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कृत्रिम बल्ब की रोशनी में गुम हुई दीये की लौ

मिट्टी के बर्तन कभी लोगों के जीने का मुख्य आधार हुआ करता था। आज भी विभिन्न संग्रहालया।

By JagranEdited By: Published: Mon, 29 Oct 2018 09:55 PM (IST)Updated: Mon, 29 Oct 2018 09:55 PM (IST)
कृत्रिम बल्ब की रोशनी में गुम हुई दीये की लौ
कृत्रिम बल्ब की रोशनी में गुम हुई दीये की लौ

नवादा। मिट्टी के बर्तन कभी लोगों के जीने का मुख्य आधार हुआ करता था। आज भी विभिन्न संग्रहालयों में पूर्व के बने बड़े-बड़े मिट्टी के वर्तन संरक्षित किए गए हैं। जिस पर समाज परिवर्तन का इतिहास लिखा गया है। आज भी हिन्दू धर्म के कई मुख्य त्योहारों में मिट्टी के बर्तन प्रयोग किए जाते है। परंतु आधुनिकता की इस चकाचौंध में मिट्टी के बर्तनों के खरीदार कमते जा रहे हैं, जिसके कारण इस व्यवसाय से जुड़े अधिकांश परिवार या तो अपना धंधा बदल दे रहे है, या पलायन को मजबूर हैं। एक समय था जब कुंभकार वर्ग के लोगों को दिपावली पर्व का खास इंतजार होता था। दीपावली पर्व पर मिट्टी के दीये की खूब बिक्री होती थी। इसके साथ ही घोड़कुल्ला में पूजे जाने वाले मिट्टी के बने किचेन के समान की भी बिक्री होती थी। परंतु अब सबकुछ बदल सा गया है। आधुनिक दौर में कृत्रिम बल्वों के प्रयोग से मिट्टी के दीये पर ग्रहण सा लग गया है। विभिन्न रंगों व डिजाइनों में उपलब्ध चाइनिज बल्ब वर्तमान समय में लोगों को खूब भाने लगा है। कुछ वर्षों से पर्व के मौके पर अधिकांश घरों व प्रतिष्ठिनों में दीये के स्थान पर चाइनिज बल्ब का प्रयोग किया जा रहा है। कुछ वषरें से पर्व के मौके पर अधिकाश घरों व प्रतिष्ठानों में दीये के स्थान पर चाइनिज बल्ब का प्रयोग किया जा रहा है। जिससे इससे जुड़े लोगों का व्यवसाय पर असर पड़ा है। लोगों के रोजी- रोटी में दिक्कतें आ रही है। हम अपने देश के लोगों के पेट पर लात मार रहे है। हम चाइनिज सामान खरीदकर चीन जैसे देश के व्यवसाय को बढावा दे रहें है। इससे हमारे देश की अर्थव्यवस्था पर इस पर्व में काफी असर दिखता रहा है। इसपर हमलोगों को अंकुश लगाना जरूरी है। हमें स्वदेशी वस्तुओं का इस्तेमाल करनी चाहिए। इससे हमारे देश को फायदा मिल सकता है। मिट्टी के दीये के पीछे कई वैज्ञानिक कारण बताए गए हैं। पीएचसी के डॉ. अभिषेक राज की मानें तो बरसात के दिनों में कई ¨हसक कीट उत्पन्न हो जाते हैं। जो कई गंभीर बीमारियों के वाहक होते है। दीपावली पर्व के दौरान दीपों की लौ में जलकर ये सारे कीट नष्ट हो जाते हैं, जिससे लोगों की स्वास्थ्य की रक्षा बीमारियों से होती है।

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कहते हैं इस धंधे से जुड़े लोग

- पहले पर्व के आते ही हमलोग दीपक एवं चुक्का कपटी बनाते थे। परंतु अब इसके खरीददार बहुत कम ही आते हैं। कृत्रिम बस्तुओं के उपयोग से मिट्टी के बर्तनों का महत्व कम गया है। अतिआवश्यक कार्य में ही खरीदारी की जाती है। इन परिस्थिति में मेहनत तो बर्बाद होता है। मिट्टी के बर्तनों को संग्रहित रखना भी काफी मुश्किल है।

संजय पंडित,पकरीबरावां।

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- अब के पीढ़ी इस धंधे में उतरना नहीं चाहते हैं, परंतु हम अब भी इस धंधे में लगे हैं। मेहनत के अनुसार मजदूरी नहीं मिल पाती है। चुनाव के समय नेताओं द्वारा कई तरह की मदद दिलाने का भरोसा दिलाया जाता है, परंतु आजतक इस धंधे से जुड़े लोगों के लिए सरकार द्वारा कोई सार्थक पहल नहीं की गई है।

बासुदेव पंडित, पकरीबरावां

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क्या कहते हैं उपभोक्ता

-मिट्टी के बर्तनों की भांति विभिन्न कंपनियों द्वारा कई प्रकार के समानों का निर्माण किया जाने लगा है। ये समान ठोस और टिकाउ होते हैं। विभिन्न रंगों में रंगे ये समान आर्कषक होते हैं।

अजय कुमार महतो, पकरीबरावां।

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-चाइनिज बल्ब आकर्षक होने के साथ-साथ सुविधाजनक होता है। परंतु पर्व में दीपों के उपयोग की खास परम्परा रही है। दीपों की लौ से जहां हानिकारक कीट नष्ट होते हैं, वहीं वातावरण को भी शुद्ध बनाती है।

राजेश कुमार, पोकसी, पकरीबरावां।


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