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पढ़ें- अंदाज-ए-लालू : हमको अइसा-वइसा न समझो...

राजद प्रमुख लालू यादव का ठेठ स्थानीय बोली-भाषा में नायकत्व, अपने स्टाइल में मुद्दों को गढऩा और फिर उसे निहायत भदेस तरीके से लोगों तक पहुंचाना की सबसे बड़ी खासियत है। वे खूब जानते हैं कि किस इलाके की माटी को किस तरह मथना है ।

By Kajal KumariEdited By: Published: Tue, 24 Nov 2015 10:25 AM (IST)Updated: Tue, 24 Nov 2015 11:12 AM (IST)
पढ़ें- अंदाज-ए-लालू :  हमको अइसा-वइसा न समझो...

पटना [सुविज्ञ दुबे]। बिहार विधानसभा चुनावों में मुद्दों से मुकाम तक का सफर जिस रणनीतिक कौशल के साथ लालू प्रसाद ने तय किया वह अपने आप में अनूठा है।

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इन चुनाव नतीजों के बाद लालू ऐसी शख्सियत के रूप में उभरे हैं, जिसकी व्यवहारिक और सैद्धांतिक राजनीति में रत्ती भर भी अंतर नहीं है। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि एक बेहद संगठित और मजबूत विरोधी के खिलाफ उनकी खांटी और भदेस राजनीतिक स्टाइल को लोगों का जबरदस्त समर्थन हासिल हुआ।

दरअसल ठेठ स्थानीय बोली-भाषा में नायकत्व, अपने स्टाइल में मुद्दों को गढऩा और फिर उसे निहायत भदेस तरीके से लोगों तक पहुंचाना लालू की सबसे बड़ी खासियत है। वे खूब जानते हैं कि किस इलाके की माटी को किस तरह मथना है और उसे कैसा स्वरूप देना है। अपनी इन्हीं खूबियों से लालू ने एक बार फिर अपना दमखम साबित किया है।

लालू की पूरी राजनीतिक यात्रा जो नब्बे से पहले से ही शुरू हो गई थी, दरअसल विरोधी शक्तियों को परास्त करने की उत्कट इच्छा से संचालित थी। नब्बे में मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने अपनी शुरुआत पिछड़ों, खास तौर पर मध्यक्रम की जातियों, की एका और इनके मुद्दों को गढऩे से की। उनका यह संघर्ष लगातार जारी रहा।

तमाम स्तर पर विरोध झेलने के बाद भी लालू अपने सिद्धांतों से हटते नहीं दिखाई दिए। उन्होंने विरोधियों से कभी कोई समझौता नहीं किया। हाल के दशकों में लालू ने संभवत: इकलौते राजनेता के रूप में अपने को साबित किया, जो अपने सिद्धांतों से एक प्रतिशत भी विचलन नहीं हुआ।

जेल गए, सजा भुगती, लेकिन विचारधारा विशेष के विरोध की पताका थामे रहे। जो भी साथ आया उसका समर्थन लिया। लालू का बेहद भदेस स्टाइल में समर्थकों के बीच मौजूद रहते हुए हट-हट कहना या फिर मुंह में हवा भर डांट लगाना और फिर खुद ही मुस्करा देना अनायास नहीं।

वे जानते हैं कि उनका समर्थक खूब समझ रहा है कि वे कहना क्या चाहते हैं! उनका यह तरीका तथाकथित संभ्रांत लोगों के निशाने पर रहता है। उन्हें लालू को विकास विरोधी, जंगलराज लाने वाला और गंवार कहने को मौका मिलता है और संभवत: लालू चाहते भी यही हैं। दरअसल उनकी प्राथमिकताएं पूरी तरह अलग हैं। वे पिछड़ों को अपने पीछे गोलबंद करने के रास्ते में किसी भी चीज को आड़े नहीं आने देना चाहते।

जानकारों का मानना है कि नव उदारवाद और इसके जरिए विकास की अवधारणा को लालू ने कभी प्रश्रय नहीं दिया। सामाजिक ताने-बाने, खास तौर पर अपनी समर्थक जातियां, की मजबूती उनकी प्राथमिकता रही।

वे जानते हैं कि ग्लोबल इकोनॉमी के इस दौर में उनका समर्थक ही सबसे ज्यादा दरकिनार किया जाने वाला तबका होने वाला है। उनके खुद के भी इसका शिकार होने की पूरी आशंका है। हाल के दिनों में ग्लोबल इकोनॉमी का दबाव हमारे तंत्र पर बढ़ा है। इसका असर भी साफ तौर पर दिखाई देने लगा है और जैसे-जैसे यह दबाव बढ़ रहा है, राजनेताओं की एक नई कतार सामने आ रही है।

राजनीति का एक नया स्टाइल आकार गढ़ता दिख रहा है। लालू जैसे राजनेताओं को दरकिनार कर आगे बढऩे की रणनीति भी जोर पकड़ रही है। यही वजह रही कि इस बार विरोधियों ने लालू को चारा चोर, विकास विरोधी और जंगलराज की छवि में कैद करने की भरसक कोशिशें की। दरअसल युवा वर्ग के समक्ष लालू की विकास विरोधी छवि उछाल उन्हें किनारे करने की रणनीति पर विरोधी काम कर रहे थे।

वे जानते थे कि लालू संसदीय राजनीति में प्रत्यक्ष हिस्सा नहीं ले सकते। यानी अदालत से सजायाफ्ता हो जाने की वजह से चुनाव नहीं लड़ सकते। दूसरी ओर लालू ने भी चुनाव लडऩे के अयोग्य करार दिए जाने के बावजूद विरोधी की रणनीति को भोथरा करने में अपनी पूरी जान लगा दी।

वे किसी भी तरह से विरोधियों को पांव जमाने नहीं देना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने अपनी इस मुहिम में तमाम जोखिम उठाने में भी संकोच नहीं किया। लालू इस बात को मानते हैं कि उनकी मुख्य विरोधी भाजपा के पास मंदिर और भगवाकरण के अलावा कोई मुद्दा नहीं है। इसी मुद्दे पर उसे घेरना और हमला करना सबसे आसान है और शायद यही वजह रही कि उन्होंने बिरादरी में तीखे विरोध तक का खतरा मोल लेते हुए बीफ के मुद्दे को लेकर भाजपा पर हमला बोला।

दूसरी तरफ से भी वार हुए, लेकिन मुद्दे गढऩे और फिर उसे भदेस भाषा में लोगों तक पहुंचाने की कला में माहिर लालू भारी पड़े। लालू ने विरोधियों के खिलाफ ऐसे-ऐसे रेटोरिक का इस्तेमाल किया, जिनका विरोधी जवाब नहीं ढूंढ सके।

नीतीश कुमार ने भी काफी पहले भाजपा की राजनीतिक महत्वाकांक्षा पढ़ ली थी। उनमेंं बिहार के सामाजिक ताने-बाने की समझ शायद अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों से कहीं ज्यादा है। यही वजह रही कि तमाम पूूर्वाग्रहों, विरोधों को दरकिनार कर उन्होंने लालू के साथ चुनावों में जाने का निर्णय लिया और फिर जो कुछ हुआ उसका नतीजा सामने है।

यानी लालू भाजपा विरोधी मतों को गोलबंद करने में पूरी तरह कामयाब रहे। उनकी इस कामयाबी को गांधी मैदान में आयोजित नीतीश कुमार के शपथ ग्रहण समारोह में हुई जुटान में स्वीकृति भी मिलती दिखाई दी।

इस मौके पर गैर भाजपा शासित नौ राज्यों के मुख्यमंत्री जुटे। विभिन्न दलों के नेताओं ने लालू को खूब तरजीह दी। कल तक लालू के धुर विरोधी रहे केजरीवाल ने तो अपनी आलोचना का जोखिम उठाकर भी लालू को गले लगाया। सार्वजनिक तौर पर लालू से दूरी बनाए रखने वाले राहुल न सिर्फ उनके पास गए, बल्कि उन्होंने लालू के गले लगकर अपनी भावना व्यक्त की। ये आने वाले दिनों की राजनीतिक के मुखर संकेत हैं।


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