जाति, कुल और क्षेत्र की सीमाओं से परे हनुमान जी के बारे में सबकुछ जानिए,यह लेख जरूर पढ़ें
अशोक वाटिका में सीताजी को परिचय देते हुए हनुमानजी ने कहा है कि माल्यवान् पर्वत पर महाकपि केसरी निवास करते हैं और वे मेरे पिता हैं- पिता मम महाकपिः।
पटना, आचार्य किशोर कुणाल। आज देश में हर हिंदू-हृदय में विराजमान हनुमानजी को किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। फिर भी, आज उनके परिचय पर अनेक वक्तव्य आ रहे हैं। यह सवाल तब पैदा हुआ, जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने हनुमान को राजस्थान की एक चुनावी सभा में दलित बताया, वहीं छत्तीसगढ़ के भाजपा नेता नंदकुमार साय ने उन्हें आदिवासी बताया। इस लेख में उन्हीं बातें को समाधान किया गया है।
अशोक वाटिका में सीताजी को अपना परिचय देते हुए उन्होंने कहा है कि माल्यवान् पर्वत पर महाकपि केसरी निवास करते हैं और वे मेरे पिता हैं- पिता मम महाकपिः। उनके यहाँ मेरा जन्म पवन देव की प्रेरणा से हुआ और जगत् में अपने कर्मों के आधार पर हनुमान् नाम से विख्यात हूँ-
यस्याहं हरिणः क्षेत्रे जातो वातेन मैथिलि।
हनूमानिति विख्यातो लोको स्वेनैव कर्मणा।। (सुन्दरकाण्ड, 35, 83)
रावण को अपना परिचय देते हुए उन्होंने यह गर्वोक्ति की-
दासोऽहं कोसलेन्द्रस्य रामस्याक्लिष्टकर्मणः।
हनुमान् शत्रुसैन्यानां निहन्ता मारुतात्मजः।। (सुन्दरकाण्ड)
मैं भगवान् श्रीराम का दास हूँ, मैं पवनपुत्र हूँ, हनुमान् मेरा नाम है और मेरा काम शत्रुओं की सेनाओं का संहार करना है। इसके अतिरिक्त हनुमानजी का परिचय रुद्रावतार के रूप में प्रचलित है। महाभागवत-पुराण तथा अन्य अनेक ग्रन्थों में यह आया है कि शिवजी ने विष्णु भगवान् से कहा था कि आप जब रावण के संहार के लिए राम-रूप में अवतरित होंगे, तो मैं पवनात्मज के रूप में आपकी सहायता के लिए आऊँगा।
वाल्मीकि-रामायण एवं अन्य परवर्ती ग्रन्थों में हनुमान्, सुग्रीव आदि सब वानर-रूप में वर्णित हैं। अब प्रश्न उठता है कि ये सचमुच वानर थे या मानव थे। इस प्रश्न के उत्तर में एक बृहद् ग्रन्थ लिखा जा सकता है। किन्तु यहाँ रामकथा के सबसे उद्भट विद्वान् फादर कामिल बुल्के का निष्कर्ष उद्धृत करता हूँ। उनकी पुस्तक “रामकथा” एक कालजयी रचना है।
उसमें उन्होंने लिखा है-''रामायण के वानर-मनुष्यों की तरह बुद्धि-सम्पन्न हैं, मानवीय भाषा बोलते हैं, कपड़े पहनते हैं, घरों में निवास करते हैं, विवाह-संस्कार को मान्यता देते हैं और राजा के शासन के अधीन रहते हैं। इससे स्पष्ट है कि कवि की दृष्टि में वे निरे वानर नहीं हैं। उनकी अपनी-अपनी संस्कृति और सामाजिक व्यवस्था है। वास्तव में वे वानर ऋक्ष आदि जनजातियाँ थे। ... हनुमान् की जन्मकथा की तरह उनके चरित्र-चित्रण का विकास भी अत्यन्त रोचक है। वह वानर-गोत्रीय आदिवासी थे।'' (अनु0 110 और 680)
इसमें कोई सन्देह नहीं कि वानर मनुष्य थे, आदिवासी थे और जनजाति के थे। अब प्रश्न उठता है कि क्या वे दलित थे? दलित शब्द नवप्रचलित शब्द है, अतः वानरों एवं हनुमानजी को दलित श्रेणी में रखना उचित नहीं होगा, किन्तु समाज में जो विपन्न, वंचित वर्ग रहे हैं उनमें आदिवासियों को रखा जा सकता है। भागवत से बढ़कर भक्ति का अन्य कोई ग्रन्थ नहीं है, उसमें स्वयं वानरगण भगवान् श्रीराम के प्रति आभार एवं श्रद्धा व्यक्त करते हुए कहते हैं-
न जन्म नूनं महतो न सौभगं
न वाघ्न बुद्धिर्नाकृतिस्तोषहेतुः।
तैर्यद्विसृष्टानपि नो वनौकस-
श्चकार सख्ये बत लक्ष्मणाग्रजः।। (5.19.7)
भगवान् की भक्ति के लिए न तो उच्च कुल में जन्म, न सुन्दरता, न वाणी, न बुद्धि और न ही आकृति प्रभु की प्रसन्नता का कारण है; क्योंकि भगवान् श्रीराम ने इन सभी गुणों से रहित हम वनवासियों के साथ मैत्री की।
भागवत में वानर स्वयं स्वीकार करते हैं कि उनका जन्म उच्च कुल में नहीं हुआ है। गोस्वामी तुलसीदासजी स्वयं विनय पत्रिका में लिखते हैं-
असुभ होइ जिन्हके सुमिरे ते बानर रीछ बिकारी।
बेद-बिदित पावन किये तो सब, महिमा नाथ तुम्हारी।। (166वाँ पद)
कौन सुभग सुसील बानर, जिन्हहिं सुमिरन हानि।
किये तो सब सखा, पूजे भवन अपने आनि।। (215 वाँ पद)
"रामचरितमानस के सुन्दरकाण्ड में विभीषण के सामने स्वयं हनुमानजी कहते हैं"
कहहु कवन मैं परम कुलीना। कपि चंचल सबहीं बिधि हीना॥
प्रात लेइ जो नाम हमारा। तेहि दिन ताहि न मिलै अहारा॥4॥
दोहा: अस मैं अधम सखा सुनु मोहू पर रघुबीर।
कीन्हीं कृपा सुमिरि गुन भरे बिलोचन नीर॥7॥
इससे स्पष्ट है कि हनुमानजी अपने को विशिष्ट वर्ग का नहीं मानते थे। यह बात अलग है कि उनकी निःस्वार्थ सेवा, अनुपम भक्ति और अद्भुत पराक्रम के कारण उन्हें रामायण रूपी महामाला का रत्न माना गया है।
सीताजी से वार्तालाप किस भाषा में की जाये, इसपर हनुमानजी सोचते हैं कि मैं द्विज की भाँति संस्कृत में बात करता हूँ, तो सीताजी मुझे रावण समझकर डर जायेंगी, अतः ऐसी दशा में मुझे मनुष्यों की बोलचाल की जो भाषा है, उसमें बात करनी चाहिएः
यदि वाचं प्रदास्यामि द्विजातिरिव संस्कृताम्।
रावणं मन्यमाना मां सीता भीता भविष्यति।।
अवश्यमेव वक्तव्यं मानुषं वाक्यमर्थवत्।। (सुन्दर 30, 18)
कुछ प्रवचनकर्ता हनुमानजी को संस्कृत बोलने की क्षमता के आधार पर ब्राह्मण मानते हैं, किन्तु वहाँ साथ में रावण भी बैठा है। एक परम्परा के अनुसार महर्षि वाल्मीकि वर्तमान वाल्मीकि समाज के थे और रामायण के रचयिता थे, अतः प्राचीन काल में संस्कृत सम्भाषण सभी वर्गों में प्रचलित था।
अतः हर व्यक्ति या वर्ग को अधिकार है कि यदि किसी महापुरुष को वह अपना पूर्वज मानता है या कोई उसका समर्थन करता है, तो उसपर दूसरे वर्ग को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। रामकथा में जाति की उत्पत्ति पहली बार नहीं उठायी गयी है।
विप्ररूप धारण करके जब हनुमानजी रामजी से मिलने गये हैं और उन्होंने रामजी का नमन किया है, तो कैसे विप्र क्षत्रिय का नमन कर सकता है, इस पर सैकड़ों पृष्ठ लिखे गये हैं। किन्तु यह सबको स्वीकार्य होना चाहिए कि कोई महामानव जब राष्ट्रनायक हो जाता है, तो वह जाति, कुल, क्षेत्र सबकी सीमाओं से परे होकर देश और दुनिया का आराध्य हो जाता है।
अतुलितबलधामा, अप्रतिम प्रज्ञावान् हनुमान् से लेकर विश्ववंद्य महात्मा गाँधी तक यह चरितार्थ है और चरितार्थ होना चाहिए। हनुमानजी कौन हैं, इसका एकमात्र उत्तर है जो महामानव प्रत्येक हिन्दू के रोम-रोम में विद्यमान हैं; भारत और दक्षिण-पूर्वी एशिया के कण-कण में विराजमान हैं, वे अंजना-नन्दन हनुमान् हैं-
अञ्जनानन्दनं वीरं जानकीशोकनाशनम्।
कपीशमक्षहन्तारं वन्दे लङ्काभयङ्करम्।।
(लेखक आचार्य किशोर कुणाल सेवानिवृत भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी तथा संस्कृत अध्येता हैं। वे बिहार राज्य धार्मिक न्यास बोर्ड के अध्यक्ष हैं। वे पटना के महावीर मन्दिर न्यास के सचिव भी हैं। वे पटना के ज्ञान निकेतन नामक प्रसिद्ध विद्यालय के संस्थापक भी हैं )