गीतों के साथ रहने वाली पद्मश्री विंध्यवासिनी ने आकाशवाणी को बनाया था घर
गरजे-बरसे रे बदरवा हरि मधुबनवा छाया रे.. सात ही घोड़वा सुरूज देव. जैसे गीतों ने कर दिया अमर
प्रभात रंजन, पटना। 'गरजे-बरसे रे बदरवा, हरि मधुबनवा छाया रे..', 'सात ही घोड़वा सुरूज देव देव रथे अ सवार..', 'हरि मधुबनवा छाये रे..', 'हमसे राजा बिदेसी जन बोल, हम साड़ी न पहिनब बिदेसी हो पिया देसी मंगा द..' आदि कई लोक गीतों की रचियता एवं बिहार की स्वर कोकिला एवं पद्मश्री का सम्मान पाने वाली वरिष्ठ लोक गायिका विंध्यवासिनी देवी भले ही आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके रचित गीत आज भी उनके होने का एहसास दिलाते हैं। पांच जनवरी 1920 को मुजफ्फरपुर में जन्मीं विंध्यवासिनी का जन्म आजादी पूर्व हुआ था। उस दौरान गीत गाना महिलाओं के लिए आसान नहीं था। बावजूद देवी ने सामाजिक और पारिवारिक बंदिशों से लड़ते हुए पति के सहयोग से उन्होंने गायिकी में एक मुकाम हासिल किया। मुजफ्फरपुर में नानी के घर जन्म लेने वाली विंध्यवासिनी देवी का लालन-पालन और प्रारंभिक शिक्षा वहीं हुई। कम उम्र में शादी होने के बाद देवी वर्ष 1945 में पटना आ गई और फिर अपनी कर्मभूमि पटना में बना कर बिहार के लोक गीतों में अमर हो गई। 18 अप्रैल 2016 को देवी ने कला जगत से विदा लीं। उनकी पुण्य स्मृति पर रिपोर्ट।
रेडियो के जरिए श्रोताओं के दिलों पर करती थीं राज
बचपन से संगीत के सपने सजोए विंध्यवासिनी देवी की
शादी कम उम्र में सहदेवेश्वर चंद्र वर्मा से हुई थी। गीत के प्रति गहरी रूचि रखने वाली देवी सामाजिक और पारिवारिक बंदिशों से लड़ते हुए अपने सपने को साकार करने में लगी थीं। उन दिनों किसी महिला को गाना-बजाना ठीक नहीं माना जाता था। बावजूद इन बातों को दरकिनार करते हुए विंध्यवासिनी के पति ने आगे बढ़ने का मौका था। पति ही उनके पहले गुरु बने जो स्वयं एक पारसी थियेटर के जाने-माने निर्देशक हुआ करते थे। जब सीडी और कैसेट का प्रचलन नहीं था, तब विंध्यवासिनी ने आकाशवाणी द्वारा अपने गीतों की मिठास घोल लोगों के दिलों पर राज करती थीं। वह कभी भी किसी एक भाषा और बोली को पकड़कर नहीं बल्कि जितने अधिकार वे मैथिली गीतों को गाती थीं, उतने हीं अधिकार से भोजपुरी में भी गीतों की प्रस्तुति करती थीं। पटना में अपनी कर्मभूमि बनाने वाली एक साधारण महिला ने गायिकी के क्षेत्र असाधारण काम कर अमर हो गर्ई। देवी अपने पीछे बच्चों को छोड़ गई, जो इनकी विरासत को संभाले रखी हैं।
भारत-चीन युद्ध के दौरान सैनिकों का हौसला बढ़ाने के लिए गाए थे गीत
विंध्यवासिनी देवी के पुत्र सेवानिवृत प्रोफेसर डॉ. सुधीर कुमार सिन्हा बताते हैं कि अपने पति सहदेवेश्वर चंद्र वर्मा का इलाज कराने के लिए वह 1945 में पटना आई थीं। गीतों के साथ रचते बसते रहने के कारण देवी ने 1948 में जब पटना आकाशवाणी की शुरूआत हुई, तब से विंध्यवासिनी ने आकाशवाणी को ही अपना मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारा बना दिया। पटना आकाशवाणी के उद्घाटन पर देवी ने 'भइले पटना में रेडियो के शोर तनी सुनअ सखिया..' गीत को पेश कर सुर्खियों में आईं। लोक संगीत प्रोड्यूसर के पद पर कार्य करते हुए देवी ने वर्ष 1962 में भारत-चीन युद्ध के समय जवानों का हौसला बढ़ाने के लिए कई गीत लिखे। देवी अपने गीतों को कॉपियों में लिखते थे। संगीत नाटक अकादमी सम्मान, पद्मश्री सम्मान, बिहार रत्न सम्मान, देवी अहिल्या बाई सम्मान, भिखारी ठाकुर सम्मान आदि सम्मान पा चुकी देवी का कद काफी ऊंचा रहा। विंध्यवासिनी देवी की पुत्री पुष्प रानी मधु बताती हैं कि विंध्यवासिनी देवी ने लोक रामायण, बिहार के संस्कार गीत, ऋतुरंग आदि गीतों की रचना की थीं। लोक गीतों का साम्राज्य स्थापित करने के बाद विंध्यवासिनी देवी का कद काफी उंचा हुआ, लेकिन कभी भी मन में उनका अहम भाव नहीं आया। विंध्यवासिनी देवी से का संबंध रंगकर्मी के साथ साहित्यकारों से भी रहा। साहित्यकारों में फणीश्वर नाथ रेणु, रामधारी सिंह दिनकर, हिदी की प्रसिद्ध उपन्यासकार गौरा पंत 'शिवानी' के साथ-साथ वरिष्ठ रंगकर्मी व नाटककार अनिल कुमार मुखर्जी के अलावा गीतकार भूपेन हजारिका आदि लोगों से मधुर संबंध रहा। देवी ने भोजपुरी फिल्म 'छठी मइया की महिमा' 'कन्यादान ' आदि फिल्मों के भूपेन हजारिका के साथ किए। छठ गीतों का उनका पहला एलबम 1960 के आसपास निकला था, जो आज भी छठ के मौके पर सुना जाता है।