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बिहारः कार्यक्षेत्र अलग होते हुए भी ललन और आरसीपी का मकसद रहा एक, नीतीश कुमार के हित की रक्षा

दोस्ती कम दिनों के लिए होती है। दुश्मनी या कटुता का भाव अधिक दिनों तक बना रहता है लेकिन जदयू के दो खास चेहरों (ललन सिंह और आरसीपी सिंह) के बीच के लंबे रिश्ते में कभी कटुता का भाव नहीं आया।

By Akshay PandeyEdited By: Published: Sun, 01 Aug 2021 07:12 PM (IST)Updated: Sun, 01 Aug 2021 07:12 PM (IST)
बिहारः कार्यक्षेत्र अलग होते हुए भी ललन और आरसीपी का मकसद रहा एक, नीतीश कुमार के हित की रक्षा
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, जदयू अध्यक्ष ललन सिंह और केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह। जागरण आर्काइव।

राज्य ब्यूरो, पटना : राजनीति से जुड़े हर स्तर के लोग अक्सर कहते हैं कि इसमें दोस्ती और दुश्मनी-दोनों स्थायी नहीं होती है। व्यवहार में ठीक इसके उलट होता है। दोस्ती कम दिनों के लिए होती है। दुश्मनी या कटुता का भाव अधिक दिनों तक बना रहता है, लेकिन जदयू के दो खास चेहरों (ललन सिंह और आरसीपी सिंह) के बीच के लंबे रिश्ते में कभी कटुता का भाव नहीं आया। दोनों के बीच सीमाओं को लेकर भी कभी तकरार नहीं हुई। उस छोटे कालखंड में भी दोनों के संबंध सामान्य रहे, जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और ललन सिंह के बीच मनमुटाव था। इसे सामान्य बनाने में भी आरसीपी की भूमिका रही।

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किचेन कैबिनेट- किसी राजनेता की विश्वस्त मंडली के लिए इसका प्रयोग किया जाता है। नीतीश की लंबी राजनीतिक पारी में उनके इस कैबिनेट से कई चेहरे जुड़े और अलग हुए। लेकिन, जुडऩे के बाद से लगातार जुड़े रहने का रिकार्ड इन्हीं दोनों के पास है। छोटे अंतराल को छोड़ दें तो ये दोनों एक बार जुड़े तो अब तक जुड़े ही रहे हैं। बीच की अवधि में कई आए। कुछ दिन रहे और गए तो फिर लौटे नहीं। ललन सिंह और आरसीपी के बीच बेहतर रिश्ते की कई वजहें हैं। दोनों का लक्ष्य एक रहा है-नीतीश कुमार के हितों की रक्षा। लंबे समय तक दोनों का कार्यक्षेत्र भी अलग रहा।

आलोचना अनिवार्य पक्ष

आरसीपी ने मुस्तैदी से प्रशासनिक प्रबंधन संभाल लिया। दूसरी तरफ ललन सिंह के पास हमेशा राजनीतिक प्रबंधन की जिम्मेदारी रही। आलोचना अनिवार्य पक्ष है। इससे ये दोनों भी अछूते नहीं रहे। फिर भी दोनों के प्रबंधन कौशल पर सवाल नहीं उठा, क्योंकि इनके नतीजे आए। फरवरी 2005 के विधानसभा चुनाव के तत्काल बाद जब लोजपा के हाथ सत्ता की चाबी लग गई थी, ललन सिंह ने ताला बंद रहते हुए विधायकों को लोजपा के बंगले से निकाल लिया था। उसके बाद तो सब कुछ बदल गया। लोजपा का वह चाबी कांड आज भी मशहूर है। संयोग देखिए कि दो महीना पहले लोजपा के इकलौते विधायक राज कुमार सिंह जदयू में शामिल हो गए, इसमें भी ललन सिंह की भूमिका थी।

धीरे-धीरे संठन में उनकी सक्रियता बढ़ी

तकरार तब भी नहीं हुआ जब दोनों एक ही क्षेत्र में आ गए। आरसीपी सिंह 2010 में राज्यसभा में जाने के बाद सक्रिय राजनीति में आए। धीरे-धीरे संठन में उनकी सक्रियता बढ़ी। इधर ललन सिंह संगठन से अलग सरकार में आ गए। इस बार दोनों के केंद्रीय मंत्री बनने की संभावना थी। ललन सिंह के मंत्री न बनने के सवाल पर आरसीपी की प्रतिक्रिया थी कि हम दोनों अलग हैं क्या? अब दोनों की भूमिका बदल गई है। आरसीपी सरकार में हैं। ललन सिंह के जिम्मे संगठन है। जदयू संगठन में केंद्रीय स्तर पर सत्ता का हस्तांतरण जितनी आसानी से और दोस्ताना माहौल में हुआ, वह भी आरसीपी और ललन सिंह के बीच रिश्ते की परिपक्वता को ही जाहिर करता है। 


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