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देवकीनंदन खत्री की 'चंद्रकांता': बिहार से निकली एक कहानी, जिसने बुलंद कर दी हिंदी की किस्मत

बीते सवा सौ साल के दौरान शायद ही कोई दिंदी भाषी होगा जिसने चंद्रकांता का नाम नहीं सुना हो। देवकीनंदन खत्री का यह उपन्‍यास हिंदी साहित्‍य के इतिहास में मील का पत्‍थर है।

By Amit AlokEdited By: Published: Sat, 14 Sep 2019 07:54 AM (IST)Updated: Sun, 15 Sep 2019 02:52 PM (IST)
देवकीनंदन खत्री की 'चंद्रकांता': बिहार से निकली एक कहानी, जिसने बुलंद कर दी हिंदी की किस्मत

पटना [अरविंद शर्मा]। भारतीय भाषाओं का पहला समृद्ध उपन्यास चंद्रकांता, जिसने बिहार से निकलकर हिंदी की किस्मत बुलंद कर दी। देवकीनंदन खत्री ने उत्‍तर प्रदेश के चुनार गढ़, चकिया और नौगढ़ से लेकर बिहार के कैमूर और बराबर की पहाडिय़ों तक तिलिस्म, अय्यारी, चमत्कार और जालसाज हरकतों का ऐसा जाल बुना कि अन्य भाषाओं के लोग भी चंद्रकांता पढऩे के लिए हिंदी भाषा की ओर मुखातिब होने लगे। पिछले सवा सौ साल के दौरान शायद ही कोई ऐसा साक्षर या निरक्षर व्यक्ति होगा, जिसने चंद्रकांता को पढ़ा, सुना या देखा नहीं होगा।

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वर्ष 1888 में चंद्रकांता का प्रकाशन काशी के हरि प्रकाश प्रेस में हुआ था। तब देवकीनंदन की उम्र महज 27 वर्ष थी। जाहिर है, मुजफ्फरपुर के पूसा में 29 जून 1861 को जन्मे देवकीनंदन के दिमाग में चंद्रकांता का प्लॉट उस वक्त आया, जब वह बिहार के टिकारी स्टेट में दीवान हुआ करते थे। उनकी युवावस्था (18 से 26 वर्ष) टिकारी में बीती थी।
लेखक की इतनी कम उम्र में उसकी रचना में इतनी रवानी, शिल्प-शैली इतनी सहज, पात्र इतने सजीव, बुनावट इतनी जटिल और कल्पना का फलक इतना विराट है कि चंद्रकांता के मुकाबले की रचना हिंदी साहित्य में अभी तक असंभव है।
हिंदी के पहले तिलिस्मी लेखक
वह हिंदी के पहले तिलिस्मी लेखक थे। दो-दो स्टेट के राजाओं से नजदीकी रिश्ते और राजमहलों से बावस्ता होने के चलते उनके उपन्यास में दरवाजों, झरोखों, खिड़कियों, सुरंगों और सीढिय़ों में भी रहस्य-रोमांच की दास्तान है। सुनसान अंधेरी और खौफनाक रातों में मठों-मंदिरों के खंडहरों का ऐसा वर्णन है कि शब्द-शब्द में रफ्तार है। राजकुमारों और महारानियों के बीच प्यार-तकरार, न्याय-नीति और जालसाजी, सबकुछ सच और सजीव लगता है। प्रत्येक घटना स्थलों की बनावट, सजावट और दिखावट स्मरण में बस जाने वाली हैं।

तब आसान नहीं था हिंदी भाषा का प्रचार
देवकीनंदन के जमाने में हिंदुस्तान में सिर्फ छह फीसद लोग ही साक्षर थे। तब उर्दू की तरह हिंदी का विकास भी नहीं हो पाया था। यह 19वीं सदी का आखिरी दशक का दौर था। कोर्ट-कचहरियों में उर्दू-फारसी का बोलबाला था। लिहाजा उनका मकसद अपनी रचनाओं के जरिए देवनागरी लिपि के साथ-साथ हिंदी भाषा का प्रचार करना था। यह आसान भी नहीं था। किंतु उन्होंने कर दिखाया। तिलिस्म और अय्यारी जैसे शब्दों को हिंदी में भी जगह दी।
चंद्रकांता पढ़ने के लिए लोगों ने सीखी हिंदी
चंद्रकांता इतना लोकप्रिय हो गया कि उसके तथ्य-कथ्य, भाषा प्रवाह और शिल्प-शैली पर बुद्धिजीवियों के बीच बहस होने लगी। जो ङ्क्षहदी नहीं जानते थे, उन्हें भी लगा कि आखिर क्या है चंद्रकांता में। लोगों ने उसे पढऩे के लिए हिंदी सीखनी शुरू कर दी।

टिकारी में तैयार हुआ था चंद्रकांता का प्लॉट
चंद्रकांता का प्लॉट देवकीनंदन के दिमाग में टिकारी प्रवास के दौरान ही आ गया था। टिकारी राज परिवार से गहरे जुड़े रजनीश वाजपेयी के मुताबिक देवकीनंदन की मां पूसा के रईस जीवनलाल मेहता की बेटी थीं। उनका बचपन पूसा में बीता था। टिकारी राज में उनके नाना का हाथी का हौदा बनाने और लकड़ी का पुश्तैनी कारोबार था। उनके नाना की महाराजा गोपाल शरण सिंह के पिता राजा अंबिका शरण सिंह से अच्छी दोस्ती थी। राजदरबार में प्रतिष्ठा भी। लिहाजा, देवकीनंदन 18 साल की उम्र में ही टिकारी आ गए थे, जहां बाद में दीवान नियुक्त हो गए।
टिकारी के बाद काशी को बनसया ठिकाना
1886 में टिकारी का साथ तब छूटा जब गया के तत्कालीन जिलाधिकारी जॉर्ज ग्रियर्सन ने टिकारी राज को अपने अधिकार में लेकर कोर्ट ऑफ वार्ड घोषित कर दिया। इससे दीवान का पद स्वत: समाप्त हो गया। तब देवकीनंदन का ठिकाना काशी हो गया, जहां चंद्रकांता का अधिकांश भाग लिखा गया और प्रकाशन हुआ। खत्री ने अपने एक अन्य उपन्यास कुसुम कुमारी में भी जहानाबाद के पंडुई राज और टिकारी की चर्चा की है।


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