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Bihar Chunav 2020 Results: यह मिथ टूटा कि पार्टियों के खूंटे से बंधी हैं जातियां, जबरन थोपे गए उम्मीदवार को नहीं किया स्वीकार

बिहार के रिजल्ट ने यह मिथ तोड़ा कि राज्य की सभी जातियां किसी न किसी राजनीतिक दल के खूंटे से बंधी हुई हैं। इतनी मजबूती से कि इंच भर इधर उधर न हिलें। सच यह है कि जातियों ने अपने हिसाब से मतदान किया।

By Akshay PandeyEdited By: Published: Thu, 12 Nov 2020 04:59 PM (IST)Updated: Fri, 13 Nov 2020 02:06 PM (IST)
Bihar Chunav 2020 Results: यह मिथ टूटा कि पार्टियों के खूंटे से बंधी हैं जातियां, जबरन थोपे गए उम्मीदवार को नहीं किया स्वीकार
बिहार विधानसभा का चुनाव परिणाम इसबार कई मायनों में अलग रहा।

अरुण अशेष, पटना। विधानसभा चुनाव में यह मिथ टूटा कि राज्य की सभी जातियां किसी न किसी राजनीतिक दल के खूंटे से बंधी हुई हैं। इतनी मजबूती से कि इंच भर इधर उधर न हिलें। सच यह है कि जातियों ने अपने हिसाब से मतदान किया। यह उम्मीदवार की जीत की संभावना को देखकर तय किया। मसलन, अति पिछड़ा बहुल लौकहा विधानसभा क्षेत्र में जदयू के उम्मीदवार लक्ष्मेश्वर राय हार गए। राजद के भरत मंडल की जीत हुई। दोनों अति पिछड़ी बिरादरी के हैं। बगल के फुलपरास में जदयू उम्मीदवार शीला मंडल चुनाव जीत गईं। अति पिछड़ों ने इस क्षेत्र में एकमुश्त वोट दिया। हां, यादवों ने यहां पूरी तरह कांग्रेस उम्मीदवार का साथ दिया। हालांकि ऐसा सभी क्षेत्रों में नहीं हुआ। 

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राजद का माय पर नहीं रहा एकाधिकार

राजद के माय समीकरण का हाल कुछ और बुरा रहा। सीमांचल में एआइएमआइएम की कामयाबी यह बताती है कि राजद का माय पर एकाधिकार नहीं रहा। इस क्षेत्र के मुसलमानों ने राजद को दूसरे नंबर पर रखा। प्रतिक्रिया में यादवों ने भी भाजपा या जदयू को स्वीकार कर लिया। जहां प्रतिक्रिया नहीं हुई, उन क्षेत्रों में भी माय समीकरण से जुड़े लोगों की अपनी प्राथमिकताएं थीं। सुपौल में जदयू के बिजेंद्र प्रसाद यादव 30 हजार से अधिक वोटों के अंतर से जीते। महागठबंधन की ओर से कांग्रेस के मिन्न्त रहमानी खड़े थे। कहने की जरूरत नहीं कि रहमानी को माय का पूरा साथ नहीं मिला। 

बछवाड़ा में दावे की अनदेखी

इस सीट पर माय समीकरण अगर बुरी तरह बिखरा तो उसकी वजह भी थी। कांग्रेस के विधायक रामदेव राय के निधन के बाद उनके पुत्र गरीबदास का मजबूत दावा बनता था। गठबंधन में यह सीट भाकपा के हिस्से चली गई। गरीबदास निर्दलीय खड़े हो गए। वोटों का हिसाब रहा: भाकपा 53808, गरीबदास-39648 और भाजपा-54545। बाढ़ में वोटों का हिसाब देखिए: कांग्रेस 38993, भाजपा 49077 और निर्दलीय कर्णवीर सिंह यादव-38369।

साधुमय हो गया समीकरण

गोपालगंज में बसपा के अनिरुद्ध यादव ऊर्फ साधु यादव बसपा टिकट पर लड़ रहे थे। उन्हें 40696, कांग्रेस को 36201 और भाजपा को 77337 वोट मिला। भाजपा की जीत हुई। कोई कल्पना नहीं कर सकता है कि साधु यादव को भाजपा या जदयू के समर्थकों ने वोट दिया होगा। बसपा के वोटों में बड़ी हिस्सेदारी माय समीकरण की ही रही। 

पारू में शंकर राय

पारू विधानसभा सीट कांग्रेस के खाते में गई थी। राजद के शंकर राय गंभीर दावेदार थे। अंतिम समय में उनका दावा खारिज कर दिया गया। वे पिछली बार भी उम्मीदवार थे। निर्दलीय खड़े हुए तो 62370 वोट मिला। कांग्रेस के उम्मीदवार 14 हजार वोटों पर सिमट गए। भाजपा के अशोक कुमार सिंह 77 हजार से अधिक वोट लेकर चौथी बार जीत गए।

कहलगांव में पवन यादव

कांग्रेस के दिग्गज नेता सदानंद सिंह की सीट कहलगांव से उनके पुत्र शुभानंद चुनाव लड़ रहे थे। सिंह खुद नौ बार इस सीट का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। मुकाबले के भाजपा उम्मीदवार पवन कुमार यादव को एक लाख 15 हजार से अधिक वोट मिला। कांग्रेस 73 हजार वोटों पर सिमट गई। एनडीए में यह सीट जदयू के हिस्से में रहती थी। इस क्षेत्र में भाजपा का जनाधार इतना बड़़ा नहीं है कि वह इतना अधिक वोट जोड़ सके। 

कांग्रेस की वापसी

पूरे चुनाव में यह प्रचार खूब जोर से हुआ कि कांग्रेस के पुराने आधार की वापसी हो गई है। मतलब ब्राह्मण मुस्लिम और दलित कांग्रेस के साथ जुड़ गए। यह भी मिथ ही साबित हुआ। महागठबंधन के दूसरे दलों की बात छोड़ दें, ब्राह्मणों ने एनडीए की तुलना में कांग्रेस को वोट देना वाजिब नहीं समझा। उदाहरण मिथिलांचल की फुलपरास, बेनीपट्टी और बेनीपुर जैसी सीटें हो सकती हैं, जहां इस बिरादरी के वोटरों ने कांग्रेस की तुलना में एनडीए उम्मीदवारों को वरीयता दी। 


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