इस वन प्रक्षेत्र की महिला हस्तशिल्प कलाकारों के हाथों में होता जादू, इनके बनाए मुंज घास के सामान की दूर-दूर तक तक मांग
पश्चिम चंपारण जिला अंतर्गत रामनगर का वन और थारू बाहुल्य क्षेत्र की महिला कलाकार मुंज घास से कई उपयोगी सामान तैयार करती हैं। इनकी इस कला की पहुंच देर-दूर तक है।
पश्चिम चंपारण, [विभोर पांडेय]। पश्चिम चंपारण जिला अंतर्गत रामनगर का वन और थारू बाहुल्य क्षेत्र की महिला कलाकार अपने अनोखे हस्तशिल्प से घास में भी जान डाल देतीं हैं। वे इलाके में प्रचुर मात्रा में मौजूद मुंज घास को आधुनिक रंग में रंगीन बना देती हैं। फिर इसपर सुंदर कलाकृतियां सजा काफी आकर्षक बना देती हैं।
इस हस्तशिल्प में महिलाएं काफी सिद्धहस्त होती हैं। ये दुल्हन के लिए सिंदूर वाले डब्बे( सिंहोरा) के लिए मोना तैयार करती है। यहां का सिंहोरा अपने रंग-रूप के साथ नक्काशी से एक अलग खूबसूरती बिखेरता है। वही, सुहाग की निशानी के तौर पर मोना की उपयोगिता भी अधिक है। काफी दूर दूर से जरूरतमंद इसे लेने आते है। थरुहट की मोना और दउरा ससुराल में भी सभी दुल्हनों की शान बढ़ा देता हैं।
मुंज घास से तैयार मोना की काफी उपयोगिता
मुंज घास से तैयार मोना की उपयोगिता किसी सोने के गहने से कम नहीं है। इसमें जब सुंदरता जुड़ जाती है। तो इसकी कीमत और महत्व काफी बढ़ जाती है। महिलाएं इसमें ही अपना सिंदूर का डब्बा रखती है। एक शादी शुदा महिला के लिए जीवनपर्यंत उपयोगी है।
आधुनिक युग में आया बदलाव
प्रखंड के बकवा चंद्रौल गांव की मुंज घास कारीगर दुर्गा देवी, सीता देवी, फूलमती देवी, संजना देवी का कहना है कि वे दो तरह के मुंज के सामान का निर्माण करती हैं। पहला सामान्य रंग और डिजाइन से ऐसे समान तैयार करती है। इसमें मोना, दउरा, ढोकना आदि शामिल हैं। अमीर खरीदार इसके लिए ऊंची कीमत देते है। उनके लिए विशेष नक्काशी कर इनका निर्माण करती है। पड़ोसी देश नेपाल सहित कई देशों के खरीदार आते है। जो विदेश जाकर बसे है वे भी इसकी मांग खूब करते है। इसके बदले वे अच्छी कीमत देते हैं। आधुनिकता के बावजूद इनकी मांग जस की तस है।
समय और संयम से होता है निर्माण
बुनने में इन कारीगरों को तीन माह तक का लंबा समय लगता है। कारीगर बताती है कि इसे तैयार करने में एकाग्रता बहुत जरूरी है। नहीं तो उंगली भी कट जाती है। तैयार हो चुकी एक साधारण मोना की कीमत 1100 रुपये से आरंभ है। इससे सुंदर मोना तीन से चार चार हजार तक हाथों-हाथ बिकती है।
संरक्षण के अभाव में विलुप्त होने का खतरा
बखरी के सुधाकर उपाध्याय और आनंद शर्मा बताते है कि मुंज से तैयार सामान की मांग तो बहुत है। लेकिन इसके निर्माण में काफी समय खर्च होते है। इस लंबे समय तक घरेलू खर्च चलाना काफी मुश्किल होता है। नतीजा एक कारीगर चाहकर भी पूरा दिन इसमें नहीं लगा पाती है। अपनी रोजमर्रा की जरूरतों को जुटाने में वे मेहनत-मजदूरी भी करनी पड़ती है। सरकारी सहायता के अभाव में इन कारीगरों का इस काम से मोह भंग होने लगा है।
जीविका से मिल सकती सहायता
स संबंध में जीविका एरिया कॉॢडनेटर संतोष कुमार कहते हैं कि एसएचजी ग्रुपों के माध्यम से जीविका सहायता प्रदान करती है। इसके लिए मोना आदि का निर्माण कर रही कारीगरों को पहले अपना ग्रुप बनाना होगा। इसके बाद उनको सहायता राशि आसानी से मिलने लगेगी।