खुदाबख्श लाइब्रेरी कहती है किताबों से प्यार की कहानी
अशोक राजपथ के किनारे गंगा नदी के शांत तट पर स्थित विशाल पुस्तकों का संग्रह है यह पुस्तकालय
प्रभात रंजन, पटना। अशोक राजपथ के किनारे गंगा नदी के शांत तट पर स्थित विशाल पुस्तकों और दस्तावेजों का संग्रह रखे खुदाबख्श लाइब्रेरी न सिर्फ शहर बल्कि दुनिया की अनमोल धरोहर है। भारत के राष्ट्रीय पुस्तकालयों में शुमार खुदाबख्श लाइब्रेरी प्राचीन पांडुलिपियों और दस्तावेजों के विशाल संग्रह के लिए पूरी दुनिया में विख्यात है। इस्लामी एवं भारतीय विद्या-संस्कृति के संदर्भ का प्रमुख केंद्र बन चुकी यह लाइब्रेरी रविवार को शोधार्थी और विद्यार्थियों के लिए सुबह से लेकर देर शाम तक खुली रही।
लाइब्रेरी के संस्थापक मोहम्मद खुदाबख्श खान की जयंती और पुण्यतिथि पर विशेष कार्यक्रम आयोजित किया गया। उनका जन्म 2 अगस्त 1842 को जबकि मृत्यु 3 अगस्त 1908 को हुई थी। लाइब्रेरी परिसर में मोहम्मद खुदाबख्श खान द्वारा एकत्रित दुर्लभ पांडुलिपियों के अलावा आइने -अकबरी, सिकंदरनामा, बाजनामा, शाहनामा सहित भारतीय और मुगलकालीन एवं पर्शियन लिपि से जुड़ी कई पांडुलिपियां दर्शकों को अपनी ओर आकर्षित करती रहीं। कॉलेजों के छात्र-छात्राओं ने लाइब्रेरी में लगी ऐतिहासिक पुस्तकों और पेंटिंग का दीदार कर अपना ज्ञानवर्द्धन किया। वही लाइब्रेरियन और अन्य स्टाफ ने प्रदर्शनी में लगी सामग्री के बारे में लोगों को विस्तार से बताया।
प्रदर्शनी में मुगल साम्राज्य के कई दुर्लभ दस्तावेज
लाइब्रेरी की स्थापना दिवस के मौके पर दुर्लभ दस्तावेज पुस्तक और पेंटिंग की एक दिवसीय प्रदर्शनी सभी का ध्यान आकर्षित कर रही थीं। प्रदर्शनी में मुगल साम्राज्य के साथ रामायण, श्रीमद्भागवत गीता की दुर्लभ प्रतियां मौजूद थीं। प्रदर्शनी में आईने-अकबरी को भी रखा गया था, जिसमें मुगल साम्राज्य से जुड़ी जानकारी के साथ हथियार की कलाकृति बनी है। वही 17वीं सदी के सिकंदरनामा में सिकंदर के क्रियाकलापों के बारे में बताया गया है। इस पर अद्भुत कलाकृतियों का निर्माण सोने से किया गया है। बाजनामा में बाज पक्षी की अलग-अलग प्रजातियों को तस्वीर के जरिए दिखाया गया है। पर्शियन लिपि में लिखे 11वीं सदी के शाहनामा में इस्लाम से पहले की कहानी कविता के जरिए बताई गई है। प्रदर्शनी में तुलसीदास कृत रामायण है, जिसमें अलग-अलग कलाकृतियां बनी हैं। यह 18वीं सदी की है। प्रदर्शनी में बाबर, हुमायूं, अकबर, शेरशाह सूरी, शाहजहां आदि शासकों द्वारा लिखे गजलों का संग्रह 'दीवान ऑफ हाफिज' भी प्रदर्शित था। यह पर्शियन लिपि और फारसी भाषा में लिखा हुआ है। वही पुस्तकालय में 1611 में जहांगीर के शासनकाल में लिखे दस्तावेज 'जहांगीरनामा' मौजूद है। इसमें जहांगीर के शासन व्यवस्था से जुड़ी कहानी मौजूद है। इसके अलावा 1805 विक्रम संवत में भूपत द्वारा लिखी श्रीमद्भागवत गीता भी है।
छपरा में जन्मे थे खुदाबख्श खां
लाइब्रेरी में लगी दुर्लभ पुस्तक, पेंटिंग के बारे में लाइब्रेरी की निदेशक डॉ. शाइस्ता बेदार बताती हैं कि पांडुलिपियों और तस्वीरों की यह लाइब्रेरी पटना के मशहूर वकील मरहूम खुदाबख्श खान की पटनावासियों के लिए बेशकीमती देन है। वह बताती हैं कि खुदाबख्श साहब का जन्म छपरा जिले के ओखी गांव में दो अगस्त 1842 को हुआ था। इनके विद्वान पूर्वजों ने कभी औरंगजेब को फतवा-ए-आलमगीर लिखने में मदद की थी। इनके पिता मोहम्मद बख्श भी पुरानी किताबों के शौकीन थे। उन्हें भी करीब 300 दुर्लभ और बेशकीमती पांडुलिपियां अपने पूर्वजों से मिली थीं। खुदाबख्श की परवरिश अपने पिता की देखरेख में हुई। अपने पिता के दिये गए वायदे के मुताबिक पांच अक्टूबर 1891 को उन्होंने इस लाइब्रेरी की बुनियाद रखी।
खुदाबख्श को किताबों से था प्यार -
लाइब्रेरी में लगी दुर्लभ पुस्तकों और पांडुलिपियों के बारे में लाइब्रेरी के असिस्टेंट लाइब्रेरियन जावेद बताते हैं कि खुदाबख्श को किताबों से पुराना नाता रहा। किताबों के शौकीन मुहम्मद खुदाबख्श के पास लगभग 1400 पांडुलिपियां और कुछ दुर्लभ पुस्तकें थीं। उनके पिता मोहम्मद साहब जब 1876 में जब अपनी मृत्यु-शैय्या पर थे, उन्होंने पुस्तकों की जायदाद अपने बेटे खुदाबख्श को सौंपते हुए शहर में एक पुस्तकालय खोलने की इच्छा प्रकट की। खुदाबख्श खान ने पिता की अंतिम इच्छा पूरी करने के लिए विरासत में प्राप्त हुई पुस्तकों को लोगों के लिए समर्पित कर दिया।
पुस्तकों की खरीदारी में जाता था कमाई का बड़ा हिस्सा
खुदाबख्श के पूर्वज मुगल बादशाह आलमगीर की सेवा में थे। उनके पिता पटना के एक प्रसिद्ध वकील होने के साथ पुस्तक प्रेमी थे। उनकी कमाई का बड़ा हिस्सा किताबों को खरीदने में जाता था। खुदाबख्श ने पटना हाई स्कूल से 1859 में अच्छे अंक के साथ मैट्रिक की परीक्षा पास की थी। उनके पिता ने उन्हें उच्च शिक्षा के लिए कोलकाता भेज दिया, जहां से उन्होंने अपनी कानून की शिक्षा पूरी कर पटना आ गए। कम समय में वे शहर के नामी-गिरामी वकील बने और बाद पिता के सपने को साकार करने के लिए अपने निजी भवन को पुस्तकालय के रूप में आम पाठकों को समर्पित कर दिया।
1891 में हुआ था विधिवत उद्घाटन
लाइब्रेरी की स्थापना विधिवत रूप से वर्ष 1891 में हुई थी, लेकिन इसका प्रारंभ कई वर्ष पहले ही हो चुका था। उसी वर्ष पांच अक्टूबर को बिहार-बंगाल के तत्कालीन गर्वनर सर चार्ल्स इलियट ने पुस्तकालय का विधिवत उद्घाटन किया था। खुदाबख्श ने अपने पिता द्वारा सौंपी गई पुस्तकों के अलावा अन्य पुस्तकों का संग्रह कर वर्ष 1888 में लगभग 80 हजार रुपये की लागत से दो मंजिला भवन में पुस्तकालय की शुरुआत की। उन दौरान पुस्तकालय में अरबी, फारसी और अंग्रेजी की चार हजार से अधिक दुर्लभ पांडुलिपियां मौजूद थीं। पुस्तकालय को समृद्ध बनाने के लिए खुदाबख्श ने मो. मकी नाम के शख्स को 50 रुपये मासिक वेतन पर बहाल कर रखा था। मकी ने 18 वर्षो तक मिस्र, सीरिया, ईरान और अरब का भ्रमण कर दुर्लभ पांडुलिपियां जुटाई थीं। आरंभ में यह पुस्तकालय बांकीपुर ओरियंटल लाइब्रेरी तथा ओरिएंटल पब्लिक लाइब्रेरी के नाम से जाना जाता था। वर्ष 1969 में भारतीय संसद ने इसके राष्ट्रीय महत्व को देखते हुए संस्कृति विभाग के अधीन इसे एक स्वायत्त संस्था के रूप में मान्यता दी।
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