बिहार चुनाव : समय के साथ सीमांचल में बदला है वोट का रुख
आजादी के बाद लंबे समय तक जिस सीमांचल पर कांग्रेस का कब्जा था और माना जाता था कि सीमांचल का कोर वोटर कांग्रेस के साथ है, वहां की राजनीतिक हवा अब उल्टी दिशा में बह रही है।
पटना [सुनील राज]। आजादी के बाद लंबे समय तक जिस सीमांचल पर कांग्रेस का कब्जा था और माना जाता था कि सीमांचल का कोर वोटर कांग्रेस के साथ है, वहां की राजनीतिक हवा अब उल्टी दिशा में बह रही है।
2010 के विधानसभा चुनाव में भाजपा-जदयू ने गठबंधन में चुनाव लड़ा था और सीमांचल की 24 में से 17 सीटों पर जीत दर्ज कराई थी, लेकिन वर्तमान में राजनीतिक समीकरण पूरी तरह से बदले हुए हैं।
सीमांचल इलाके में प्रधानमंत्री की धुआंधार सभाएं इस बात का इशारा है कि जदयू के साथ 17 साल पुराना गठबंधन टूटने के बाद भाजपा के लिए सीमांचल नाक की लड़ाई है। दूसरी ओर महागठबंधन के नेता भी सीमांचल में कोई कोस कसर नहीं रहने देना चाहते हैं। जदयू-राजद और कांग्रेस भाजपा को सीमांचल में घेरने की पूरी कोशिश में हैं।
महागठबंधन नेताओं का मानना है कि सीमांचल का कोर वोटर उसके साथ खड़ा है, पिछले चुनाव में भले ही वोटर भाजपा के तरफ मुड़ गया था, लेकिन अब राजनीतिक स्थितियां पूरी तरह से बदल चुकी हैं।
संभवत: ऐसे ही कारणों से सेक्युलरिज्म के नाम पर राजद, लोजपा और जदयू भी अल्पसंख्यक वोटों को लुभाने के प्रयास में लगे हैं।
सीमांचल की वर्तमान स्थिति जानने से पहले यह जानना जरूरी है कि इलाके की राजनीतिक और भौगोलिक स्थिति कैसी रही है। वर्ष 1952 से लेकर 1967 तक सीमांचल के इलाके में कांग्रेस का ही वर्चस्व हुआ करता था।
उस समय के सीमांचल की 23 सीटों में से 21 कांग्रेस के कब्जे में हुआ करती थीं। इसका बड़ा कारण था मुसलमानों का बड़ी आबादी का कांग्रेस के साथ खड़ा होना, पर बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद के सत्ता में आते ही सीमांचल के मुस्लिम मतदाताओं का एक बड़ा तबका कांग्रेस का साथ छोड़ राजद से जुड़ गया।
लालू का करिश्मा यहां लंबे समय तक नहीं चला।
लालू की मौजूदगी के बाद भी भाजपा भी यहां समय के हिसाब से यहां मजबूत होती गई। भाजपा की इस इलाके में पकड़ का अंदाजा 1999 के लोकसभा चुनाव से लगाया जा सकता है। भाजपा ने 1999 के चुनाव में सीमांचल की चारो लोकसभा सीटों पर अपना कब्जा जमा लिया था, परंतु 2004 आते-आते माहौल थोड़ा बदला और किशनगंज की सीट पर राजद ने कब्जा जमा लिया और तस्लीमुद्दीन यहां से सांसद हो गए।
2009 में एनडीए का हवाला देकर जदयू ने किशनगंज सीट भाजपा से ले ली, जदयू के सिंबल पर महमूद अशरफ को चुनाव लड़ाया, परंतु जदयू यहां से चुनाव जीत नहीं सका। जानकार बताते हैं कि सुरजापुरी मुसलमानों के वोटों का धु्रवीकरण होने के कारण कांग्रेस प्रत्याशी मौलाना असरारूल हक कासमी ने यहां से बाजी मार ली।
पिछले लोकसभा चुनाव में भी नरेंद्र मोदी की लहर के बाद भी सीमांचल में भाजपा कोई करिश्मा नहीं दिखा पाई। इतना ही नहीं पड़ोसी भागलपुर की सीट तक भाजपा के हाथों से जाती रही।
इससे पहले परिसीमन के बाद हुए 2010 के चुनाव में सीमांचल के चार जिलों यथा किशनगंज, अररिया, पूर्णिया और कटिहार में कुल 24 विधानसभा क्षेत्र में हुए भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी।
भाजपा को सीमांचल में 13 सीटों पर विजयी मिली, जबकि उस वक्त उसकी सहयोगी रहे जदयू को चार सीटें मिली थीं। इन दो दलों के अलावा कांग्रेस को तीन, लोक जनशक्ति पार्टी को दो तथा राजद और निर्दलीय को एक-एक सीट मिली थी।
अब यहां पिछले विधानसभा चुनाव वाली बात नहीं। भाजपा के साथ गठबंधन में शामिल रहा जदयू इस बार कांग्रेस-राजद के साथ चुनाव मैदान में है। दूसरी ओर लोजपा और 'हम' सेक्युलर भाजपा के साथ चुनाव मैदान में हैं।
दोनों ओर से जीत के लिए युद्धस्तर पर प्रयास हो चुके हैं अब बस वोट का इंतजार है। देखना यह होगा के उल्टी दिशा में बह रही हवा में सीमांचल और उसका कोर वोटर किसके साथ जाएगा।