डायल 100: यहां है आइपीएस अधिकारियों की फौज, ये सुनते नहीं, बोलते हैं
आइपीएस अधिकारियों की फौज है। इसके बाद भी न आपराधिक घटनाएं कम हो रही हैं और न ही मुख्यालय स्तर के अधिकारियों के यहां आने वाली शिकायतों में कमी।
प्रशांत कुमार, पटना। राजधानी में इन दिनों आइपीएस अधिकारियों की फौज है। बावजूद इसके न तो आपराधिक घटनाएं कम हो रही हैं और न ही मुख्यालय स्तर के अधिकारियों के यहां आने वाली शिकायतों में कमी आ रही है। इससे मुख्यालय के वरीय अधिकारी बहुत परेशान हैं। एडीजी और आइजी स्तर के दो पदाधिकारी एक दिन विभाग के सबसे बड़े साहब के कार्यालय में बैठे थे।
जनता दरबार का टाइम हो गया था। तीनों पदाधिकारी पटना जिले की बदहाली पर चिंतित थे। यही बातें चल रही थीं कि अनुमंडलस्तर पर भी आइपीएस को बिठाया गया है, फिर भी कोई सुधार क्यों नहीं? तभी एक फरियादी को बुलाया गया। आवेदन देखकर साहब बोले, एक बार फिर जाकर एसपी से मिलिए। फरियादी छूटते ही बोला - वो आइपीएस हैं सर। साहब बोले, अरे हम भी वही हैं, तो जवाब मिला- एसपी साहब कहे थे कि हम आइपीएस हैं समझे। हम बोलते हैं, सुनते नहीं।
ट्रैफिक का मतलब पनिश्मेंट पोस्टिंग
ट्रैफिक पुलिस में कई महत्वपूर्ण पद हैं जिसे अधिसंख्य अफसर पनिश्मेंट पोस्टिंग समझते हैं। माने ऐसी प्रतिनियुक्ति जो सजा के समान हो। एक दौर था जब अफसरों में इस पद को लेकर जोश होता था, उनका जलवा भी था। नए अफसरों में ऐसी सोच नहीं दिखती। उन्हें लगता है कि वे पढ़्र-लिखकर बड़े-बड़े काम करने के लिए अधिकारी बने हैं, न कि सड़क पर गाडिय़ों को संभालने के नाम पर धूप और धूल में घूमने के लिए। वे पनिश्मेंट पोस्टिंग इसलिए भी समझते हैं कि ट्रैफिक पुलिस में अधिसंख्य अप्रशिक्षित जवानों की तैनाती की जाती है। सुस्त एवं अधिक उम्र के दारोगा और इंस्पेक्टर को ट्रैफिक की कमान मिलती है। पुलिस लाइन में सिपाही बवाल के बाद अधिकारियों ने मातहतों पर चिल्लाना भी कम कर दिया है। अफसरों का ध्यान केवल वीआइपी मूवमेंट के समय ट्रैफिक सामान्य बनाए रखने पर होता है, ताकि कठघरे में खड़ा न होना पड़े।
अब दाग भी अच्छे हैं
जनता का परेशान होना लाजमी है और इसमें कुछ नया भी नहीं है। लगभग दस साल पहले तक पुलिस विभाग में शीर्ष पर बैठे अधिकारियों में भय था कि एक भूल उनके करियर पर बदनुमा दाग लगा सकती है। कुछ नहीं भी हुआ तो स्थानांतरण तय है, लेकिन अब अधिकारियों में यह डर खत्म होता जा रहा। हर अफसर ने अपना आका चुन रखा है। उनकी सेवा-सत्कार कर मनचाहे स्थान पर न सिर्फ पोस्टिंग मिलती है, बल्कि तब तक डटे भी रहते हैं, जब तक खुद हटने की इ'छा न हो। वर्तमान में जिले में एसडीपीओ के तीन पोस्ट खाली हैं। एक प्रभार में गए हैं और दो का ट्रांसफर हो गया है। यहां नए अफसर की पोस्टिंग लंबे समय से लंबित चल रही। हालात ऐसे हैं कि इन इलाकों में रहने वाली जनता की परेशानी कम होने का नाम नहीं ले रही। केस करने वाले परेशान हैं और आरोपित मस्त।
सूचना संकलन दुरुस्त कीजिए हुजूर
मुखबिरी एक दौर में पटना पुलिस का सबसे बड़ा और मारक हथियार था। कई बार ऐसा हो चुका है, जब पटना पुलिस अपराध होने से पहले बदमाश को पकड़कर प्रेस कॉन्फ्रेंस करती है। हालांकि इस कला को लेकर पुलिस पर फर्जी रहस्योद्घाटन के भी आरोप लगे हैं, पर हालात ऐसे थे कि पुलिस ने बदमाशों की कमर तोड़ दी थी। इसका कारण था कि पुलिस को हर तरफ से सूचनाएं मिलती थीं। एकाएक पटना पुलिस में सिपाही से लेकर एसपी स्तर पर बड़ी फेरबदल की गई। थानों में सिपाही से इंस्पेक्टर तक नए आ गए हैं। वे पुराने बदमाशों की पहचान नहीं कर पाते और वारदात के बाद जब उनके नाम सामने आते हैं तो ठिकाने ढूंढने में लंबा समय लग जाता है। तब तक शहर में दूसरी वारदात हो जाती है। दूसरी तरफ पीपुल्स फ्रेंडली का तमगा लगाकर घूमने वाले अधिकारी भी आमजन से दूरी बनाकर रख रहे हैं।