Move to Jagran APP

बिहार संवादी: हिंदी की सौतन नहीं, सहचरी हैं देसी भाषाएं

सहचरी भाषएं हिंदी की सौतन नहीं, सहचरी है। हिंदी अगर समुद्र है तो अन्‍य भाषएं नदियां हैं।

By Ravi RanjanEdited By: Published: Sun, 22 Apr 2018 09:01 PM (IST)Updated: Sun, 22 Apr 2018 09:01 PM (IST)
बिहार संवादी: हिंदी की सौतन नहीं, सहचरी हैं देसी भाषाएं
बिहार संवादी: हिंदी की सौतन नहीं, सहचरी हैं देसी भाषाएं

पटना [अरविंद शर्मा]। बिहार संवादी के चौथे सत्र में बिन बोली भाषा सून के तहत देसी भाषाओं के क्षेत्रीय महत्व को सबने बढ़-चढ़कर बखान किया। अपनी क्षेत्रीय भाषाओं को दूसरे से बेहतर बताया। हालांकि यह भी माना कि हिन्दी समुद्र है और देसी भाषाएं नदियां।

loksabha election banner

ये जो बोलियां हैं, भोजपुरी, मगही, अंगिका और वज्जिका सभी खड़ी बोली की माता है। हिंदी इनसे ही निकली है। हिंदी की ये सौतन नहीं, सहचरी हैं। अकादमिक और बौद्धिक तौर पर भले ही वाद-विवाद हो, लेकिन व्यावहारिक रूप से देखें तो यह तर्क ज्यादा मुफीद नजर आता है। हिंदी समृद्ध होती है देसी भाषाओं से किंतु खतरा भी उन्हें सबसे ज्यादा हिंदी से ही है।

विषय की पृष्ठभूमि रखते हुए अनंत विजय का सवाल कि भाषा को लेकर लोग इतने संवेदनशील क्यों हैं? वीरेंद्र झा ने जवाब को मैथिली पर ही फोकस रखा। मिथिला के लोग संवेदनशील नहीं रहे। इसीलिए संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने में वक्त लगा। अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौरान तत्कालीन केंद्रीय मंत्री सीपी ठाकुर के प्रयासों से इसे यह दर्जा मिला।

भाषा के नाम पर द्वंद्व और राजनीति के सवाल पर भोजपुरी के लिए संघर्षरत निराला तिवारी ने सत्र के नाम को ही कठघरे में खड़ा कर दिया। उन्होंने बिन बोली भाषा सून की जगह बिना भाषा बोली सून रखने का सुझाव दे डाला। बात आगे बढ़ी और उन्होंने भोजपुरी को कमतर आंकने पर आपत्ति जताई। कहा-भोजपुरी बोली नहीं, समृद्ध भाषा है।

अनंत विजय ने सवालों की सूची को चट से लंबी की-भाषा के लिए बुनियादी शर्त क्या होनी चाहिए। सवाल निराला से था, जवाब वीरेंद्र की ओर से आया। बोली से भाषा बनने की एक प्रक्रिया होती है। जब अपना व्याकरण, लिपि और साहित्यिक परंपरा हो जाती है तो वह बोली, भाषा हो जाती है। लिपि का तर्क निराला के गले नहीं उतरा। असहमति जताई-लिपि तो अंग्रेजी और हिंदी की भी अपनी नहीं है।

हिंदी को हम देवनागरी लिपि में लिखते हैं। वह अतीत की ओर लौटे और भोजपुरी का इतिहास बताने लगे तो अनंत विजय ने व्याकरण पर सवाल उठाया। निराला ने उदयनारायण तिवारी की छह सौ पन्ने की किताब का हवाला दिया। खंड काव्य, प्रबंध काव्य लिखे जा रहे हैं। अपना व्याकरण भी तैयार है। हम किसी से कम नहीं।

सबसे प्राचीन कौन

हिंदी का इतिहास तो अधिकतम दो-तीन सौ साल का है। सबसे प्राचीन भाषा कौन? वीरेंद्र ने मैथिली की वकालत की और उसके लिए सन 1324 में ज्योतिरीश्वर के लिखे गद्य पुस्तक का हवाला दिया। मतलब भी बताया कि किसी भी भाषा में सबसे पहले पद्य लिखा जाता है, लेकिन ज्योतिरीश्वर का गद्य यह साबित करता है कि मैथिली उससे भी पहले की है। हजार वर्ष से भी पहले की परंपरा है। इससे प्राचीन कोई अन्य भारतीय भाषा नहीं है। कई साहित्यकारों ने विद्यापति से प्रेरणा ली।

रवींद्र नाथ टैगोर ने भी मैथिली में रचना की। वीरेंद्र का तर्क नरेन को चुभ गया। मगही से प्राचीन वह किसी को नहीं मानते। उन्होंने भगवान बुद्ध से शुरू किया-बौद्ध धर्म की सारी बातें मगही में लिखी गई हैं। आत्ममुग्धता में नरेन थोड़ा और आगे बढ़ जाते हैं। मगही को सारी भारतीय भाषाओं की जननी बताते हैं। तर्क देते हैं। पूरा मगध साम्राज्य मगही बोलता था। बीच के काल में जन सरोकार कम होता गया तो मगही भी पिछड़ती चली गई।

शब्द संख्या पर तकरार

हिंदी को उदार होने की नसीहत। संकीर्णता से बाहर निकालने की अपील। दयनीय दशा की चिंता करते हुए वीरेंद्र झा ने हिंदी के सारे शब्द गिन लिए। बताया-हिन्दी में कुल एक लाख 20 हजार शब्द हैं, जबकि अंग्र्रेजी में 10 लाख शब्द हैं। अंगिका के अनिरुद्ध सिन्हा ने काट दिया। कहा-1970 में ङ्क्षहदी के कुल एक लाख 70 हजार शब्द थे। बाद में इसमें 50 हजार और जुड़ गए। वीरेंद्र को नागवार गुजरा।

अनिरुद्ध के तर्क को खारिज किया। उदाहरण एक अखबार में छपे गोविंद सिंह के आलेख से दिया और अपनी गिनती पर अड़े रहे। श्रोता गैलरी से आवाज आई गोविंद ने गलत लिखा है। अंगिका के अनिरुद्ध का समर्थन किया गया।

वीरेंद्र की उस अपील को सबने स्वीकार किया, जिसमें कहा गया था कि ङ्क्षहदी को क्षेत्रीय भाषाओं से भी शब्द लेने चाहिए। लुकाठी-फराठी जैसे मैथिल शब्दों से परहेज क्यों? बात का सिलसिला आगे बढ़ा। देसी भाषाओं एवं बोलियों के संरक्षण पर अटक गया।

पूरे विश्व में 60 हजार भाषाएं हैं, जिनमें 63 हजार भाषाएं समाप्ति की ओर हैं। देश में भी छह सौ भाषाएं और पांच हजार बोलियां हैं। इनमें से 12 भाषाएं लुप्त होने जा रही हैं। जिन भाषाओं के पास उनकी क्षेत्रीय बोलियां प्रचलन में नहीं हैं, वह समाप्त होने जा रही हैं। उन्हें जिंदा रखने के लिए प्रयास किए जाएं। अगर क्षेत्रीय भाषाएं बोलने वाले लोग ही नहीं रहेंगे तो उन्हें संरक्षित कैसे किया जा सकता है।

फिर झगड़ा कहां है

अनंत विजय के सवाल ने शांत होते माहौल को फिर गर्म कर दिया-फिर झंझट क्यों है बंधु? नरेन ने जवाब देने में देर नहीं की-सिर्फ आत्ममुग्धता। अंगिका और मैथिली में भी बहुत काम हो रहा है। निराला के मुताबिक भोजपुरी तो मंगल ग्रह तक चली गई। मैंने छह दर्जन मगही की किताबें छापी हैं। भोजपुरी और मगही सगी बहने हैं। अंगिका भी अलग नहीं है। सभी देसी भाषाओं की मूल तो मगही ही है। मैथिली को भी बड़ा बताया जा रहा है। जब सब सर्वोत्तम हैं तो छोटा कौन है। इस आत्ममुग्धता से निकलना होगा। काम करना होगा। रचनात्मक।

अंगिका के अनिरुद्ध सिन्हा ने हिन्दी को सर्वजातीय भाषा और बोलियों का समूह करार दिया, जिसमें बुंदेली, मगही, राजस्थानी, ब्रज, अंगिका, भोजपुरी, अवधी, वज्जिका और मैथिली भी आती हैं। इनमें मैथिली को ज्यादा तरजीह दी। तर्क दिया-संवैधानिक दर्जा मिल जाने के कारण यह थोड़ा अधिक समृद्ध हो गई है। अब अपने पर लौटे। मगही और मैथिली की प्राचीनता के पक्ष में खड़े वक्ताओं को बता-जता दिया कि भोजपुरी के बाद सबसे बड़ा क्षेत्र अंगिका का है। पूर्णिया, भागलपुर, संथाल परगना और पश्चिम बंगाल के पुरुलिया तक अंगिका को ही लोगों ने अंगीकार कर रखा है।

हिंदी ने हमें क्या दिया

निराला के सवालों में ही जवाब है। हिंदी ने हमसे सिर्फ लिया है। दिया क्या है? भोजपुरी कोई अकादमिक भाषा नहीं है। हिंदी ने लेकर भी उसे कुछ नहीं दिया है। उसे जगह नहीं मिलती है। ऐसा नहीं हो सकता कि देसी भाषाएं हिंदी को समृद्ध करती रहें और उन्हें कोई अवदान नहीं मिले। हिंदी अगर समुद्र है तो नदियों के महत्व को भी समझे। हमारे नायकों की खोज-खबर नहीं ली जा रही है।

करीब सौ साल पहले महावीर प्रसाद द्विवेदी ने हीरा डोम को खोज लिया था। अबके हमारे नायक कहां हैं? क्यों नहीं खोजा जा रहा है? भिखारी ठाकुर की खबर क्यों नहीं ली जा रही है। पास में बैठे वीरेंद्र झा ने सहमति जताई। अनंत  ने पूछा रास्ता कैसे निकले? नरेन का जवाब सुनिए। अगर अपना-अपना दुराग्र्रह पालेंगे तो हम थेथरई भी करेंगे।

नरेन ने चुनौतियों से निपटने की गुजारिश भी की। हम सभी को देखना पड़ेगा कि अलग-अलग विधायों में कितना लिखा जा रहा है। रचनात्मकता कितनी है? संदर्भ से जुड़ा सवाल अनंत ने ठोक डाला-जो लोग देसी भाषाओं के नाम पर अपनी दुकान चला रहे हैं वह उस भाषा की समृद्धि के लिए क्या कर रहे हैं? अनिरुद्ध ने राजनीतिक मोड़ दिया। जब राजनीति में कटुता खत्म नहीं हो सकती तो भाषा में भी बनी रहेगी। कुछ लोग हैं जो झंझट करते रहना चाहते हैं। सृजन पर सटीक जवाब निराला ने दिया-अपनी बोलियों को नई पीढ़ी में ट्रांसफर कर देना भी कम बड़ा सृजन नहीं है।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.