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दहेज को ना..उम्मीद रखें, सती प्रथा की तरह ही पढ़ी जाएगी दहेजवा के द एंड की कहानी

दहेज प्रथा को वैसे ही भगाना होगा जैसा कभी सती प्रथा को समाज से दूर भगाया गया था। चंद रूपयों के लालच में बेटियां जलाई जा रही हैं, लेकिन वो वक्त भी आएगा जब दहेज का भी दि एंड होगा।

By Kajal KumariEdited By: Published: Fri, 01 Dec 2017 10:23 AM (IST)Updated: Fri, 01 Dec 2017 06:55 PM (IST)
दहेज को ना..उम्मीद रखें, सती प्रथा की तरह ही पढ़ी जाएगी दहेजवा के द एंड की कहानी
दहेज को ना..उम्मीद रखें, सती प्रथा की तरह ही पढ़ी जाएगी दहेजवा के द एंड की कहानी

पटना [विनय मिश्र]। दहेज कुप्रथा... जिसने मजबूती से अपना शिकंजा हमारी जड़ों तक जकड़ रखा है, लेकिन इस सामाजिक कुरीति की हमें उसी तरह तिलांजलि देनी होगी, जैसी हमने समाज से सती प्रथा का खात्मा किया था। जिस तरह राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा के खिलाफ आवाज उठाई थी और सबने जिंदा जला देनी वाली कुप्रथा का खात्मा किया था, अब ठीक वैसे ही हमें अपने समाज से दहेजरूपी दानव को भगाना जरूरी है। वक्त लगेगा, लेकिन जब ठान लीजिए तो मुश्किल कुछ नहीं।

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पढ़िए, दहेज मुक्ति रथ से विनय मिश्र की लाइव रिपोर्ट....

 ....चौड़ी सड़क को छोड़कर गेहूं और ईख के खेतों में गुम हो जाने वाली पगडंडियों को देखते बढ़ते रहिए। ये पगडंडियां कई टोलों की सहचर हैं। खेतों में खड़े बिजली के खंभे अपनी ऊंचाई पर इतरा रहे। एलईडी की रोशनी से गांव की टूटी-पक्की गलियां रोशन हैं। दहेज के खिलाफ चल रही लड़ाई की गर्मी उन टोलों तक बिजली पहुंचने जैसी ही जरूरी लगती है।

गोपालगंज के गांवों में कटाई के बाद चीनी मिलों तक जाती ईख महक रही। पहले गांव-गांव में चूल्हे दहकते थे। महिया बनता था। गुड़ के ढेले पारे जाते थे। अब कोल्हू वाले बैल नहीं रहे, लेकिन गांव की जिंदगी वैसे ही गोल-गोल घूम रही। दहेज वाली परंपरा को ध्यान में रखकर सोचिए...। 

ताकि कोई दुल्हन रोती या निष्प्राण ससुराल से विदा न हो 

सड़कों के किनारे पुराने पेड़ खड़े हैं। वर्षों से रथ, जुलूस जाते देखते रहे हैं। कल लगन का माहौल था। यहीं से शाम को वर गए होंगे। सुबह दुल्हन लेकर लौटे होंगे। वही दुल्हन रोती या निष्प्राण ससुराल से विदा न हो, इसके लिए कौन सोचेगा? कोई बताता है कि इस गांव की बेटी की दहेज के लिए हत्या हुई थी।

बाप ने ससुराल में दफनाने से भी मना कर दिया। उसकी खेत के किनारे एक कब्र उदास चुपचाप सी सोई है। उसके अंदर समा गई बेटी उस जनक की सीता रही होगी। मिथिला यहां से बहुत दूर नहीं। 

यह तो है कि अभी ऐसे सवाल के जवाब मुश्किल हैं 

गोपालगंज के मिंज स्टेडियम से सिवान के तरवारा चौक तक जिले बदल जाते हैं लेकिन लोग एक जैसे और बाजार एक जैसे हैं। जागरण के रथ को देखते हुए भीड़ गुजरती जाती है। अपने काम पर निकलने के लिए रास्ता तलाशती है। जिले भर के लोग सिवान आए हैं। सत्ता के विकेंद्रीकरण के गीत गाते जमाना गुजरा लेकिन अब भी सभी बड़े काम के लिए लोगों को सिवान की बस पकडऩी पड़ती है।

आज घर जाएंगे, तो पड़ोसी को सुनाएंगे। बड़ा जाम था सिवान में। दहेज के खिलाफ रैली में इतनी भीड़ थी। बाप रे बाप। तीन घंटे जाम लगा रहा। इसी बहाने दहेज पर बात भी होगी। ऐ जी...। सच में दहेज बंद होगा क्या? सुने हैं सरकार शराब की तरह दहेज रोक रही?  पत्नी के सवाल का जवाब कभी भी सहज और सीधा नहीं होता। चुप रहना ही बेहतर है।  

मदद की आस में किए गए फोन मिस्ड होते हैं 

खेत से धान घर आ गया है। किसान धान और पुआल सहेजने बटोरने में लगे हैं। चिकनी सड़कों पर मोटर लगे वैन रिक्शे में धान क्रय केंद्रों पर भी पहुंचाए जा रहे। सरसों की सिंचाई करनी है। गेहूं के लिए खेत तैयार किए जा रहे। लोग व्यस्त हैं।

मार्च-अप्रैल में जिन में घरों में शादी है, वे गाडिय़ां बुक करने और शामियाना-टेंट की व्यवस्था में लगे हैं। अग्रिम-बयाना दिया जा रहा। समधीजी से रोज बात हो रही। डेट फाइनल हो गई है। बेटी के बाप की चिंता बढ़ी हुई है। घट रहे पैसे की व्यवस्था करनी है। उम्मीद में रिश्तेदारों को किए गए फोन मिस्ड कॉल हो जा रहे।

ये पंडितजी जेल नहीं जाएंगे

सिवान के जुलूस में वेदपाठी बटुक आए थे। भविष्य के पंडित हैं। विवाह कराएंगे। सरकार ने घोषणा की है कि दहेज वाली शादी कराने वाले पंडीजी भी जेल जाएंगे। बटुक बोले, हम नहीं कराएंगे दहेज वाली शादी। हमें नहीं जाना जेल। लजाते हुए दूसरा बोला और करेंगे भी नहीं। 

अब हर पल कैद हो रहा कैमरे में 

सेल्फी की होड़ मची थी सिवान के तरवारा चौक पर। मशाल एक हाथ से दूसरे हाथ में जाती रही। मोबाइल के फ्लैश चमक रहे थे। थोड़ी देर में ये तस्वीरें वाया फेसबुक और वाट्सएप देश-दुनिया में फैल जाएंगी। जिन्हें आपसे मतलब है, वह लाइक देंगे, कमेंट करेंगे। बाकी लोग देखते हुए निकल जाएंगे। हर इवेंट सेल्फी इवेंट बन गया है।

कुछ दिनों बाद इतिहास लिखने वाले शायद इन तस्वीरों को देखकर दहेज मुक्ति अभियान की पूरी कहानी लिखेंगे। तब शायद किताबें प्रचलन में नहीं होंगी। हमारे बच्चे स्मार्ट डिवाइस पर इस कहानी को पढ़ेंगे। वैसे ही जैसे आज हम सती प्रथा की कहानी पढ़ते हैं। उम्मीद पर दुनिया कायम है। रहेगी भी।


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