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बिहार ने हिंदी साहित्य, रंगमंच और सिनेमा में निभाई है अहम भूमिका, जानिए

बिहार का हिंदी के विकास में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आदिकाल से लेकर समकालीन साहित्य तक और खासकर रंगमंच और सिनेमा हर जगह बिहार ने अपनी अमिट छाप छोड़ी है।

By Kajal KumariEdited By: Published: Fri, 14 Sep 2018 10:48 AM (IST)Updated: Fri, 14 Sep 2018 08:13 PM (IST)
बिहार ने हिंदी साहित्य, रंगमंच और सिनेमा में निभाई है अहम भूमिका, जानिए
बिहार ने हिंदी साहित्य, रंगमंच और सिनेमा में निभाई है अहम भूमिका, जानिए

पटना [प्रमोद कुमार सिंह]। हिंदी के विकास और संवर्धन में बिहार का अवदान उल्लेखनीय रहा है। बिहार की साहित्यिक भूमि प्रारम्भ से ही उर्वर रही है। हर कालखंड में बिहार ने साहित्य के क्षेत्र में सार्थक हस्तक्षेप किया है। बिहार की साहित्यिक विरासत पर हम गर्व कर सकते हैं, वहीं वर्तमान भी काफी आश्वस्त करता दिख रहा है। हिंदी साहित्य हो या रंगमंच और सिनेमा बिहार ने हिंदी के विकास में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

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हिंदी रंगमंच और सिनेमा 

हिंदी सिनेमा खासकर हिंदी फिल्मी गीतों ने हिंदी के विकास में बड़ी भूमिका अदा की है। ये बात और है कि अब पहले जैसे गीत बहुत कम आ रहे हैं, जो लोगों के कंठहार हों। वहीं रंगमंच पर भी सार्थक उपस्थिति दिख रही है।

रामगोपाल बजाज, सतीश आनंद, संजय उपाध्याय, डॉ. उषा वर्मा, परवेज अख्तर खान, जावेद अख्तर खान, अनिरुद्ध पाठक, अभय सिन्हा, सुरेश कुमार हज्जू, हसन इमाम, अनीश अंकुर, मृत्युंजय प्रभाकर, जय प्रकाश, अजीत गांगुली, महबूब आलम, राजीव रंजन श्रीवास्तव रंगकर्म को मजबूती प्रदान कर हिंदी को समृद्ध कर रहे हैं। 

वहीं सिनेमा के क्षेत्र में भी इधर सार्थक प्रयोग होने लगे हैं। गीतकार शैलेन्द्र और संगीतकार अंजान, गिरीश रंजन से लेकर शत्रुघ्न सिन्हा, रामायण तिवारी और राकेश पांडेय तक कुछेक नाम ही थे। पर, प्रकाश झा ने जहां इसे गति दी वहीं विनोद अनुपम ने दिशा दिखायी। पंकज त्रिपाठी हों या अविनाश दास, क्रांति प्रकाश झा हों या नीतीन चन्द्रा, विजय कुमार हो या मनोज वाजपेयी या फिर गिरिधर झा, बिहारी बाबू की खींची लकीर को आगे ले जा रहे हैं। 

आदिकाल से आजतक साहित्य में बिहार का योगदान 

आदिकाल से लेकर समकालीन दौर के साहित्याकाश पर बिहार के कई चटख रंग साफ देखे जा सकते हैं। सिद्धों-नाथों की परम्परा हो या भक्त कवियों की कविताई, बिहार की धमक सब जगह है। आदिकवि सरहप्पा (ओडि़शा) का संबंध भी बिहार से रहा है। वे नालंदा विश्वविद्यालय से जुड़े रहे थे।

विद्यापति तो बिहार खासकर मिथिला के कंठहार ही हैं। भक्ति और प्रेम की जैसी अभिव्यक्ति विद्यापति में हुई है, उसके कायल सब हैं। बकौल मैनेजर पांडेय संत कवि कबीर का जन्म भले ही उत्तर प्रदेश में हुआ है, पर उनका कर्म स्थल भोजपुरी भाषी क्षेत्र ही रहा है। कबीर के दोहों में बिहार की बोलियों खासकर भोजपुरी के शब्दों की भरमार है। 

आधुनिक काल में भी सार्थक हस्तक्षेप 

वाराणसी में भारतेन्दु जब खड़ी बोली आंदोलन चला रहे थे तो उस अभियान के एक बड़े स्तम्भ थे अयोध्या प्रसाद खत्री, जो मुजफ्फरपुर के थे। भारतेन्दु जी और खत्री जी के बीच बेहतर संवाद से खड़ी बोली ब्रजभाषा के केंचुल से बाहर निकल पायी। खड़ी बोली को खड़ा करने में खत्री जी का योगदान अप्रतिम है। आरा के सदल मिश्र की हिन्दी सेवा भी उल्लेखनीय है। 

प्रेमचंद और आचार्य शिवपूजन सहाय के बीच संवाद का ही नतीजा था कि प्रेमचंद ने शिवजी से 'गबन' की पांडुलिपि की जांच करायी थी। गजलगो प्रेम किरण बताते हैं कि  हरिवंश राय बच्चन जब पटना आए थे तो प्रफुल्ल ओझा 'मुक्त' के यहां ठहरे थे। रात में 'मधुशाला' के बारे में मुक्त जी को बताया। मुक्त जी रातभर में पूरी पांडुलिपि पढ़ गए और सुबह बच्चन जी के संकोच को दूर करते हुए इसकी प्रशंसा की थी। यही छपवाने का आग्रह भी किया था। इसके बाद मधुशाला से पाठकों का साक्षात्कार हुआ । 

हिन्दी में दलित लेखन और बिहार 

महाराष्ट्र में भले ही बहुतायत में दलित लेखन हुआ, पर बिहार के हीरा डोम पहले हिन्दी दलित कवि के रूप में जाने जाते हैं। उनकी कविता 'अछूत की शिकायत' दरअसल एक दलित की पीड़ा का समाज के साथ संवाद ही तो है। यह बात जरूर है कि यह कविता प्रतिरोध के स्वर को मुखर करती है। यह स्वर आज भी बुद्ध शरण हंस, रमाशंकर आर्य, मुसाफिर बैठा, अनुज लुगुन के लेखन से विस्तार पा रहा है।

दिनकर और नेपाली का राष्ट्रीय भावबोध 

उत्तर छायावाद में भी बिहार की धमक अखिल भारतीयता का पर्याय बनी। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह 'दिनकरÓ ने हिंदी साहित्य को एक नयी गरिमा प्रदान की। ओज, शौर्य और फिर बाद में प्रेम को अपनी कविताओं में शीर्ष पर पहुंचाया। एक तरफ रश्मिरथी, कुरुक्षेत्र, हिमालय और हुंकार जैसी रचनाएं तो दूसरी तरफ उर्वशी जैसी रचना। इसी तरह 'वन मैन आर्मी' गोपाल सिंह 'नेपाली' अपने गीतों में हुंकार भर रहे थे। राष्ट्रीय भावबोध को ओजस्वी स्वर प्रदान कर रहे थे। 

प्रगतिवाद में बाबा नागार्जुन 

प्रगतिवाद में बिहार का हस्तक्षेप बाबा नागार्जुन के रूप में देखने को मिलता है। साहित्य और समाज के प्रति इनकी प्रतिबद्धता अपने अक्खड़ अंदाज में मौजूद है। 'अकाल और उसके बाद' हो या फिर इंदुजी, इंदुजी क्या हुआ आपको... जैसी पंक्ति से इंदिरा गांधी जैसी शख्स पर प्रहार करने का मद्दा, यह बाबा में ही दिखता है। दरअसल, बाबा जनता की भाषा में जनता की बात करते हैं।

नकेनवाद और उसके बाद 

बिहार से ही शुरू नकेनवाद के प्रणेताओं नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार और नरेश का प्रपद्य भले ही व्यापक विस्तार न पा सका, पर यह अपने आप में अनूठा था। वहीं अकविता के दौर के बड़े कवि हैं राजकमल चौधरी, जो बिहार के ही थे। 

जानकी वल्लभ शास्त्री हों या रामवृक्ष बेनीपुरी या फिर जीवन क्या है झरना है..फेम आरसी प्रसाद सिंह या हिमांशु श्रीवास्तव (लोहे के पंख) सबने हिन्दी साहित्य की जमीन को समृद्ध किया। रधुवीर नारायण के सुन्दर सुभूमि भईया...आज भी लोगों की जुबान पर है। 

हिंदी साहित्य की विविध विधाओं में बिहार 

आधुनिक हिंदी साहित्य में सारी विधाएं बिहार में बेहतर स्थिति में दिखती हैं। आलोचना में सुरेन्द्र चौधरी, मैनेजर पांडेय, खगेन्द्र ठाकुर, नंद किशोर नवल, डॉ. रामवचन राय, राम निहाल गुंजन, रेवती रमण, गोपेश्वर सिंह, देवेन्द्र चौबे, कमलेश वर्मा, डॉ. शिवनारायण से लेकर युवा आशुतोष पार्थेश्वर तक की रचनाशीलता को हिन्दी साहित्य में रेखांकित किया जाता है। 

कविता के क्षेत्र में 'नये इलाके में' के कवि अरुण कमल, 'दुनिया रोज बनती है' के कवि आलोकधन्वा, 'शासनाध्यक्ष हंस रहा है' के कवि और बिहार गीत के रचयिता सत्यनारायण, 'नीम रोशनी में' के कवि मदन कश्यप, 'गंगा तट पर' के कवि ज्ञानेन्द्रपति (अब झारखंड) से लेकर नचिकेता, शांति जैन, सुभद्रा वीरेन्द्र, शांति सुमन (सभी नवगीतकार) हों या रश्मिरेखा, पूनम सिंह, कुमार नयन, अनिल विभाकर, डॉ. विनय कुमार, हरेन्द्र विद्यार्थी या फिर युवा कवियों कुमार मुकुल, रमेश ऋतंभर, संजय कुंदन,  पंकज चौधरी, मुसाफिर बैठा, श्रीधर करुणानिधि, निवेदिता, नताशा, भावना, सुनीता गुप्ता, मुकेश प्रत्युष, राज किशोर राजन, राकेश रंजन, शहंशाह आलम और शशांक शेखर तक कई नाम हैं, जो कविता की जमीन को बचाए हुए हैं।

कथा साहित्य और बिहार 

गद्य में भी बिहार के फणीश्वर नाथ रेणु और अनुप लाल मंडल ने अपनी गहरी छाप छोड़ी। 'मैला आंचल' जैसे उपन्यास और 'मारे गए गुलफाम' जिसपर 'तीसरी कसम' फिल्म बनी, ने आंचलिकता को राष्ट्रव्यापी बनाया।

आज के कथा साहित्य में उषा किरण खान, प्रेम कुमार मणि, कर्मेन्दु शिशिर, जाबिर हुसेन, रामधारी सिंह दिवाकर, चंद्र प्रकाश जयसवाल, ऋषीकेश सुलभ, नीरज सिंह, मिथिलेश्वर, शैवाल, नंद किशोर नंदन, संतोष दीक्षित, राणा प्रताप, अवधेश प्रीत, नरेन, आशा प्रभात, शिवदयाल, संजय सहाय, पूनम सिंह, नीलिमा सिन्हा, शमोएल अहमद, दुर्वा सहाय, नीलाक्षी सिंह का योगदान सराहनीय है। 

भाषा का उन्नयन 

भाषा के क्षेत्र में निशांतकेतु जी, डॉ. बलराम तिवारी, राजेन्द्र प्रसाद सिंह और शिवचंद्र सिंह तक महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। 

ये भी कर रहे योगदान 

हिंदी साहित्य के विकास में सभी विधाओं में बिहार की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। नयी-पुरानी पीढ़ी इसे धार देने में लगी हुई है। पुराने लोगों में ब्रज कुमार पांडेय, केदार पांडेय, प्रभात सरसिज, प्रेम किरण, शिववंश पांडेय, अनिल सुलभ, अनंत सिंह तो नये लोगों में डॉ. दीपक राय, अरुण नारायण, पंखुरी सिन्हा, हरे प्रकाश उपाध्याय, प्रेमरंजन अनिमेष, बद्री नारायण, सुधीर सुमन, राकेश प्रियदर्शी जैसे अनेक लोग अपनी साहित्यिक उर्जा से हिन्दी को समृद्ध करने में अपना योगदान दे रहे हैं। ऐसे में हिन्दी के बेहतर भविष्य की आशा तो की ही जा सकती है।

बिहार से प्रकाशित महत्वपूर्ण पत्रिकाएं

वैसे तो पत्रिकाओं के लिए बिहार में आर्थिक जमीन सुकून लायक नहीं है, पर छोटे-बड़े हस्तक्षेप होते रहे हैं। अर्थाभाव में भी कई महत्वपूर्ण पत्रिकाएं निकल रही हैं। यथा- रोशनाई-सं.- डॉ. दीपक कुमार राय, निरंजना-संपादक नीलिमा सिंह व अरुण नारायण, कथान्तर -सं.-राणा प्रताप।

वहीं परिकथा, जनपथ, सामयिक परिवेश,  समकालीन जनमत, सर्जना और रंग अभियान आदि पत्रिकाएं भी हिंदी के विकास को गति देने में लगी हुई हैं। हालांकि बिहार से बाहर बिहार के ही तीन लोग तीन बड़ी पत्रिकाएं निकाल रहे हैं। ये हैं-हंस-संजय सहाय, मन्तव्य-हरे प्रकाश उपाध्याय और पाखी-प्रेम भारद्वाज। ऐसे में हिन्दी के विकास में बिहार आज भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दे रहा है।


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