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कभी राम मंदिर मामले ने ही दी थी लालू प्रसाद यादव की सियासत को ऊंचाई, जानिए

राम मंदिर निर्माण के लिए लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा को 23 अक्टूबर 1990 को रोककर लालू ने देश की राजनीति को दो धड़ों में बांट दिया था। इसके बाद लालू का सितारा चमकने लगा था।

By Amit AlokEdited By: Published: Sun, 25 Nov 2018 10:11 PM (IST)Updated: Mon, 26 Nov 2018 10:31 AM (IST)
कभी राम मंदिर मामले ने ही दी थी लालू प्रसाद यादव की सियासत को ऊंचाई, जानिए
कभी राम मंदिर मामले ने ही दी थी लालू प्रसाद यादव की सियासत को ऊंचाई, जानिए

पटना [अरविंद शर्मा]। अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के मुद्दे पर सियासत फिर गर्म है। 28 वर्ष पहले इसकी ताप बिहार तक भी पहुंची थी, जिसने न केवल बिहार की राजनीति को गहरे रूप से प्रभावित किया, बल्कि पूरे देश की राजनीति को भी दो धाराओं में विभाजित कर दिया था। इसी मुद्दे ने भाजपा के उत्थान, कांग्रेस के पतन और लालू प्रसाद के राष्ट्रीय कद की कहानी के प्लॉट तैयार कर दिए थे।

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राम मंदिर मुद्दे ने लालू के सियासत को भी दी ऊंचाई

राम मंदिर की राजनीति से बिहार आज भी बाहर नहीं निकल पाया है। इस मुद्दे ने देशभर में जितना भाजपा का भला किया, उतना ही बिहार में लालू की सियासत को भी ऊंचाई दी। गुजरात के सोमनाथ मंदिर से अयोध्या के लिए निकले लालकृष्ण आडवाणी के रथ को 23 अक्टूबर 1990 को समस्तीपुर में रोककर लालू ने देश की राजनीति को दो धड़ों में बांट दिया था। इसके बाद बिहार में कांग्रेस के प्रभुत्व पर धीरे-धीरे ग्रहण लगने लगा और लालू का सितारा चमकने लगा।

पहले माना जाता था संयोग का मुख्‍यमंत्री

भाजपा के समर्थन से पहली बार 10 मार्च 1990 में बिहार के मुख्यमंत्री बने लालू की राजनीति को राम मंदिर आंदोलन से खाद-पानी मिला। इसके पहले उन्हें संयोग का मुख्‍यमंत्री माना जाता था। 1989 में केंद्र में कांग्रेस सरकार के पतन के बाद 1990 में 324 सदस्यीय बिहार विधानसभा का चुनाव हुआ था, जिसमें लालू की पार्टी जनता दल के 122 विधायक जीत कर आए थे। कांग्रेस का ग्राफ भी काफी नीचे गिरा था। फिर भी उसके खाते में 71 सीटें आई थीं।

39 विधायकों वाली भाजपा एवं अन्य दलों के समर्थन से गैरकांग्रेसी सरकार की पहल हुई तो तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने अपने चहेते रामसुंदर दास को मुख्यमंत्री पद के लिए आगे कर दिया। शरद यादव और देवीलाल की पसंद लालू थे। चंद्रशेखर के खासमखास रघुनाथ झा ने तीसरे प्रत्याशी के रूप में वोट काटकर लालू की जीत का मार्ग प्रशस्त कर दिया था।

आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद गिर गई सरकार

भाजपा के सहारे लालू सत्ता में आए और छा गए। केंद्र की तर्ज पर बिहार में भी गैर कांग्रेसी सरकार चलने लगी। किंतु आडवाणी की गिरफ्तारी के बाद भाजपा ने केंद्र के साथ बिहार की लालू सरकार से भी समर्थन वापस ले लिया था।

भाजपा को रोकने में कांग्रेस का पतन

भाजपा से बेसहारा होने के बाद लालू को कांग्र्रेस ने थाम लिया और सरकार सहज तरीके से चलती रही। इसका साइड इफेक्ट सीधे कांग्रेस पर पड़ा और उसका वोट बैंक लालू के खाते में ट्रांसफर होने लगा। कांग्रेस सरकार के दौरान 1989 में हुए भागलपुर दंगे का दर्द अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ था। इसी दौरान आडवाणी के रथ का पहिया थमने के बाद मुस्लिमों ने लालू को रहनुमा मान लिया। इसी समीकरण के बूते लालू ने बिहार में 15 साल राज किया।


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