बिहार संवादी: इतिहास के कोने में होता है कूड़ेदान, पाठक उसमें कूड़ा रचनाएं डालता है
'बिहार संवादी' के चौथे सत्र में 'नए-पुराने के फेर में लेखन' विषय पर चर्चा हुई। इसमें वक्ताओं ने कहा कि इतिहास के कोने में कूड़ेदान होता है, जिसमें पाठक रचनाएं डालता है।
पटना [जेएनएन]। नए-पुराने का द्वंद्व कभी नहीं रहा। एक पीढ़ी दूसरी पीढ़ी से ग्रहण करती है। यह यथार्थ को फिर से सृजित करती है। हर समय में लेखन में विभिन्न पीढिय़ां काम करती रही हैं और उसने पुरानी पीढ़ी से उसे समृद्ध करने का काम किया है। ये बातें लेखक अवधेश प्रीत ने जागरण संवादी के पहले दिन के चौथे सत्र 'नए-पुराने के फेर में लेखन' का विषय प्रवेश कराते हुए कही।
उन्होंने शशिकांत मिश्र से सवाल किया कि आपको क्या लगता है कि नए-पुराने का द्वंद्व आज कुछ ज्यादा उभरा है। इस पर शशिकांत ने कहा कि नए-पुराने के फेर में साहित्य नहीं है, फेर में फंसे हुए हैं साहित्य के कुछ मठाधीश। वह सर्टिफिकेट बांट रहे हैं। हम मानते हैं कि गंभीर साहित्य हम नहीं लिख रहे हैं। मैं आपको 500 साल पहले कबीर तक ले जाना चाहता हूं। साहित्य के लिए दो चीजें जरूरी है- संवेदना और शिल्प। कबीर ने उस समय स्थापित मान्यताओं को तोड़ा था- संवेदना और शिल्प दोनों स्तर पर मगर उस समय नए-पुराने की बात नहीं उठी थी।
अवधेश प्रीत ने फिर कहा कि नया-पुराना लेखन प्रवृत्ति पर भी निर्भर करता है। उन्होंने क्षितिज रॉय से सवाल किया कि ये जो नया लेखन है, उसमें ऐसी कौन सी प्रवृत्ति है, जिसे हम रेखांकित करना चाहेंगे। क्षितिज ने कहा कि मैं ऐसा नहीं मानता हूं कि नया और पुराना जैसे कोई लेखन होता है। स्कूल के दिनों में मैं अज्ञेय और गुनाहों का देवता साथ-साथ पढ़ रहा था। ये लेखक पर निर्भर करता है कि वह कौन सी बातें अपने लेखन में समाहित करता है। लेखक को नए-पुराने के फेर में फंसना ही नहीं चाहिए।
उन्होंने कहा, मेरा उपन्यास लिखने का कारण बहुत निजी था। ऐसा नहीं था कि मैं कुछ कालजयी लिख रहा हूं। मेरा विजन यह था कि एक अनजान शहर में लड़के-लड़कियां अपने कस्बे को जिंदा रखने की जिद करते हैं, तो वे सफल होते हैं या नहीं। मुझे लगता है कि महानगर आपके अंदर के कस्बे को मार देता है।
अवधेश प्रीत ने बेस्टसेलर किताबों में हिंदी में रोमन के प्रयोग पर सवाल भी उठाए। उन्होंने प्रवीण कुमार से सवाल किया कि भाषा का प्रयोग कथ्य के हिसाब से होना चाहिए। कथ्य किसे एड्रेस होना चाहिए। प्रवीण ने कहा कि नामवर सिंह ने कहा था, वह क्षेत्र जिसमें किसी शब्द ने कदम न रखा हो, वह नया है।
कहा, साहित्य न भाव है और न भाषा है। वह संतुलन है। ये संतुलन जीवन दृष्टि से निर्धारित होती है। मेरी किताब में सूक्ति भी है, भोजपुरी भी है, मगर जब वह आएगा तो चिप्पी की तरह चमकेगा। भाषा वह जो सहज रूप से आ जाए और निकल जाए।
लेखक की उस दृष्टि से यह तय होगा कि भाषा कौन सी है। अगर वह खाये-पीये अघाए वर्ग से बोल रहा तो निश्चित रूप से उसकी भाषा ङ्क्षहग्लिश होगी, मगर अगर वह आम आदमी होगा तो उसकी भाषा रेणु की होगी, प्रेमचंद की होगी।
अवधेश प्रीत ने ममता मेहरोत्रा से सवाल किया कि क्या स्त्री विमर्श में कुछ ऐसा लिखा जा रहा है, जिसे नए लेखन से जोड़ सकते हैं? ममता मेहरोत्रा ने कहा कि महाभारत और रामायण भी स्त्री विमर्श ही है। स्त्री विमर्श को हम नए लेखन से नहीं जोड़ सकते। बस फर्क इतना है कि हमारे लिखने की शैली में कुछ बदलाव आया है।
अंत में, अवधेश प्रीत ने कहा कि नए-पुराने के फेर में लेखन पर विमर्श होता रहेगा। फिलहाल इतना कि इतिहास के कोने में एक कूड़ेदान भी होता है, जिसमें पाठक कूड़ा रचनाओं को डाल देते हैं और सिर्फ छनी हुई रचनाएं ही रह जाती हैं। कार्यक्रम के समापन से पहले शशिकांत मिश्र के नए उपन्यास 'वेलेंटाइन बाबा' की मुंहदिखाई हुई।