यादों में पटना: शहर के लोगों में दिखता था अपनापन, तब बदमाश भी दिखाते थे इंसानियत Patna News
बॉलीवुड और तेलुगु फिल्मों के अभिनेता विनीत कुमार सुना रहे पुराने पटना के खूबसूरत संस्मरण। जानें कैसा था उनके समय का शहर।
अक्षय पांडेय, पटना। बॉलीवुड और तेलुगु फिल्मों के अभिनेता विनीत कुमार के पास खुशनुमा यादों का ऐसा पिटारा है, जो खुले तो शहर की रंगत का एहसास हो जाए। जिंदगी के 62 बसंत देख चुके विनीत जब 1965 के बाकरगंज को केंद्र में रखकर राजधानी का जिक्र करते हैं तो उस पल में जाने को मन रोमांचित हो जाता है। ये उस समय की बात है कि जब मकान नंबर नहीं, घर के बुजुर्गों से लोगों की पहचान होती थी। तब लिफ्ट से जाने की जल्दी नहीं थी, क्योंकि सीढिय़ों पर इत्मीनान था।
विनीत कहते हैं कि उस समय कॉलोनी के हर कोने में एक वृद्ध होते थे, जो मोहल्ले की हर हलचल को नापा करते थे। तब बगल के घर से शादी का न्यौता मिलता था तो अचरज नहीं होता था, क्योंकि पता था कि किस घर में कौन रह रहा है। आज तो हर किसी के बच्चे बाहर रहने लगे हैं। एक घर में कितने परिवार रहते हैं, पता ही नहीं चलता।
चोर भी करते थे आम आदमी का समर्थन
विनीत बताते हैं कि वह समय बहुत सुकून भरा था। तब चिंता की लकीरें कम, चेहरे पर मुस्कान अधिक थी। सीसी कैमरे की जरूरत नहीं थी, क्योंकि घर के बाहर बुजुर्गों की तीसरी आंख सभी पर नजर रखती थी। तब देर रात के आने-जाने में सोचना नहीं पड़ता था। अपराधियों का भी जमीर होता था। बदमाश आम आदमी की इज्जत करते थे। वह उसी को छूते थे जो उस लायक हो। तब ऐसा सुनने को नहीं मिलता था कि गोली चली किसी और के लिए और लगी किसी और को। सबको पता था कि अपने मोहल्ले में कौन चोर है।
फास्ट फूड से शहर में आया बिखराव
विनीत कहते हैं कि आज भले आधा शहर फास्ट फूड पर निर्भर हो पर इसके नुकसान को भी समझना होगा। पहले खाने का मतलब घर था। घर पर ही खाना होता था। थोड़ा बहुत चाट-पकौड़ा खाने के लिए लोग घर से निकलते थे। पेट भरने का मतलब घर पहुुंचना था। जिस कारण सब एक थे।
परिवार के साथ जाते थे फिल्में देखने
एलफिंस्टन, रीजेंट, रूपक और वीना जैसे सिनेमा हॉल होते थे। उस वक्त लोग परिवार के साथ सिनेमा देखने जाते थे। विनीत कहते हैं कि तब फिल्में भी ऐसी बनती थीं, जिसे बच्चे से लेकर बड़े एक साथ बैठकर देख सकते हों।
मिस करता हूं त्योहारों का माहौल
विनीत बताते हैं कि तब पटना में दुर्गा पूजा का भव्य आयोजन होता था। पटना कॉलेजिएट, गोलघर और गांधी मैदान के पास मां दुर्गा की मूर्ति बैठाई जाती थी। उस समय पंडालों में फिल्मी गाने भी बजते थे। देर रात दो बजे क्लासिकल संगीत का कार्यक्रम शुरू होता था, जो सुबह चार बजे तक चलता था। मां की प्रतिमा का विसर्जन एक उत्सव के रूप में होता था। उस वक्त भी छठ का त्योहार मनाया जाता था पर मुख्य त्योहार होली, दिवाली, दशहरा, ईद और बकरीद होता था। पटना सिटी से गुरु गोविंद सिंह का भव्य जुलूस निकलता था, जिसे देखने के लिए लोग सड़कों पर इकट्ठा होते थे।
मोहल्लों से आती थी गोभी-चावल की महक
तब घर के बाहर से निकलने पर पता चल जाता था कि किसके यहां खाने में क्या बन रहा है। विनीत कहते हैं, गोभी-टमाटर की सब्जी के साथ शाहजीरा चावल की महक एक-दूसरे को बातें करने पर मजबूर कर देती थी। तब बात-बात में पड़ोसियों को घर पर खाने का न्यौता दे दिया जाता था। तब के पटना की महक ही अलग थी। आंख बंदकर इस शहर के माहौल को महसूस किया जा सकता था।
रेडियो कार्यक्रमों से पता चल जाता था समय
विनीत कहते हैं कि अब भी कल्पनाओं में शहर की बहुत सारी यादें हैं। तब अशोक राजपथ पर बने चार माले के नटराज होटल को देखने का कौतूहल ही अलग था। रिजेंट सिनेमा के पहले स्थित खादी ग्रामोद्योग के बगल से निकलने पर चंदन की खुशबू आती थी। तब रेडियो स्टेशन हमारा कल्चर सेंटर होता था। विविध भारती सुनने की ललक ही अलग थी। रेडियो पर आने वाले प्रोग्राम से समय की गणना की जाती थी। शहर के एक कोने से दूसरे कोने पर जाना मुश्किल था, तब भी लोग नजदीक थे। डाकिया सबको पहचानता था। चिट्ठी किसी की भी हो, जोर-जोर से पढ़ी जाती थी।