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जानिए आखिर बिहार के गया में ही क्यों होता है पिंडदान और मिलता है मोक्ष....

बिहार के गयाजी में पितृपक्ष के दौरान पितरों के लिए पिंडदान की परंपरा आदिकाल से चली आ रही है। कहा जाता है कि गया में पिंडदान करने से पितरों को मोक्ष की प्राप्ति होती है।

By Kajal KumariEdited By: Published: Mon, 24 Sep 2018 05:24 PM (IST)Updated: Tue, 25 Sep 2018 08:02 AM (IST)
जानिए आखिर बिहार के गया में ही क्यों होता है पिंडदान और मिलता है मोक्ष....
जानिए आखिर बिहार के गया में ही क्यों होता है पिंडदान और मिलता है मोक्ष....

पटना [जेएनएन]। आश्विन महीने के कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से अमावस्या तक 15 दिनों तक का समय पितृपक्ष का होता है। मान्यता के अनुसार पिंडदान मोक्ष प्राप्ति का एक सहज और सरल मार्ग है। मनुष्य पर देव ऋण, गुरु ऋण अौर पितृ ऋण होते हैं। माता-पिता की सेवा करके मरणोपरांत पितृपक्ष में पूर्ण श्रद्धा से श्राद्ध करने पर पितृऋण से मुक्ति मिलती है।

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ऐसे तो देश के हरिद्वार, गंगासागर, कुरुक्षेत्र, चित्रकूट, पुष्कर सहित कई स्थानों में भगवान पितरों को श्रद्धापूर्वक किए गए श्राद्ध से मोक्ष प्रदान कर देते हैं, लेकिन गया में किए गए श्राद्ध की महिमा का गुणगान तो भगवान राम ने भी किया है। कहा जाता है कि भगवान राम और सीताजी ने भी राजा दशरथ की आत्मा की शांति के लिए गया में ही पिंडदान किया था।

मोक्ष की भूमि व विष्णु की नगरी है गया

गया को विष्णु की नगरी माना जाता है। यह मोक्ष की भूमि कहलाती है। गरुड़ पुराण के अनुसार गया जाने के लिए घर से निकले एक-एक कदम पितरों को स्वर्ग की अोर ले जाने के लिए सीढ़ी बनाते हैं। विष्णु पुराण के अनुसार गया में पूर्ण श्रद्धा से पितरों का श्राद्ध करने से उन्हें मोक्ष मिलता है। मान्यता है कि गया में भगवान विष्णु स्वयं पितृ देवता के रूप में उपस्थित रहते हैं, इसलिए इसे पितृ तीर्थ भी कहते हैं।

जानिए गयासुर की कहानी

मान्यता है कि गया भस्मासुर के वंशज दैत्य गयासुर की देह पर फैला है। कहते हैं कि गयासुर ने ब्रह्माजी को अपने कठोर तप से प्रसन्न कर वरदान मांगा कि उसकी देह देवताअों की भांति पवित्र हो जाए अौर उसके दर्शन से लोगों को पापों से मुक्ति मिल जाए।

वरदान मिलने के पश्चात स्वर्ग में जन्संख्या बढ़ने लगी अौर लोग अधिक पाप करने लगे। इन पापों से मुक्ति के लिए वे गयासुर के दर्शन कर लेते थे। इस समस्या से बचने के लिए देवताअों ने गयासुर से कहा कि उन्हें यज्ञ के लिए पवित्र स्थान दें। गयासुर ने देवताअों को यज्ञ के लिए अपना शरीर दे दिया।

कहा जाता है कि दैत्य गयासुर जब लेटा तो उसका शरीर पांच कोस में फैल गया। यही पांच कोस का स्थान आगे चलकर गया के नाम से जाना गया। गया के मन से लोगों को पाप मुक्त करने की इच्छा कम नहीं हुई, इसलिए उसने देवताअों से फिर वरदान की मांग कि यह स्थान लोगों के लिए पाप मुक्ति वाला बना रहे। जो भी श्रद्धालु यहां श्रद्धा से पिंडदान करते हैं, उनके पितरों को मोक्ष मिलता है।

पंडा महेशलाल गुप्त ने बताया गया जी का महत्व

गया के पंडा महेशलाल गुप्त पीतल किवाड़ वाले बताते हैं कि आखिर गया में ही पिंडदान करने का खासा महत्व क्यों है?  वे कहते हैं कि फल्गु नदी के तट पर पिंडदान किए बिना पिंडदान हो ही नहीं सकता। गया में पहले विभिन्न नामों की 360 वेदियां थीं, जहां पिंडदान किया जाता था। इनमें से अब 48 ही बची हैं।

वर्तमान समय में इन्हीं वेदियों पर लोग पितरों का तर्पण और पिंडदान करते हैं। पिंडदान के लिए प्रतिवर्ष गया में देश-विदेश से लाखों लोग आते हैं। उन्होंने कहा कि हर इंसान की यह इच्छा होती है कि मरने के बाद गया धाम में उसका पिंडदान किया जाए ताकि उसकी आत्मा को शांति मिल सके।

 गया तीर्थ में जलरूप में विराजमान हैं विष्णु 

डॉ. रामकृष्ण के मुताबिक पितृपक्ष के पहले दिन की शुरुआत पावन फल्गु नदी के जल में पितरों को तपर्ण करने के साथ होती है। एक पखवारे तक चलने वाले पितृपक्ष मेले की शुरुआत यहीं से मानी जाती है। फल्गु तीर्थ और विष्णुपद में तादात्म्य संबंध है। भगवान विष्णु भी गया तीर्थ में जल रूप में विराजमान हैं। इसलिए गरुड़ पुराण में वर्णित है कि 21 पीढिय़ों में किसी भी एक व्यक्ति का पैर फल्गु में पड़ जाए तो उसके समस्त कुल का उद्धार हो जाता है। 
ब्रह्मवैवर्त पुराण में लिखा गया कि फल्गु सर्वनाश और गदाधर देव का दर्शन एवं गयासुर की परिक्रमा ब्रह्म हत्या जैसे पाप से मुक्ति दिलाती है। गयासुर की परिक्रमा का अभिप्राय समस्त पिंडवेदियों से है, क्योंकि एक कोशिश का मतलब तीन किलोमीटर (पंचकोश गया क्षेत्र) के क्षेत्र से है, जिसमें मुख्य वेदियां सम्मलित हैं। 

फल्गु तीर्थ के और भी कई पक्ष हैं, जिसके कारण इसकी आध्यात्मिकता बढ़ी है। बोधगया से उत्तर निरंजना संगम के पश्चात इसका उत्तरवाही अस्तित्व स्वतंत्र है। यह पुनपुन नदी से भी अपने को अलग रखकर आहर में खो जाती है। धार्मिक गौरव में यह गंगा से कम नहीं है। गंगा को सुर सरिता भले कहा गया है, पर फल्गु तो स्वयं विष्णु का अवतरण ही है।

 सीता ने किया था अपने श्वसुर दशरथ का पिंडदान 

कहा जाता है कि राम, लक्ष्मण और सीता भगवान दशरथ का पिंडदान करने गयाजी आए थे। राम-लक्ष्मण पिंडदान करने के लिए सामग्री एकत्रित करने चले गये और सीताजी गया धाम में फल्गु नदी के किनारे  दोनों के वापस लौटने का इंतजार कर रही थीं। पिंडदान का समय निकला जा रहा था तभी राजा दशरथ की आत्मा ने पिंडदान की मांग कर दी।

समय को हाथ से निकलता देख सीता जी ने फल्गु नदी के साथ वटवृक्ष, केतकी के फूल और गाय को साक्षी मानकर बालू का पिंड बनाकर श्वसुर स्वर्गीय राजा दशरथ के निमित्त पिंडदान दे दिया। 

जब भगवान श्रीराम और लक्ष्मण वापस लौटे तो सीता ने पिंडदान की बात बताई जिसके बाद श्रीराम ने सीता से इसका प्रमाण मांगा। सीता जी ने जब फल्गु नदी, गाय और केतकी के फूल से गवाही देने के लिए कहा तो तीनों अपनी बात से मुकर गए, सिर्फ वटवृक्ष ने ही सीता के पक्ष में गवाही दी। 

इसके बाद सीता जी ने दशरथ का ध्यान करके उनसे ही गवाही देने की प्रार्थना की। सीताजी की प्रार्थना सुनकर स्वयं दशरथ जी की आत्मा ने यह घोषणा की कि सीता ने ही उन्हें पिंडदान दिया है।

गौरतलब है कि स्वयं सीता जी ने अपने ससुर राजा दशरथ का पिंडदान गया में किया था और गरुड़ पुराण में भी इस धाम का जिक्र मिलता है इसलिए हर इंसान मृत्यु के बाद मुक्ति और शांति पाने के लिए गया में ही अपना पिंडदान कराने की इच्छा रखता है। 


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