मर्यादा में रहना भी सिखाता है धर्म, दाढ़ी और लिबास देखकर न करें किसी की पहचान Patna News
मार्क्सवाद का अर्धसत्य पुस्तक के लेखक औऱ दैनिक जागरण के एसोसिएट एडिटर स्तंभकार और लेखक अनंत विजय पटनावासियों से रूबरू हुए। पढ़ें उनसे बातचीत के प्रमुख अंश।
पटना, जेएनएन। दैनिक जागरण के एसोसिएट एडिटर, स्तंभकार और लेखक अनंत विजय शनिवार को शहरवासियों से रूबरू थे। प्रभा खेतान फाउंडेशन, नवरस स्कूल ऑफ परफॉर्मिंग आट्र्स द्वारा श्री सीमेंट के सहयोग से आयोजित 'कलम' कार्यक्रम में उन्होंने खुद की लिखी किताब 'मार्क्सवाद का अर्धसत्य' पर प्रकाश डाला। आयोजन का मीडिया पार्टनर दैनिक जागरण था।
अनंत ने कहा कि धर्म को अफीम मानने वाले लोग यह भूल जाते हैं कि धर्म लोगों को एक मर्यादा में रहना भी सिखाता है। धर्म को दाढ़ी और लिबास से नहीं बल्कि धर्म को धर्म से समझने की जरूरत है। धर्म को समझने के लिए उसकी विचारधारा को समझने की जरूरत है। मार्क्सवाद की जो अवधारणा है वो वो पूंजीवाद का निषेध करती है लेकिन परोक्ष रूप से पूरी तौर पर भौतिकतावाद का वकालत करती है।
अनंत विजय से बात करते हुए रंगकर्मी अनीश अंकुर ने पूछा मार्क्सवाद अर्धसत्य पर लिखने का विचार कैसे आया? कब लिखी गई?
पुस्तक तो की-बोर्ड पर लिखी। इसके लिखने का कालखंड 2010-2017 तक का है। देखा जाए तो यह सफर 10 सालों का है। यह पुस्तक मार्क्सवाद पर नहीं बल्कि मार्क्सवादी विचारधाराओं पर केंद्रित है। मार्क्सवादी विचारधारा से जुड़े लोग कहते बहुत हैं लेकिन कुछ करते नहीं। एक समय था जब मैं भी इन विचारों से जुड़ा। भागलपुर, जमालपुर आदि जगहों पर रहने का मौका मिला। उन दिनों दिवंगत आलोचक खगेंद्र ठाकुर से भी रूबरू होने का अवसर मिला। उनसे बहुत सारी चीजों को जाना। इस विचारधारा से जुड़े लोगों से बहुत सारी जानकारी मिली। इनकी कार्यप्रणाली और इनके विचारों को समझने का मौका मिला। लंबा अरसा बीतने के बाद भी माक्र्सवादी विचारों से जुड़े लोगों ने भारतीय दर्शन पर किताब नहीं लिखी। इन जगहों पर खास वर्गों का दबदबा है। इन सारी चीजों को देखने और समझने के बाद विषय पर लिखने का प्रयास किया।
साहित्य की संस्कृति राजनीति से कितनी प्रभावित है?
सरकार अपने हिसाब से काम करती रही है। सांस्कृतिक संगठनों को राजनीति काफी प्रभावित करती है। वामपंथ में आस्था रखने वाले साहित्यकारों व लेखकों को साहित्य में बहुत ऊपर का दर्जा दिया गया है, जबकि वामपंथ की परिधि से बाहर लेखन करने वालों को लगातार हाशिए पर रखा गया है। ये सारी सोची-समझी राजनीति है। साहित्य में इस प्रकार की राजनीति करने वालों को पहचानने की जरूरत है। पिछले दिनों देश के नामचीन साहित्यकारों ने अपने पुरस्कार लौटा दिए। क्या इनके पीछे कोई मेधा या प्रतिभा है या कुछ और, इन चीजों को समझने की जरूरत है। साहित्यिक पुरस्कारों की साख बीते कई सालों से छीजती चली गई। इसके लिए कौन जिम्मेदार है, उस पर लेखक समुदाय को विचार करने की जरूरत है। इस विरोध के पीछे भी उनकी मंशा समझने की जरूरत है। साहित्यिक मसलों की आड़ में जमकर राजनीति हुई है।
विचारधाराओं से इतर लेखन कितना सही?
एक लेखक के पास अपने विचार होने की जरूरत है। किसी की विचारधारा को समझने के बाद ही काम करें। निर्मल वर्मा, रेणु ने हिंदी साहित्य की पुरानी विचारधाराओं को तोड़कर नई लीक बनाई। एक दौर ऐसा भी आया कि हिंदी के पाठक कम होते गए। हिंदी में अच्छे शोध करने के बाद ही पुस्तक लिखने की जरूरत है।
फिल्म के प्रति लगाव कैसे हुआ?
फिल्म के प्रति आकर्षण स्कूल के दिनों से रहा। स्कूल के दिनों से क्लास छोड़कर सिनेमा देखने जाया करते थे। उन दिनों 25 पैसे में सिनेमा के टिकट मिल जाते थे। वहीं टीएनबी कॉलेज में आने के बाद रात में जाकर फिल्में देखते थे। तीन शो का टिकट लेकर चलते थे। पहली बार जब फिल्म समीक्षक विनोद अनुपम को फिल्म क्षेत्र में काम करने के लिए पुरस्कार मिला तो इस दिशा में जोर-शोर से काम करने लगा। लेखक ने कहा कि सिनेमा ज्यादा लोकतांत्रिक हो गया है। कार्यक्रम के दौरान श्रोताओं ने अनंत विजय से कई सवाल किए। समारोह का संचालन अन्विता प्रधान ने किया। मौके पर कवि आलोक धन्वा, आइएएस त्रिपुरारी शरण, डॉ. अजीत प्रधान, लेखक अरुण सिंह, आराधना प्रधान, विनोद अनुपम, जयप्रकाश, डॉ. प्रियेंदु सुमन, मनोज कुमार बच्चन आदि मौजूद थे।