बिहार विधान परिषद चुनाव ने बढ़ाई एनडीए की दुविधा
बिहार में विधान परिषद की दो सीटों पर 28 जनवरी को होने वाले उपचुनाव को लेकर सत्ता पक्ष के सामने दो तरह की दुविधा है। परिषद की खाली हुई दोनों सीटें भाजपा कोटे की हैं। इनमें से एक की कार्य अवधि करीब तीन साल और दूसरी मात्र डेढ़ साल है।
पटना, राज्य ब्यूरो । बिहार में विधान परिषद की दो सीटों पर 28 जनवरी को होने वाले उपचुनाव को लेकर सत्ता पक्ष के सामने दो तरह की दुविधा है। गठबंधन में दावेदारी पर मुहर लगाने में मशक्कत करनी पड़ सकती है। दूसरी दुविधा प्रावधान के अनुपालन में अड़चन को लेकर आ सकती है।
एनडीए में चार घटक दल हैं। खाली हुई सीटों की संख्या दो है। दोनों भाजपा कोटे की हैं। राज्य सरकार के अभी दो मंंत्री वीआइपी के मुकेश सहनी और जदयू के अशोक चौधरी किसी भी सदन के सदस्य नहीं हैं। छह महीने के भीतर उन्हें किसी न किसी सदन का सदस्य बनना जरूरी है। गठबंधन धर्म के तहत भाजपा ने अगर जदयू के साथ सीटों का बंटवारा एक-एक के हिसाब से कर लिया तो दोनों मंत्रियों के लिए उपचुनाव को मौके के रूप में देखा जा रहा है, लेकिन दिक्कत है कि दोनों सीटों का कार्यकाल बहुत कम बचा हुआ है। एक की अवधि पांच मई 2024 को खत्म हो रही है और दूसरी की 21 जुलाई 2022 को। एक करीब तीन साल और दूसरी मात्र डेढ़ साल।
मुकेश सहनी से भाजपा का पहले से करार
ऐसे में राजग नेतृत्व के सामने दुविधा है कि किसे कितनी अवधि की सीट दी जाए। मुकेश सहनी को विधान परिषद भेजने का भाजपा का करार चुनाव के पहले का है। किंतु माना जा रहा है कि वह पूरे कार्यकाल के लिए जाना चाहेंगे। ऐसे में उनके सामने एक ही विकल्प है कि वह राज्यपाल कोटे की पहले से खाली 12 सीटों की सूची बनने का इंतजार करें। इसी तरह अशोक चौधरी का मामला भी फंस सकता है।
अगर अभी नहीं तो बाद के लिए दोनों मंत्रियों के सामने एक ही विकल्प है। राज्यपाल कोटे की सीटों में दोनों को समायोजित किया जा सकता है, लेकिन तब सरकार के सामने दूसरी दुविधा की स्थिति आ सकती है। नैतिकता का भी सवाल होगा। उद्धव ठाकरे को मनोनीत करने के मामले में महाराष्ट्र कैबिनेट की अनुशंसा को वहां के राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने जिस आधार पर स्वीकार नहीं किया था, उस आधार पर बिहार सरकार भी विपक्ष के निशाने पर आ सकती है।