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सत्ता संग्राम: तस्लीमुद्दीन के गढ़ में आसान नहीं BJP की राह, फिर आरपार के हालात

आगामी लोकसभा चुनाव में तस्लीमुद्दीन के गढ़ अररिया में भाजपा की राह आसान नहीं है। वहां इस बार भी आरपार के हालात हैं।

By Amit AlokEdited By: Published: Wed, 04 Jul 2018 09:13 PM (IST)Updated: Wed, 04 Jul 2018 09:21 PM (IST)
सत्ता  संग्राम: तस्लीमुद्दीन के गढ़ में आसान नहीं BJP की राह, फिर आरपार के हालात
सत्ता संग्राम: तस्लीमुद्दीन के गढ़ में आसान नहीं BJP की राह, फिर आरपार के हालात

पटना [अरविंद शर्मा]। मानसून के उतरते ही अररिया में चुनाव का मौसम चढऩे लगेगा। फिलहाल सियासी फिजा में वह बेताबी नहीं है, जो चुनाव के पहले होनी चाहिए। अभी उपचुनाव के दौरान किए गए वादों के पूरा होने का इंतजार है। साथ ही केंद्र-राज्य सरकारों के कार्यों को अपने फायदे और नुकसान के हिसाब से आकलन करने का भी। किंतु इतना तय है कि चुनावी माहौल जब भी गर्म होगा तब दोनों गठबंधनों के लिए अररिया नाक और साख का सवाल बन जाएगा, क्योंकि यहां आर-पार का इतिहास रहा है।

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यहां प्रतिद्वंद्वी नहीं, विचारधाराएं टकराती हैं

अररिया पहले पूर्णिया जिले का हिस्सा था। 1990 में अलग जिला बना। यह वही क्षेत्र है जिसके ऊपर फणीश्वर नाथ रेणु ने 1954 में मैला आंचल उपन्यास लिखा था। मगर 64 साल बाद भी यह आंचल साफ नहीं हो सका है। यहां के चुनाव और परिणाम की चर्चा देशभर में इसलिए होती है कि मैदान में दो प्रतिद्वंद्वी नहीं, दो विचारधाराएं टकराती हैं। सियासी उन्माद ऐसा कि समस्याएं रसातल में चली जाती हैं और मुद्दे नारों की शोर में गुम हो जाते हैं।

असली मुद्दे हो जाते गौण

पिछले साल बाढ़ ने अररिया को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया था। सौ से ज्यादा जानें गई थी। दो लाख लोग बेघर हुए थे, किंतु चार महीने पहले उपचुनाव में जातीय और धार्मिक बवाल के आगे सारे सवाल गौण हो गए।

तस्लीमुद्दीन परिवार हावी

41 फीसद मुस्लिम आबादी वाले इस क्षेत्र में आखिर तक हार-जीत का दावा नहीं किया जा सकता। यहां कांगेस, भाजपा और राजद ने कई बार कब्जा जमाया है। मो. तस्लीमुद्दीन ने जब अररिया को अपनाया तो सारे समीकरण ध्वस्त हो गए। अररिया सिर्फ तस्लीमुद्दीन परिवार का होकर रह गया। उनके निधन के बाद उनके बड़े पुत्र सरफराज यहां से राजद के एमपी हैं। राजद के साथ जाने के लिए उन्होंने जदयू और विधायकी दोनों को छोड़ा था।

सियासत में नजीर हैं तुलमोहन राम

कांग्रेस के टिकट पर लगातार तीन बार एमपी बनने वाले तुलमोहन की ईमानदारी आज के नेताओं के लिए नजीर है। 1967 के परिसीमन में अररिया संसदीय सीट के अस्तित्व में आने पर तुलमोहन पहले सांसद बने थे। 1972 में उनपर आयात लाइसेंस दिलाने में धांधली का आरोप लगा। उन्होंने सिफरिशी पत्र लिखा था।

अन्य सांसद तो यह कहकर बच गए कि पत्र पर उनका फर्जी हस्ताक्षर है, लेकिन तुलमोहन इनकार नहीं कर सके। सीबीआइ जांच हुई तो वे दोषी पाए गए। उन्‍हें पांच साल की सजा हुई। सजा काटने के बाद उन्होंने राजनीति से संन्यास ले लिया और साधु हो गए। बाद में उन्हें इस बात का मलाल था कि अन्य दोषी बड़े नेता और अफसर बेदाग बच गए।

रामजी ने खोला था भाजपा का खाता

जेपी लहर का प्रभाव अररिया पर भी गहरा पड़ा। 1977 में कांग्रेस के डुमरलाल बैठा को हराकर लोकदल के महेंद्र नारायण सरदार एमपी बने, किंतु अगले ही चुनाव में 1980 में बैठा से सरदार हार गए। बैठा 1984 में भी जीते। 1989 में वीपी सिंह का उभार हुआ तो जनता दल के टिकट पर शुकदेव पासवान एमपी बने और अगला दो चुनाव लगातार जीते।

रामजी ऋषिदेव ने भाजपा के लिए 1998 में पहली बार खाता खोला। 2008 में अररिया सामान्य सीट हो गई तो भाजपा ने प्रदीप कुमार सिंह को प्रत्याशी बनाया और वह जीते। किंतु 2014 की मोदी लहर में तस्लीमुद्दीन के आगे प्रदीप पस्त हो गए।

उपचुनाव के महारथी

सरफराज आलम : राजद : 509334

प्रदीप सिंह : भाजपा : 447546

प्रिंस विक्टर : जाप : 20922

उपेंद्र सहनी : निर्दलीय : 18772

विधानसभा क्षेत्र

नरपतगंज (राजद), रानीगंज (जदयू), फारबीसगंज (भाजपा), अररिया (कांग्र्रेस), जोकीहाट (राजद), सिकटी (भाजपा)


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