बिहार में ऐसी जगह जहां दिखती बंंगाली संस्कृति की झलक, जड़ बांग्लादेश में...दिल हिंदुस्तानी
बांग्लादेश से विस्थापित होकर आए 369 परिवार बिहार के बगहा में बसे हुए हैं। बंटवारे के बाद वर्ष 1956 1957 1962 और 1971 में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से बहुत से परिवार वहां से विस्थापित होकर यहां आए थे। दुर्गा पूजा और काली पूजा में यहां पर दिखता है उत्साह।
चौतरवा (पश्चिम चंपारण), जासं। बगहा पुलिस जिले में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से विस्थापित होकर आए 369 परिवार आज भारत के विकास में योगदान दे रहे हैं। वे यहां पूरी तरह से रच-बस गए हैं, लेकिन आज भी अपनी बंगाली संस्कृति को जिंदा रखे हुए हैं। पर्व-त्योहार उसी तरह से मनाते हैं। देश के बंटवारे के बाद वर्ष 1956, 1957, 1962 और 1971 में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से बहुत से परिवार वहां से विस्थापित होकर भारत आए। इनमें से बहुत से लोगों को बेतिया में बने शरणार्थी शिविर में रखा गया। फिर केंद्र सरकार ने बिहार सरकार से भूमि आवंटित कराया। बगहा पुलिस जिले के चौतरवा,परसौनी, सेमरा, भेड़िहारी, दुधौरा व तीन फेडिया में 369 परिवारों को बसाया गया।
दिल में देशभक्ति का जज्बा
शरणार्थी कालोनी के लोग बताते हैं कि हमारी तीन पीढ़ी गुजर गई। युवा पीढ़ी को बताते हैं कि उनकी जड़ें बांग्लादेश से जुड़ी हैं। वे किन परिस्थितियों में यहां आए। भारत हमारी आत्मा है, दिल में देशभक्ति का जज्बा है। इसके बाद भी निराशाजनक स्थिति तब उत्पन्न हो जाती है, जब हमें अपनों के ही बीच खुद को देश का नागरिक साबित करना पड़ता है। हम लोग अपनी संस्कृति आज भी जिंदा रखे हुए हैं। दुर्गा पूजा, काली पूजा, लक्ष्मी पूजा, मंसा देवी व प्रमुख रूप से शीतला माई और विपत्तिनाशिनी की पूजा करते हैं। बंगाली समाज में मुंडन कराने की परंपरा नहीं है। उनका कहना है कि दुर्गा पूजा की तैयारी अभी से शुरू हो गई है।
विकास में अब भी बहुत पीछे
चौतरवा शरणार्थी कालोनी के 85 वर्षीय सुखरंजन हालदार व श्रीकांत हालदार (76) ने बताया कि यहां 142 परिवार आए थे। बसने के लिए सरकार ने चार एकड़ व 20 डिसमिल भूमि दी थी। साथ ही घर बनाने व खेती करने के लिए 1200 रुपये नकद मुहैया कराए गए थे। परसौनी के अमल कृष्ण गाइन ने बताया कि यहां 227 परिवार बसे। जिन्हें चार एकड़ व 25 डिसमिल भूमि व नकद 1290 रुपये प्रत्येक परिवार दिए गए थे। समय के साथ आवश्यकताएं बढ़ने लगीं। परिवार भी बढ़ने लगा। शिक्षा ग्रहण कर कुछ लोग नौकरी से जुड़े तो कुछ ने व्यवसाय का रास्ता चुना। सरकार ने मतदान में भाग लेने का अधिकार तो दिया, परंतु रैयती हक नहीं मिला है। इस कारण विकास में वे पीछे हैं। कुछ लोगों ने छोटे स्वरोजगार के रूप में बीड़ी बनाने, चटाई बुनने का काम शुरू किया। इससे किसी का समुचित विकास नहीं हो पाया।
रैयती हक के लिए संघर्ष
1993-94 में शरणार्थी समुदाय के लोग डाक्टर दिलीप कुमार के नेतृत्व में एकजुट हुए। अपनी तीन मांगें सरकार के समक्ष रखीं। रैयती हक, जाति प्रमाणपत्र व बांग्ला भाषा के शिक्षकों की बहाली को लेकर मांग उठी। कुछ मांगों पर सरकार ने गंभीरता दिखाई, लेकिन रैयती हक नहीं मिल पाया। यह मांग आज भी पूरी नहीं हो सकी। जाति प्रमाणपत्र कुछेक लोगों को ही मिला।
80 प्रतिशत लोग मजदूरी के सहारे
चुनाव लड़ने के अधिकार मिलने के चलते परसौनी शरणार्थी कालोनी की सरवानी देवी लगातार दो बार बगहा एक प्रखंड की प्रमुख बनीं। बांग्लादेश से आए परिवारों का कुनबा वर्तमान में पांच गुना हो गया है। आरक्षण का लाभ नहीं मिलने के कारण परिवार पिछड़ा हुआ है। आज भी 80 प्रतिशत लोग मजदूरी के सहारे ही गुजर-बसर कर रहे हैं। इन परिवारों की बेबसी पर न तो सरकार गंभीर है और न ही स्थानीय जनप्रतिनिधि।
अधिकारियों को पत्र लिखने का आश्वासन
बगहा दो के सीओ राजीव रंजन श्रीवास्तव ने बताया कि अगर किसी के नाम खुद की जमीन है। खतौनी में उसका नाम है तो उसे ही रैयती हक यानी मालिकाना हक मिलता है। अगर कोई लंबे समय से किसी जमीन पर काबिज है और खतौनी में उसका नाम नहीं है तो उसे रैयती हक नहीं मिलता है। बांग्लादेश से आए लोगों को रैयती हक मिले, इसके लिए अधिकारियों को पत्र लिखा जाएगा। बगहा एक के बीडीओ कुमार प्रशांत का कहना है कि शरणार्थियों को सरकार के निर्देशानुसार हर जरूरी सुविधाएं दी जा रही हैं। यदि निर्देश मिला तो अन्य उपाय किए जाएंगे।