हिंदी साहित्य के प्रकाश पुंज हैं दिनकर, जिंदगी के साथ होकर करते जिंदगी की बात
दिनकार को यूं ही राष्ट्रकवि का दर्जा नहीं दिया गया है। उनकी रचनाओं में कई काव्य प्रवृत्तियां विस्तार पाती हैं। राष्ट्रीयता की चेतना काफी मुखर हुई है। जयंती पर जानिए दिनकर को।
पटना [प्रमोद कुमार सिंह]। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकर' हिंदी साहित्य के वैसे प्रकाश पुंज हैं, जिन्होंने पूरे भारतीय समाज को आलोकित किया। ओज, शौर्य, प्रेम और सौंदर्य सब इनके काव्य में एक साथ आकार पाते हैं। वे आंदोलित भी करते हैं और आह्लादित भी। उत्प्रेरित भी करते हैं और आश्वस्त भी। एक तरफ 'हिमालय' की ललकार है तो दूसरी ओर 'रसवंती' का फुहार है। अर्थात कई काव्य प्रवृत्तियां एक साथ यहां विस्तार पाती हैं।
इसीलिए कहा जाता है कि दिनकर द्वंद्वात्मक ऐक्य के कवि हैं।
वे जिंदगी के साथ होकर जिंदगी की बात करते हैं। दरअसल, वे गूंज के कवि हैं। इस गूंज में प्रेरणा भी है। लिखते हैं-
मानव जब जोर लगाता है पत्थर पानी बन जाता है।
चिंतन के स्तर पर दिनकर का फलक व्यापक है।
दिनकर की कविताओं यथा- नेमत, शोक की संतान, अनल-किरीट, जनतंत्र का जन्म, रश्मिरथी, गीत-अगीत, नील कुसुम, मंसूबा तथा कविता और विज्ञान को पढ़कर उनके काव्यगत वैविध्य को समझा जा सकता है।
दिनकर के काव्य में कठोरता और कोमलता दोनों है। ललकार भी है और प्रेम की पुकार भी है। क्रांतिकारिता भी है रोमांटिसिज्म भी है। स्पष्ट है कि उनके काव्यों में विरोधी प्रवृत्तियों का संघात है।
दिनकर के काव्यों में विराटता के दर्शन होते हैं। वे 'महाकाव्यात्मक विजन' के कवि हैं। एक बड़ा कवि पूरी जिंदगी के लिए संवाद लिखता है। दिनकर इसी धारा के सशक्त कवि हैं। इसीलिए वे जिंदगी की बात करते हैं। दिनकर में सच बोलने का माद्दा था। भारत में लोकतांत्रिक संस्कृति तैयार करने में दिनकर की महती भूमिका रही है। दिनकर सांस्कृतिक अनुगूंज के कवि हैं। 'संस्कृति के चार अध्याय' में इसकी झलक मिलती है।
दरअसल, दिनकर के व्यक्तित्व और कृतित्व में कई अंतर्विरोधों की आवृत्तियां दिखाई देती हैं, लेकिन रचनाधर्मिता में अनेक वैविध्य लक्षित होता है, जो उन्हें निजी वैशिष्ट्य प्रदान करता है। दिनकर की रचनाशीलता का एक महत्वपूर्ण पहलू उनका गद्यकार रूप है, जिसे पढ़कर उनकी व्यापक सांस्कृतिक दृष्टि और चिंतन के कई आयाम खुलते हैं।
दिनकर की कविताओं में राष्ट्रीय भावबोध
दिनकर के यहां राष्ट्रीय चेतना काफी मुखर हुई है। यह जब सामाजिक चेतना का आकार लेती है तो कवि का स्वर और मुखर हो जाता है।
हटो व्योम के मेघ, पंथ से, स्वर्ग लूटने हम आते हैं
दूध, दूध ओ वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं।
दिनकर का मूल स्वर राष्ट्रीयता का रहा है-
रे रोक युधिष्ठिर को न यहां
जाने दो उनको स्वर्ग धीर
लौटा मुझे गांडीव-गदा
रहने दो अर्जुन-भीम वीर
उन्होंने कहा भी है कि मैंने जो कुछ गाया है, आत्मा के जोर से गाया है, कंठ फाड़ कर गाया है, हृदय चीर कर गाया है...।
दिनकर के काव्य में प्रेम और सौदर्य
दिनकर की कविताओं में प्रेम संगीत की तरह बह रहा है। इसके कई रंग यहां दिखते हैं। 'उर्वशीÓ में ये तत्व अपने उद्यात्तता को प्राप्त किये हैं। नामवर सिंह ने कहा भी है कि-दिनकर सौंदर्य के उपासक और प्रेम के पुजारी भी थे। दिनकर की इस छवि की सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति 'उर्वशी' महाकाव्य में हुई है। यह उनकी पंक्तियों को देखने से स्पष्ट हो जाता है।
जिस दिन माझी आएगा
ले चलने को उस पार सखी
यह मोहक यौवन देना
होगा उसको उपहार सखी।
इसीलिए समालोचक नंद किशोर नवल कहते हैं कि 'उर्वशी' दिनकर काव्य का सर्वोच्च शिखर तो है ही, वह समग्र आधुनिक हिन्दी कविता का एक अत्युच्च शिखर भी है। इसके अतिरिक्त दिनकर का इतिहास बोध भी अद्भुत है। कुरुक्षेत्र, रश्मिरथी में इसके दर्शन होते हैं। अतीत के प्रति कवि का आग्रह राष्ट्रीय भावबोध से लबरेज है।
स्पष्ट है कि दिनकर का रचना संसार न सिर्फ व्यापक है, वरन वैविध्यपूर्ण भी है। देश-समाज के प्रति कवि की चिंताएं वाजिब ही हैं। वे अपने साहित्य सें समाज को राह दिखाते हैं। इन्हीं विशेषताओं के चलते दिनकर काव्य रसिकों के कंठहार बने हुए हैं।
जयंती पर राष्ट्रकवि को शत-शत नमन।