ब्रिटिश हुकूमत को आंदोलनों से अधिक इन कहानियों ने पहुंचाया नुकसान, ऐसे आई थी मंगल बेला
Untold Story of Freedom Struggle ब्रिटिश हुकूमत से भारत की आजादी की कहानी उतनी सीधी और सपाट नहीं है जितनी अक्सर कही-सुनी जाती है। महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय बिहार के कुलपति प्रो. संजीव कुमार शर्मा कुछ ऐसे ही तथ्यों को उजागर कर रहे हैं।
पटना, प्रो. संजीव कुमार शर्मा। वह वर्ष 1857 के मार्च महीने की 29 तारीख थी। कारतूसों को लेकर भारतीय सिपाहियों में क्रोध था। 34वीं बंगाल नेटिव इंफेंटरी में शामिल मंगल पांडे ने अंग्रेजों के खिलाफ पहली गोली दागी। वे भारत के स्वाधीनता संग्राम के पहले अध्याय का पहला पन्ना बन गए। कुछ दिनों बाद उनको फांसी दे दी गई, लेकिन जो लड़ाई उन्होंने शुरू की वह वर्ष 1947 में देश के स्वतंत्र होने तक चलती रही थी।
भारत का इतिहास बदलने वाली घटना
मंगल पांडे का क्रांतिकारी रूप और अद्भुत बलिदान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के विशालकाय भवन की नींव का वह आधार स्तंभ है जिस पर इसकी दीवारें टिकी हैं। यह भारतीय इतिहास की ऐसी घटना है जो ब्रिटिश शासन को ध्वस्त करने की यात्रा में मील का पत्थर बनी। मील का पत्थर इसलिए क्योंकि यह भारतीय स्वाधीनता संग्राम का आरंभ नहीं था, हालांकि इसे स्वतंत्रता के यज्ञ की प्रथम आहुति भले ही कह दिया जाए। परंतु इस यज्ञ की अग्नि तो बहुत पहले ही प्रज्वलित हो चुकी थी।
बहुत पहले से लिखी जा रही थी विद्रोह की पटकथा
भारतीय जागरण की यह प्रक्रिया बहुत पहले ही आरंभ हो चुकी थी। भारत में स्व के जागरण एवं राष्ट्र के निर्माण के इस कथा के कई पक्ष हैं। बैरकपुर में मंगल पांडे का विद्रोह और उसके पश्चात मेरठ छावनी में हुए सैनिक विद्रोह की इस कथा का कथानक बहुत समय से तैयार हो रहा था। उस कथानक के आर्थिक पक्ष भी थे और राजनीतिक भी। एक ओर जहां इसके सामाजिक परिवेशीय वृत्तांत है, वहीं दूसरी ओर इस कथा के प्रशासनिक धार्मिक और सेना से जुड़े हुए वृत्तांत भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं।
परवान चढ़ी विरोध की भावना
प्रथम दृष्टया भारतीय स्वाधीनता संग्राम के राजनीतिक एवं आर्थिक कारण सर्वाधिक महत्वपूर्ण दृष्टिगोचर होते हैं। ब्रिटिश सत्ता के द्वारा विभिन्न राज परिवारों को पदच्युत कर उनके राज्य पर आधिपत्य जमाने से अनेक राज परिवारों की जीविका समाप्त हुई और विदेशी शासकों से जनसाधारण भ्रमित हुआ। डलहौजी द्वारा पंजाब के दिलीप सिंह की रियासत नीलाम कर उन्हें इंग्लैंड भेजा जाना, राज्य हड़प नीति से भारतीय शासक वर्ग में बढ़ता आक्रोश और अंग्रेजों का निरंतर विशाल होता साम्राज्य, भारतीय शासकों द्वारा सेना रखने पर पाबंदी और अंग्रेजी सेना के रखरखाव के लिए धन देने की मजबूरी के साथ-साथ रोजगार खो चुके भूतपूर्व सैनिकों और उनके परिवारों के रूप में जनता के एक बड़े वर्ग में बेरोजगारी बढ़ी।
जनता में नेतृत्व की कमी
साथ ही साथ मुगल शासकों से सत्ता के प्रतीकों का छीना जाना भी जनता में एक प्रकार से नेतृत्व के अभाव की व्याकुलता उत्पन्न कर रहा था। ऐसे परिवेश में विदेशी शासकों के आधीन भारतीय जनता की सामाजिक आस्थाओं पर जो प्रहार किए गए, कभी सती प्रथा निषेध और विधवा पुनर्विवाह के रूप में तो कभी ईसाई मिशनरियों तथा अंग्रेजी शिक्षा के नाम पर।
एक नहीं, कई हैं उदाहरण
जनमानस का यह आक्रोश तथा अपने परंपरागत समाज की ओर लौटने की यह जिजीविषा हमें बंगाल के संन्यासी एवं फकीर विद्रोह के रूप में दिखाई देती है। पंजाब के वहाबी आंदोलन और कूका आंदोलन ने भी अंग्रेजी राज के विरुद्ध विरोध का शंखनाद कर दिया था। मीनापुर का चुआर विद्रोह हो या 1820 में छोटा नागपुर का कोल विद्रोह, संथाल विद्रोह, 1828 का अहोम विद्रोह, उसी समय का खासी विद्रोह, यह सब भारतीयों के अंग्रेजी राज को उखाड़ फेंकने की निरंतर बलवती होती इच्छा का ही प्रतीक थे। साथ ही यह भारतीयों के अंग्रेजी शासन के बंधन से मुक्त होने और स्वतंत्रता प्राप्त करने की इच्छा को भी परिलक्षित करते हैं।
दक्षिण भारत में भी हुए कई विद्रोह
दक्षिण भारत में भी भील विद्रोह (1812), कोल विद्रोह (1829 से), कच्छ विद्रोह (1825 से बड़ौदा का बघेरा विद्रोह (1818) तथा सूरत का नमक आंदोलन (1844), इस प्रकार के सब आयोजन भारतीयों में प्रबल होती स्वदेशी पहचान तथा अंग्रेजों के विरोध की परवान चढ़ती भावना के परिचायक हैं। दक्षिण भारत भले ही 1857 की क्रांति में प्रमुख रूप से उभरकर सामने न आया हो परंतु उससे पूर्व विजयनगर, डिंडीगल, मालाबार के पालीनगर, कोल, रंपा एवं बिरसा मुंडा आदिवासियों के विद्रोह भारतीय जागरण की ही कहानी कहते हैं।
भड़क उठी ज्वाला
सामाजिक रूप से देखें तो अंग्रेजों का जातीय अहंकार, अंग्रेजी भाषा एवं सभ्यता का बलपूर्वक प्रचार, नरबलि, सती, शिशु हत्या आदि के निषेध ने भारतीयों के बीच अपना सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न होने का भय और आशंका व्याप्त कर दी थी। जनमानस इसे अपनी सामाजिक व्यवस्था के आमूलचूल नाश की अंग्रेजी नीति के रूप में देखने लगा तथा उनके प्रति सशंकित हो उठा।
उथल-पुथल से भड़का गुस्सा
रेल तथा टेलीग्राफ लाइनों के प्रसार के कारण भी परंपरागत जाति व्यवस्था पर प्रहार हुआ। इस सब उथल-पुथल के बीच एक विचार जनसाधारण में प्रबल होता जा रहा था कि विदेशी शासन से उन्हें मुक्ति चाहिए। इसी कारण से मंगल पांडे की शहादत और मेरठ के सैनिक विद्रोह ने राष्ट्रीय स्वाधीनता की सुलगती ज्वाला में विस्फोट का कार्य किया।
गूंज उठे समेकित स्वर
1857 की क्रांति के तात्कालिक कारण भले ही एनफील्ड राइफल के सुअर तथा गाय की चर्बी से भरे कारतूस रहे परंतु अंग्रेजी शासन के विरोध का स्वर समेकित था। यहां यह समझना अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाता है कि 85 सैनिक जिन्होंने इन कारतूसों का प्रयोग करने से मना किया था, उन्हें स्वतंत्र कराने की सैनिक विद्रोह की घटना को तुरंत जनसाधारण का न केवल समर्थन मिला बल्कि मेरठ के बाजारों में स्त्रियों द्वारा सैनिकों को अपनी अकर्मण्यता के लिए लज्जित किए जाने से इस क्रांति की गति और त्वरित हो गई।
सैनिकों ने कर लिया दिल्ली पर अधिकार
29 मार्च को मंगल पांडे ने जैसे ही बैरकपुर में विद्रोह किया, 10 मई तक दिल्ली चलो के नारे के साथ निकले सैनिकों ने 11 मई को दिल्ली पर अधिकार भी कर लिया। 1857 की क्रांति दिल्ली से मथुरा, कानपुर, इलाहाबाद, फतेहपुर, उत्तर प्रदेश और बिहार, झांसी और ग्वालियर अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह के रूप में फैलती चली गई। विदेशी इतिहासकारों ने इसे सैनिकों का विद्रोह कहा है। इन लेखकों ने असैनिक जनता के योगदान की या तो उपेक्षा की या इसे कुछ स्वार्थी लोगों की स्वार्थ परता का परिणाम मानकर महत्वहीन की संज्ञा दी।
ऐसे लेखकों का उद्देश्य संदिग्ध
ऐसे लेखकों का उद्देश्य न तो सत्य को उद्घाटित करना था, न ही निष्पक्ष सम्मति देना था। वे तो यह सिद्ध करने के प्रयत्न में लगे थे कि इस विशाल क्षेत्र में फैले विद्रोह का मूल कारण भारतीय शासकों की नीतियों में विभिन्न प्रकार की मूलभूत कमियां थीं, अंग्रेज अधिकारियों की कमजोरियां नहीं। उनके विचार से यह विद्रोह शासन में कुछ त्रुटियों का परिणाम था जिन्हें दूर करके साम्राज्य की जड़ें काफी मजबूत की जा सकती थीं।
एकजुटता से बौखलाए अंग्रेज
1857 की क्रांति भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में संभवत: सबसे महत्वपूर्ण घटना रही है। मेरठ से उठी मंगल पांडे की बलिदान की यह चिंगारी जिस प्रकार जंगल की आग के समान फैली, वह अंग्रेजों के इतने व्यापक स्तर पर विरोध की पहली घटना थी। साथ ही इस अवधि में विभिन्न वर्गों एवं धर्मों के लोगों ने जिस प्रकार की एकता का परिचय दिया वह अंग्रेजों के लिए भी आश्चर्य का विषय बन गई। वे लोग भारतीयों द्वारा इतने व्यापक स्तर पर समेकित विरोध की कल्पना भी नहीं कर सके थे।
केवल सैनिकों का रोष नहीं था यह विद्रोह
मेरठ से दिल्ली, कानपुर, लखनऊ, बरेली, झांसी आदि स्थानों पर जिस प्रकार लोगों ने अपनी जान की बाजी लगा दी उसे स्वार्थ सिद्धि की भावना का परिणाम या केवल कुछ सैनिकों के रोष की प्रतिकृति तो कदापि नहीं माना जा सकता। अंग्रेजों की नीतियों के प्रति असंतोष तथा अपनी सभ्यता एवं संस्कृति को बनाए रखने की प्रतिबद्धता ने सैनिकों तथा गैर सैनिकों, जमीदारों तथा किसानों, सभी को प्रेरणा प्रदान की।
संस्कृति की रक्षा का संघर्ष
इस तथ्य को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि राष्ट्र का निर्माण जनमानस की भावनाओं से उनकी निष्ठाओं से होता है। संस्थाएं और संरचनाएं बनती-बिगड़ती रहती हैं परंतु राष्ट्र की जनता उन संरचनाओं को किस रूप में देखती है और किस प्रकार से परस्पर जुड़ती है, यह राष्ट्र निर्माण के वस्तुत: सर्वाधिक महत्वपूर्ण प्रश्नों में से एक है। राष्ट्र के निर्माण में विभिन्न रीति के प्रतीकों, आख्यानों, चिन्हों और वृत्तांतों की महती भूमिका होती है।
आंदोलन से अधिक कथाओं ने पहुंचाया नुकसान
1857 के संघर्ष को न केवल भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम कहा जाता है अपितु भारतीय संस्कृति की रक्षा के लिए किया गया संघर्ष भी माना जाता है। इससे भी सामान्यत: कोई असहमति नहीं हो सकती है कि राष्ट्रीय आंदोलन की यह घटना सभी के लिए बलिदान और प्रेरणा का स्रोत और आदर्श बन गई। इस विद्रोह की कथाएं घर-घर कही जाने लगीं और भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग बन गईं जिन्होंने अंग्रेजों को विद्रोह से भी अधिक हानि पहुंचाई।
हरिबोल समुदाय ने गीतों से किया बखान
बुंदेलखंड के हरिबोल समुदाय ने अपनी कविताओं और गीतों के माध्यम से इस समय के नायकों की कथाएं घर-घर तक पहुंचाईं। राष्ट्रीय मुक्ति आंदोलन का प्रेरणा स्रोत बनने के साथ-साथ इस आंदोलन को भारत के ब्रिटिश शासन के विरुद्ध प्रथम संगठनात्मक विद्रोह की संज्ञा दी जानी चाहिए। ये भारत के एक राष्ट्र के रूप में पहला प्रदर्शन था, जिसकी गूंज लंदन की संसद के गलियारों तक पहुंची।
(लेखक महात्मा गांधी केंद्रीय विश्वविद्यालय, बिहार के कुलपति हैं)