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मुजफ्फरपुर: नील के निशान दे रहे भय से स्वतंत्र होने की गवाही

चंपारण आंदोलन से पहले सर्वोत्तम खेती वाली जमीन पर जबरदस्ती कराई जाती थी नील की खेती। गांधी के सत्याग्रह ने दूर किया था भय सालभर में चंपारण खेती कानून ने दी थी रैयतों को आजादी। मड़वन में नील फैक्ट्री का भवन बन चुका है खंडहर।

By Ajit KumarEdited By: Published: Sun, 11 Apr 2021 03:21 PM (IST)Updated: Sun, 11 Apr 2021 03:21 PM (IST)
मुजफ्फरपुर: नील के निशान दे रहे भय से स्वतंत्र होने की गवाही
यह भवन आज भी इलाके के लोगों को प्रेरणा दे रहा कि अज्ञानता और भय ही गुलामी का कारण है।

मुजफ्फरपुर, [प्रेम शंकर मिश्रा]। सौ वर्षों से अधिक का समय बीत चुका है, जब किसानों का दर्द जानने महात्मा गांधी ने तिरहुत और चंपारण की धरती पर कदम रखा था। देश को पूर्ण आजादी भले ही 1947 में मिली, मगर इस धरती के किसानों ने इसका स्वाद 1918 में ही तब चख लिया था, जब जबरदस्ती नील की खेती करने की गुलामी खत्म हुई थी। उसके निशान आज भी कई जगहों पर मौजूद हैं। इनमें से एक मड़वन प्रखंड का बड़कागांव भी है। यहां खंडहर बन चुके भवन में आसपास के खेतों के अलावा कई अन्य जगहों से फसल मंगाकर नील तैयार किया जाता था। यह भवन आज भी इलाके के लोगों को प्रेरणा दे रहा कि अज्ञानता और भय ही गुलामी का कारण है।

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ग्रामीण 65 वर्षीय कौशल किशोर शुक्ला के दादा भी नील की खेती के लिए मजबूर किए गए थे। वे कहते हैं कि जो भी खेत सर्वोत्तम होता था, अंग्रेज उसमें ही नील की खेती कराते थे। रैयत फसल के लिए खेत तैयार करती थी, मगर अंग्रेजों के मुंशी और मैनेजर इसमें नील लगवा देते थे। इससे वे नील पर ही आश्रित हो जाते थे। तिनकठिया (तीन में से एक क_ा में नील की खेती) ने पहले ही किसानों की कमर तोड़ दी थी।

किसानों की पीड़ा जान 10 अप्रैल 1917 को यहां पहुंचे बापू तिरहुत और चंपारण की भौगोलिक और राजनीतिक पृष्ठभूमि से अनभिज्ञ थे। यहां आने के बाद उन्हेंं इस मिट्टी से लगाव हो गया। राजकुमार शुक्ल से एक से दो दिन ठहरने की शर्त पर यहां पहुंचे और किसानों को न्याय दिलाने तक ठहर गए। इतिहासकार डॉ. भोजनंदन प्रसाद सिंह बताते हैं कि स्वतंत्रता संग्राम में मुजफ्फरपुर क्रांतिकारियों का बड़ा केंद्र था। खुदीराम बोस जैसे क्रांतिकारियों की यह भूमि थी, लेकिन 1917 में गांधीजी के आगमन के बाद यहां के आंदोलन का रुख बदल गया था। उन्होंने लोगों को बताया कि सत्याग्रह भी एक माध्यम है स्वतंत्रता पाने का। भय और अज्ञानता गुलामी की जड़ है। पहले इसे दूर करना होगा। इसमें वे सफल भी रहे। चार मार्च 1918 को चंपारण खेती कानून की मंजूरी आजादी की पहली कड़ी थी।

ऐतिहासिक भवन का अस्तित्व : बड़कागांव में नील की फैक्ट्री का भवन खंडहर के रूप मेें है, जबकि निलहों की कोठी का अस्तित्व समाप्त हो रहा। साथ ही इस जमीन पर अतिक्रमण भी हो रहा है। इस भवन को संजोने की जरूरत ग्रामीण महसूस कर रहे हैं। एसडीओ पश्चिमी डॉ. एके दास का कहना है कि स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े स्थलों और भवनों को संरक्षित किया जाना है। अगर वहां अतिक्रमण है या उसका अस्तित्व समाप्त हो रहा तो बचाने का प्रयास किया जाएगा।


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