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जरूर लौटेगा सुरीले व यादगार गीतों का वह पुराना दौर : गोपालदास नीरज

हिंदी साहित्य का एक युग हैं गोपाल दास नीरज। उनके गीतों की बदौलत कई फिल्में सुपरहिट हुई हैं। पटना में एक इंटरव्यू के दौरान नीरज ने कहा कि सुरीले और यादगार गीतों का पुराना दौर भी लौटेगा। यह तो कालचक्र है। समय बदलता रहता है। परिवर्तन नियम है।

By Kajal KumariEdited By: Published: Mon, 04 Apr 2016 08:41 AM (IST)Updated: Mon, 04 Apr 2016 04:09 PM (IST)

पटना [सुधीर]।हिंदी साहित्य का एक युग हैं गोपाल दास नीरज। उनके गीतों की बदौलत कई फिल्में सुपरहिट हुई हैं। रफी, किशोर, मुकेश लता, मन्ना डे आदि बड़े गायकों ने उनके गीतों को आवाज दी है। बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के दो दिवसीय कार्यक्रम के सिलसिले में वे पटना आए हुए थे। प्रस्तुत है उनसे बातचीत के मुख्य अंश...

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प्रश्न : आज के गीतकारों पर क्या कहेंगे?

उत्तर : आज के गीतकारों में प्रतिभा की कोई कमी नहीं है। वे हर तरह के गीत लिख रहे हैं। उनके पास हीरे भी हैं और कंकड़ भी। दिक्कत प्रोड्यूसरों की समझ की है। वे गीतकारों से हीरा छोड़ कंकड़ मांग रहे हैं। ऐसे में गीतकार क्या करें? वे कंकड़ ही दे रहे हैं।

कहा, निर्माता-निर्देशकों का तो पूरा ध्यान आइटम सांग पर है। ऐसे में अच्छे गीत कहां से मिलेंगे। हां यह भी सच है कि नए गीतकार भी लंबा संघर्ष करने की जगह तुरंत सफलता चाह रहे हैं। उनके गीतों में भाव से अधिक भौतिकता दिख रही है।

नीरज ने कहा, फिर भी यह तय है कि सुरीले और यादगार गीतों का पुराना दौर भी लौटेगा। यह तो कालचक्र है। समय बदलता रहता है। परिवर्तन नियम है।

प्रश्न : साहित्यकारों के सम्मान लौटाने पर क्या कहेंगे?

उत्तर : साहित्यकारों का सम्मान लौटाना गलत है। लौटाना था, तो लिया ही क्यों? यह किसी सरकार को बदनाम करना जैसा है। साहित्यकारों के पास विरोध करने के लिए उनकी रचनाएं हैं। वे कविता लिखकर, कहानियां लिखकर विरोध दर्ज कराएं। अपनी रचनाओं से विरोध और पीड़ा दर्ज कराएं। मैंने भी ऐसे ही हालात में लिखा था : 'आंसू के द्वारे कटी सुबह, दुख की है बीती दोपहरी/ अब जाने डोला कहां उठे, अब जाने शाम कहां होगी!'

प्रश्न : गलत है राजनीतिक गुटबाजी?

उत्तर : साहित्यकार अगर किसी राजनीतिक दल के लिए गुटबाजी करते हैं तो यह एकदम गलत है। उनका काम मूल्य और सत्य को स्थापित करना है। साहित्यकारों को किसी भी राजनीतिक दल से जुडऩा भी गलत है।

प्रश्न : नेताओं को कविता की समझ नहीं?

उत्तर : कविता और साहित्य में बिहार का गौरवशाली अतीत रहा है। यहां नेपाली, दिनकर, जानकी वल्लभ शास्त्री, शिवपूजन सहाय जैसे महान साहित्यकार रहे हैं। अधिकांश से मैं व्यक्तिगत रूप से जुड़ा हुआ था। लेकिन, बिहार में कवि और कविता में अब बड़े नाम नहीं आ रहे, इसके लिए नेता काफी जिम्मेदार हैं।

उन्हें कविता की समझ नहीं है। इसलिए वे न तो कविता को बढ़ावा दे रहे हैं और ना ही कवियों को संरक्षण। यहां के मुकाबले मेरे राज्य (उत्तर प्रदेश) में हालात काफी बेहतर हैं। वहां साहित्यकारों को सरकार संरक्षण देती है।

प्रश्न : सबसे पसंदीदा गीत?

मेरा सबसे पसंदीदा गीत है किशोर कुमार का गया हुआ 'फूलों के रंग से...'। इसके अलावा 'कारवां गुजर गया, गुब्बार देखते रहे...' भी काफी पसंद है। यह फिल्मों में मेरा पहला गीत था। फिल्म थी 'नई उमर की नई फसल'। बाकी सभी भी पसंद हैं। लोग आज भी सुनते हैं।

कहा, एसडी बर्मन और फिर आरडी बर्मन से बहुत बढिय़ा तालमेल रहा। मेरा जो गीत फिल्मों में नहीं आए, लेकिन मुझे काफी पसंद है वह है : 'ऐसी क्या बात है, चलता हूं अभी चलता हूं/ गीत एक और जरा झूम के गा लूं तो चलूं।'

यह कविता भी मुझे काफी पसंद है :

'छिप-छिप अश्रु बहाने वालों, मोती व्यर्थ लुटाने वालों/ कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है।'

प्रश्न : समीक्षकों के बारे में ख्याल?

उत्तर : समीक्षकों को हमेशा एक गलतफहमी रहती है कि वे साहित्यकारों को तैयार करते हैं। जैसे ही कोई साहित्यकार लोकप्रिय होता है, उसे वे खारिज करना शुरू कर देते हैं।


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