जाति, धर्म और धन की राजनीति के बावजूद आधार बचाने में एक हद तक कामयाब है माले
पटना के गांधी मैदान में गुरुवार को भाकपा माले की रैली थी। रैली में काफी लोगों की जुटान हुई। रैली में भीड़ कम थी या ज्यादा थी इससे इतर ये दखा कि आज भी माले ने अपना आधार बचा रखा है।
पटना [अरुण अशेष]। भाकपा माले की रैली में भीड़ कम थी। अधिक थी। इस मुददे पर अलग-अलग दावे हो सकते हैं। लेकिन, नोट करने लायक खास बात यह जरूर थी कि जाति, धर्म और धन की राजनीति के बीच एक हद तक माले का आधार बचा हुआ है। समाज के सबसे कमजोर या कह लीजिए कि अंतिम आदमी तक उसकी पकड कायम है।
इन लोगों पर अच्छे दिन और सुशासन का बहुत अधिक असर नहीं है। उनके लिए चीजें आज भी अधिक नहीं सुधरी हैं। हालांकि समर्थकों के एक हिस्से में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रति हमदर्दी नजर आई। दूसरी तरफ उन लोगों की संख्या भी अच्छी थी, जिनकी नजर में गरीब गुरबों के लिए लालू प्रसाद का शासन ठीक था।
रैली में आए जहानाबाद के युगल पासवान होश संभालने के बाद से माले में हैं। दलितों के बड़े कहे जाने वाले नेताओं-रामविलास पासवान या जीतनराम मांझी ने कभी इन्हें प्रभावित नहीं किया। संयोग से इस क्षेत्र में माले के उम्मीदवार चुनाव लड़ते रहे हैं। इसलिए मजबूरी में किसी और दल को वोट देने की जरूरत नहीं पड़ी।
खुश हैं कि नीतीश के राज में उनके गांव में बिजली आई।
नल-जल योजना भी चल रही है। क्या इन सुविधाओं के लिए अगली बार आप नीतीश कुमार को वोट देंगे? युगल साफ मुकर जाते हैं-वोट तो माले को ही देंगे। मतलब, पार्टी के प्रति प्रतिबद्धता उन्हें सुविधाओं के बदले वोट देने से रोक रही है। इसी जिले के घोसी प्रखंड के कहियासा गांव के सुरेश पासवान की नजर से देखें तो सरकार की विकास योजनाएं उनतक नहीं पहुंच पाई हैं।
वृद्धावस्था पेंशन और नल-जल योजना का लाभ भी उन्हें नहीं मिला है। समाज पर सत्ता के असर के लिहाज से उन्हें लालू प्रसाद का राज अच्छा लगता था। उनके लिए राहत की बात यह भी है कि माले के मंच पर राजद के नेता भी बैठे हैं। वे राजद-माले के बीच भविष्य में बनने वाले किसी गठबंधन को लेकर इत्मीनान हैं। रैली में आए लोगों से बातचीत से यह भी पता चलता है कि वृद्धावस्था पेंशन का अनियमित भुगतान गरीबों की नाराजगी का बड़ा कारण है।
नौबतपुर प्रखंड के बखोदरचक गांव की इंदरपरी देवी बताती हैं-तीन साल पहले मेरी पेंशन अचानक बंद हो गई। हम गरीब हैं और वृद्ध भी। पेंशन क्यों बंद हुई, कोई नहीं बताता। इंदरपरी अपने छोटे भाई निर्मल पासवान के साथ रैली में आई हैं। निर्मल सिसनी गांव के हैं। गरीब हैं। उन्हें भी किसी सरकारी योजना का लाभ नहीं मिला है।
कोइलवर के निकट धनडीहा गांव के झगडू मिस्त्री भूमिहीन हैं। सरकारी जमीन में झोपड़ी बनाकर रहते हैं। इंदिरा आवास के लिए अर्जी लगाकर थक गए। अब नाउम्मीद हो चुके हैं। उम्मीद माले से है-लड़ झगड़कर ही सही, आवास मिल जाएगा।
रैली में आए लोग इस धारणा को भी खंडित करते हैं सत्ता की राजनीति में बड़े दलों की अति सक्रियता के चलते वाम दलों से नए लोग नहीं जुड़ रहे हैं। मधेपुरा के उपेंद्र दास परिवार के साथ आए हैं। गांधी मैदान में तीखी धूप से बचने के लिए उन्होंने चादर और लाठी के सहारे तंबू बना लिया। सपरिवार उसी में उसी में बैठकर भाषण सुन रहे थे। दास बताते हैं कि चार साल पहले भाकपा माले से जुड़े। अब नए लोगों को जोड़ रहे हैं। गया के बालगोबिन्द का जुड़ाव साल भर पहले हुआ। माले से पहले वे किसी दल से नहीं जुड़े थे। चुनाव के समय किसी दल को वोट दे देते थे। हां, माले के लिए चिन्ता की बात जरूर हो सकती है कि उसके प्रति युवाओं-छात्रों का लगाव कम हुआ है। मजदूर तो जुडे हुए हैं, मगर छोटे-मंझोले किसान नहीं जुड पा रहे हैं। रैली की संरचना यही बता रही थी कि समय के साथ माले ने नए तबके को जोडने का गंभीर प्रयास नहीं किया है। हां, अल्पसंख्यकों की भागीदारी नए वर्ग में उसकी संभावना बढा रही है।