दीपावली नहीं दीवारी मनाते थारू समुदाय के लोग
थारू जनजाति की विशेष परंपरा आज भी कायम, लक्ष्मी पूजन या आतिशबाजी नहीं करते, दीयराई के बाद सोहराई के दिन मांस-मछली की देते दावत।
मुजफ्फरपुर (जेएनएन)। पश्चिम चंपारण के बगहा में सटे भारत-नेपाल के तराई इलाके में बसे थारू जनजातियों की सांसों की डोर आज भी अपनी संस्कृति से जुड़ी है। सदियों से ये दीपावली को दीवारी के रूप में मनाते हैं। लक्ष्मी पूजन या आतिशबाजी नहीं करते। दीवारी के दिन बड़ी रोटी का कार्यक्रम होता है। अगले दिन सोहराई मनाते हैं, जिसमें मांस-मछली का दावत देते हैं। थारू जनजाति के महिला, पुरुष व बच्चे दीवारी मनाने की तैयारी में जुट गए हैं। दीवारी के लिए थारू खुद अपने हाथों से मिट्टी के दीये बनाते हैं।
नौरंगिया दोन के रामकृष्ण खतईत कहते हैं कि पहाड़ों में बसे होने के कारण यहां मिट्टी की अधिकता नहीं है। इसके बाद भी महिलाएं सुदूर इलाके से मिट्टी लाती हैं। खुद दीये बनाती हैं। अपने खेत से उत्पादित सरसों को बचाकर दीवारी के लिए रखती हैं। घर में खाना भी उसी तेल से बनता है। अधिक से अधिक प्राकृतिक चीजों का प्रयोग करते हैं।
बड़ी रोटी का कार्यक्रम
दीवारी के दिन बड़ी रोटी अर्थात खाने का कार्यक्रम होता है। इसमें निकट के संबंधी व परिवार के लोग शामिल होते हैं। तरह-तरह के पकवान बनते हैं। सभी एक साथ खाते हैं। ग्रामीण उमा प्रसाद, हेमराज पटवारी, राजकुमार महतो व महेश्वर काजी बताते हैं कि दीवारी दो दिनों का पर्व होता है। दीवारी के दिन को दीयराई भी कहते हैं। उसके दूसरे दिन सोहराई मनाते हैं। इस दिन हर घर में मांस-मछली और गोजा-पिट्ठा बनाने का रिवाज है। पशुओं को चावल के आटे का लेप लगाया जाता है। साथ ही कोहरा में हल्दी और नमक मिलाकर पालतू पशुओं को प्रसाद के रूप में खिलाते हैं। पहले सोहराई के दिन मवेशियों का एक खेल होता था। लेकिन, वन विभाग के नए कानून के कारण यह परंपरा बंद हो गई है।
अन्न, जल व अग्निदेव की पूजा
इस दिन थारू सबसे पहले रसोईघर में जाकर पश्चिम और उत्तर दिशा के कोने में मिट्टी के एक टीले पर दीप जलाते हैं, ताकि किचन में अन्न की कमी न हो। फिर कुआं या चापाकल पर दीया जलाते हैं। इसके बाद ब्रह्म स्थान और मंदिर में दीपोत्सव के बाद घर को दीप से जगमग करते हैं। अंत में दहरचंडी (अग्निदेव) के समक्ष दीप जलाकर गांव की सुरक्षा की मन्नत मांगते हैं। भारतीय थारू कल्याण महासंघ के अध्यक्ष दीपनारायण प्रसाद कहते हैं कि पश्चिमी सभ्यता व नियम-कानून के कारण रीति-रिवाज में धीरे-धीरे बदलाव आ रहा है। हालांकि अब भी कई परंपराएं कायम हैं। दीवारी को प्राकृतिक उत्पादनों के साथ मनाते हैं।