बदलते मिजाज व माहौल को मतदाता भी रहे हैं स्वीकार, दिख रहा परिपक्व लोकतंत्र
वो दिन लद गए जब प्रत्याशी मोहल्ले में किसी दबंग के घर या गांव-टोले में बैठकर वोट सेट करते थे। अब पटना के मतदाताओं का मिजाज भी बदल गया है।
By Edited By: Published: Wed, 27 Mar 2019 09:21 PM (IST)Updated: Thu, 28 Mar 2019 09:03 AM (IST)
श्रवण कुमार, पटना। लोकतंत्र के महापर्व की व्यवस्था में व्यापक बदलाव के साथ मतदाताओं के मिजाज भी बदल रहे हैं। पटना के वोटरों के रंग-ढंग बदले हैं। वो दिन लद गए कि प्रत्याशी शहर के मोहल्ले में किसी दबंग के घर या गांव-टोले में प्रभावशाली की दलान पर बैठकर वोट सेट करते थे। वोटों की ऐसी ठेकेदारी के लगभग खात्मे से जहां लोकतंत्र की परिपक्वता की तस्वीर देखने को मिल रही है।
हर किसी की चाहत सीधे संपर्क में रहे प्रत्याशी
हालांकि जातीय उभार कम नहीं हुआ है। पाटलिपुत्र सांसद रामकृपाल यादव जो केंद्र में मंत्री हैं, उनका कहना है कि पटना का राजनीतिक मिजाज गजब का बदला है। आम तौर पर पहले गांव-टोलों में चुनाव प्रचार के लिए जब प्रत्याशी जाते थे, किसी की दलान पर बैठक कर सब कुछ तय हो जाता था, लेकिन, अब हर मतदाता जागरूक है। हर किसी की चाहत होती है कि प्रत्याशी उनसे सीधा संपर्क करें। अब पहले की तरह पांच साल में एक बार दर्शन देने वाले प्रत्याशियों की भी खैर नहीं होती।
मतदाताओं का बदला है रुझान
पूर्व सासद प्रो. रंजन प्रसाद यादव भी मानते हैं कि मतदाताओं के रुझान में बदलाव हुआ है। प्रो. यादव कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि बिहार में पहले जात-पात नहीं थी पर मतदाताओं या प्रत्याशियों के मन में जात-पात सत्ता में भागीदारी या साझेदारी का साधन नहीं था। आज का मतदाता सोचने लगा है कि सत्ता में उसकी जाति की कितनी हिस्सेदारी है। सत्ता में जातिवार हिस्सेदारी की सोच चुनाव में जातीय दखल की बड़ी वजह है। भले ही जाति के नाम पर चुनाव जीतने वाला अपनी जाति के मतदाताओं को कुछ दे या न दे, परंतु जातीय सोच ने चुनावी मिजाज को बदला है।
व्यवस्था ने डाला है बड़ा असर
पटना के सांसद रह चुके डा. सी. पी. ठाकुर का मानना है कि मतदाताओं के मिजाज नहीं, मतदान की बदली व्यवस्था से माहौल बदला है। 1990 के दशक में मतदाताओं के बीच खौफ रहता था। प्रत्याशी को भी चुनाव के दौरान न्याय के लिए आयोग या अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ता था। डा. ठाकुर ने बताया कि 1998 और 1999 के चुनाव में उन्हें इंसाफ के लिए मुख्य निर्वाचन आयुक्त के दरवाजे पर दस्तक देना पड़ा। धांघली का अंदाजा इसी से लगाइए कि दोनों ही बार चुनाव को काउंटरमेंड (रद) करना पड़ा था। कड़ी चौकसी के बीच दुबारा हुए मतदान के बाद जीत पाए थे।
अब ऐसी स्थिति नहीं रही। बदलते मिजाज और माहौल को मतदाता भी स्वीकारते हैं। पटना साहिब लोकसभा क्षेत्र के वोटर अनिमेश का कहना है कि सोशल मीडिया का जमाना है। प्रत्याशी घर-घर पहुंचे या नहीं, अगर फेसबुक या ट्विटर के माध्यम से भी मतदाताओं तक नहीं पहुंच सका तो उसे कैसे चुना जा सकता है? पाटलिपुत्र लोकसभा के वोटर लाल बाबू राय कहते हैं कि कोई चाहे कितना बड़ा नेता क्यों न हो, हम सब का वोट तो उसे ही पड़ना है जिस तक जरूरत पड़ने पर हमारी पहुंच हो।
हर किसी की चाहत सीधे संपर्क में रहे प्रत्याशी
हालांकि जातीय उभार कम नहीं हुआ है। पाटलिपुत्र सांसद रामकृपाल यादव जो केंद्र में मंत्री हैं, उनका कहना है कि पटना का राजनीतिक मिजाज गजब का बदला है। आम तौर पर पहले गांव-टोलों में चुनाव प्रचार के लिए जब प्रत्याशी जाते थे, किसी की दलान पर बैठक कर सब कुछ तय हो जाता था, लेकिन, अब हर मतदाता जागरूक है। हर किसी की चाहत होती है कि प्रत्याशी उनसे सीधा संपर्क करें। अब पहले की तरह पांच साल में एक बार दर्शन देने वाले प्रत्याशियों की भी खैर नहीं होती।
मतदाताओं का बदला है रुझान
पूर्व सासद प्रो. रंजन प्रसाद यादव भी मानते हैं कि मतदाताओं के रुझान में बदलाव हुआ है। प्रो. यादव कहते हैं कि ऐसा नहीं है कि बिहार में पहले जात-पात नहीं थी पर मतदाताओं या प्रत्याशियों के मन में जात-पात सत्ता में भागीदारी या साझेदारी का साधन नहीं था। आज का मतदाता सोचने लगा है कि सत्ता में उसकी जाति की कितनी हिस्सेदारी है। सत्ता में जातिवार हिस्सेदारी की सोच चुनाव में जातीय दखल की बड़ी वजह है। भले ही जाति के नाम पर चुनाव जीतने वाला अपनी जाति के मतदाताओं को कुछ दे या न दे, परंतु जातीय सोच ने चुनावी मिजाज को बदला है।
व्यवस्था ने डाला है बड़ा असर
पटना के सांसद रह चुके डा. सी. पी. ठाकुर का मानना है कि मतदाताओं के मिजाज नहीं, मतदान की बदली व्यवस्था से माहौल बदला है। 1990 के दशक में मतदाताओं के बीच खौफ रहता था। प्रत्याशी को भी चुनाव के दौरान न्याय के लिए आयोग या अदालत का दरवाजा खटखटाना पड़ता था। डा. ठाकुर ने बताया कि 1998 और 1999 के चुनाव में उन्हें इंसाफ के लिए मुख्य निर्वाचन आयुक्त के दरवाजे पर दस्तक देना पड़ा। धांघली का अंदाजा इसी से लगाइए कि दोनों ही बार चुनाव को काउंटरमेंड (रद) करना पड़ा था। कड़ी चौकसी के बीच दुबारा हुए मतदान के बाद जीत पाए थे।
अब ऐसी स्थिति नहीं रही। बदलते मिजाज और माहौल को मतदाता भी स्वीकारते हैं। पटना साहिब लोकसभा क्षेत्र के वोटर अनिमेश का कहना है कि सोशल मीडिया का जमाना है। प्रत्याशी घर-घर पहुंचे या नहीं, अगर फेसबुक या ट्विटर के माध्यम से भी मतदाताओं तक नहीं पहुंच सका तो उसे कैसे चुना जा सकता है? पाटलिपुत्र लोकसभा के वोटर लाल बाबू राय कहते हैं कि कोई चाहे कितना बड़ा नेता क्यों न हो, हम सब का वोट तो उसे ही पड़ना है जिस तक जरूरत पड़ने पर हमारी पहुंच हो।
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