाषण दिलाया। संविधान खतरे में है। आरक्षण का दायरा बढ़ाओ और मेरे पिता शेर हैं।
लालू के पुत्र के नाम पर भीड़ तो आ रही थी, किंतु निराश होकर लौट रही थी। तेजस्वी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए जितने कड़वे शब्दों का इस्तेमाल करते गए, अति पिछड़े उतने ही राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के पक्ष में एकजुट होते गए।
...उम्मीद अभी बाकी है
तेजस्वी को समझ लेना चाहिए कि वे लालू नहीं हैं। इसलिए उन्हें संवाद की शैली बदलनी होगी। बोलने का अंदाज बदलना होगा। समर्थकों को भरोसा देना होगा कि आरजेडी लालू पैटर्न से बाहर नहीं निकला है। संगठन को खड़ा-बड़ा करने के लिए तेजस्वी की सलाहकार मंडली की बजाय लालू फॉर्मूले को लागू करना होगा। आरजेडी में क्षमतावान नेताओं की कमी नहीं है। उन्हें मौका मिलना चाहिए। जो वरिष्ठ और अनुभवी नेता पार्टी में घुट रहे हैं, उन्हें तरजीह मिलनी चाहिए। सामाजिक न्याय के भावार्थ को व्यापक करना होगा। जात-पांत से निकलकर मुद्दों पर बात करनी होगी। उभरते चेहरों को पहचानकर मौका देना होगा।
लालू समर्थकों की उम्मीद अभी भी खत्म नहीं हुई है। तेजस्वी अगर भूल सुधारने की आदत सीख लें तो पार्टी को पटरी पर आते देर नहीं लगेगी। लोकसभा की 40 सीटों पर भले चूक गए हैं, किंतु विधानसभा में राजद अभी भी सबसे बड़ा दल है।
राबड़ी-तेजस्वी की अध्यक्षता में लगेगी पार्टी की अदालत
पार्टी की अदालत राबड़ी देवी (Rabri Devi) और तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) की अध्यक्षता में लगी है। पहले दिन हारे हुए प्रत्याशियों और पदाधिकारियों तथा दूसरे दिन विधायकों से पूछा जाएगा कि हम क्यों हारे?
कैप्टन की होती है हार-जीत की मुख्य जिम्मेवारी
जवाब जो आएंगे, वो आएंगे, लेकिन सबसे पहले तेजस्वी यादव को अपने आप से यह सवाल करना चाहिए। किसी भी लड़ाई में हार-जीत की मुख्य जिम्मेवारी कैप्टन की होती है। रणनीतियां बनाने, उनपर अमल करने और सैनिकों का उत्साह बढ़ाने का काम सेनापति करता है। ऐसे में आरजेडी खेमे में सबसे बड़ा और कड़ा सवाल यह है कि तेजस्वी ने कितनी कुशलता से अपने दायित्वों का निर्वहन किया?
आरजेडी में आरंभ से अंत तक रहे केवल तेजस्वी
लालू प्रसाद (Lalu Prasad Yadav) की अनुपस्थिति में आरजेडी में आरंभ से अंत तक सिर्फ तेजस्वी यादव हैं। पूरे चुनाव पार्टी की पूरी कमान उन्होंने खुद के पास रखी। जैसा चाहा, पार्टी को वैसा ही चलाया। महागठबंधन में सियासी दलों की एंट्री, आरजेडी की हिस्सेदारी, सीट बंटवारा, टिकट वितरण, प्रत्याशी चयन से लेकर स्टार प्रचारक तक की सारी भूमिकाओं के वे अकेले किरदार हैं।
वरिष्ठ नेताओं को निर्णय प्रक्रिया से रखा दूर
लालू के जेल जाने के बाद उनकी उम्र से भी ज्यादा अनुभवी रघुवंश प्रसाद सिंह, जगदानंद सिंह, रामचंद्र पूर्वे, अब्दुल बारी सिद्दीकी एवं शिवानंद तिवारी ने नए नेता को स्वीकार-अंगीकार किया। किंतु लालू के बिना हुए पहले चुनाव की पूरी प्रक्रिया से तेजस्वी ने अपने वरिष्ठ नेताओं को दूर रखा। न बात, न मशवरा, न निर्णयों की भनक लगने दी। स्टार प्रचारकों की सूची में नाम तो दर्ज कर दिया, किंतु हेलीकॉप्टर में जगह नहीं दी गई। मंगनीलाल मंडल और अली अशरफ फातमी की दावेदारी भी छीन ली। आपत्ति जताई तो पार्टी से निकाल दिया।
अब इन नेताओं से क्या सवाल करेंगे तेजस्वी?
सवाल यह है कि अब इन नेताओं से तेजस्वी क्या सवाल करेंगे? रामचंद्र पूर्वे या उनके सरीखे कोई और नेता क्या बताएगा कि आरजेडी क्यों हार गया? इसलिए सबसे पहले तेजस्वी को अपना गुनाह खुद स्वीकार करना चाहिए। साथ ही मीसा भारती, तेज प्रताप यादव और राबड़ी देवी को भी खुद की समीक्षा करनी चाहिए कि उन्होंने पार्टी को पराजय से बचाने के लिए क्या-क्या किया?
लहर क्या, हवा भी नहीं दिखी
समीक्षा बैठक में तर्क दिया जा सकता है कि मोदी लहर के चलते हारे, लेकिन इस सच्चाई से इनकार नहीं किया जा सकता कि आरजेडी ने हवा जैसा भी अहसास नहीं कराया। शुरू से ही कागजों पर हवाई किले बनते रहे। संगठन में सुधार के लिए कुछ नहीं किया गया। कार्यकर्ताओं की निष्ठा की अनदेखी की जाती रही।
तेज प्रताप के नखरे बर्दाश्त, दूसरों पर कार्रवाई
लालू परिवार में कलह से पार्टी लगातार घायल होती रही। तेज प्रताप के सारे नखरे बर्दास्त किए जाते रहे, जबकि दूसरे नेताओं पर कार्रवाई में कोताही नहीं हुई। पार्टी को घर की खेती समझ लेने का खामियाजा तो भुगतना ही था।
फैसले भी तानाशाहीपूर्ण व अलोकतांत्रिक
लालू यादव के फैसले लेने का अंदाज अनोखा होता था। अपने निर्णय को थोपने का तरीका भी लोकतांत्रिक। लालू वरिष्ठों को बुलाकर ध्यान से सुनते थे। यह अलग बात होती थी कि मुहर अपनी पसंद पर लगवाते थे। तेजस्वी का तरीका तानाशाही वाला है। वरिष्ठ नेताओं से मिलना नहीं। कुछ पूछना भी नहीं। बस फैसले करके बता देना।
कसौटी पर खरे नहीं उतरे नए सलाहकार
उनके नए सलाहकार भी पार्टी की कसौटी पर खरे नहीं उतरे। चुनाव मैदान में तेजस्वी को अकेले घुमाया। रटा-रटाया एक जैसा भाषण दिलाया। संविधान खतरे में है। आरक्षण का दायरा बढ़ाओ और मेरे पिता शेर हैं।
लालू के पुत्र के नाम पर भीड़ तो आ रही थी, किंतु निराश होकर लौट रही थी। तेजस्वी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के लिए जितने कड़वे शब्दों का इस्तेमाल करते गए, अति पिछड़े उतने ही राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के पक्ष में एकजुट होते गए।
...उम्मीद अभी बाकी है
तेजस्वी को समझ लेना चाहिए कि वे लालू नहीं हैं। इसलिए उन्हें संवाद की शैली बदलनी होगी। बोलने का अंदाज बदलना होगा। समर्थकों को भरोसा देना होगा कि आरजेडी लालू पैटर्न से बाहर नहीं निकला है। संगठन को खड़ा-बड़ा करने के लिए तेजस्वी की सलाहकार मंडली की बजाय लालू फॉर्मूले को लागू करना होगा। आरजेडी में क्षमतावान नेताओं की कमी नहीं है। उन्हें मौका मिलना चाहिए। जो वरिष्ठ और अनुभवी नेता पार्टी में घुट रहे हैं, उन्हें तरजीह मिलनी चाहिए। सामाजिक न्याय के भावार्थ को व्यापक करना होगा। जात-पांत से निकलकर मुद्दों पर बात करनी होगी। उभरते चेहरों को पहचानकर मौका देना होगा।
लालू समर्थकों की उम्मीद अभी भी खत्म नहीं हुई है। तेजस्वी अगर भूल सुधारने की आदत सीख लें तो पार्टी को पटरी पर आते देर नहीं लगेगी। लोकसभा की 40 सीटों पर भले चूक गए हैं, किंतु विधानसभा में राजद अभी भी सबसे बड़ा दल है।
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