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AES का कहर: सूनी हो रही गोद,‘व्यवस्था’ खामोश, पिछले नौ वर्षों में गई सैकड़ों मासूमों की जिंदगी

मरीजों का दबाव ङोल रहा एसकेएमसीएच एक बेड पर तीन-तीन मरीज। पीएचसी में इलाज नहीं होने और एसकेएमसीएच दूर होने से रास्ते में बिगड़ रही मरीजों की स्थिति।

By Ajit KumarEdited By: Published: Wed, 12 Jun 2019 11:33 AM (IST)Updated: Wed, 12 Jun 2019 11:33 AM (IST)
AES का कहर: सूनी हो रही गोद,‘व्यवस्था’ खामोश, पिछले नौ वर्षों में गई सैकड़ों मासूमों की जिंदगी

मुजफ्फरपुर [जेएनएन]। सामान्य बुखार या अन्य लक्षण से शुरू होनेवाला एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) अब भयावह है। इससे साल दर साल होनेवाली मौत और दिव्यांगता, दोनों चुनौती है। खामोशी और चुप्पी समाधान नहीं। कम से कम नौनिहालों की मौत पर तो बिल्कुल नहीं। पांच जून की रात से उग्र हुई बीमारी अब तक 51 बच्चों को लील गई है, जबकि 120 से ज्यादा मौत से जूझ रहे। मौत को मात भी दे गए तो क्या..? जिंदगी भर के लिए दिव्यांगता।

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 केजरीवाल और एसकेएमसीएच पीड़ितों से पटे पड़े हैं। एक बेड पर तीन-तीन। फर्श तक पर बच्चों का इलाज। चिकित्सक बार-बार कह रहे जितना जल्दी इलाज, उतना जल्दी क्योर। पर, इलाज कहां और कैसे? स्थानीय स्तर पर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को तो पंगु बना कर रखा गया है। एईएस के लक्षण वाले मरीजों को तो वे बाहर से ही रेफर कर रहे। मां-बाप के पास शहर आने के सिवा और कोई विकल्प बचता नहीं। और, यहां आते-आते बहुत देर हो जाती..।

क्‍या है एईएस

कई अनुसंधान के बाद भी इस बीमारी के कारणों का पता नहीं चल सका और न ही इससे बचाव की पुख्ता व्यवस्था हो सकी। लक्षण के आधार पर ही इलाज होता है। इस कारण इसका नाम एईएस (एक्यूट इंसेफलाइटिस सिंड्रोम) या इंसेफेलौपैथी दिया गया। स्थानीय भाषा में इस बीमारी को चमकी बुखार कहा जाता है।

अब तक जांच की यह रही स्थिति

बीमार बच्चों के खून, पेशाब, रीढ़ के पानी का संग्रह किया गया नमूना। आरएमआरआइ पटना, पुणो, सीडीसी दिल्ली और अटलांटा की टीम ने नमूना संग्रह कर शोध किया। मगर, कारण पता नहीं चल सका।

कुव्यवस्था का ‘वायरस’

पिछले नौ वर्षो में एईएस ने जिले के सैकड़ों मासूमों को लील लिया। मौत दर मौत के बाद भी कभी हाय-तौबा नहीं मची। इससे बचाव की पुख्ता व्यवस्था भी नहीं हो सकी। अब भी काफी कुछ मौसम पर निर्भर। इलाज भी बीमारी के मिलते-जुलते लक्षण के आधार पर ही होता है। बीमारी के कारणों का पता नहीं चल पाया तो जागरूकता को हथियार बनाया। मगर, गांवों की जो स्थिति है, उससे कहीं नहीं लगता कि विभाग अपना कार्य ठीक से कर रहा। मासूमों की मौत रोकने का दावा हवा-हवाई ही लगता है। बीमारी के वायरस का भले ही पता नहीं चल रहा, कुव्यवस्था के ‘वायरस’ जगह-जगह पसरे हैं।

2012 में बीमारी ने लिया भयावह रूप

वर्ष 2012 में बीमारी ने भयावह रूप लिया। तीन सौ से अधिक बच्चे बीमार पड़े। इनमें 120 की मौत हो गई। अगले दो वर्षो में मौत का सिलसिला कुछ थमा। मगर, संख्या फिर भी डराने वाली। वर्ष 2014 में तत्कालीन केंद्रीय मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने जिले का दौरा किया। तत्कालीन मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी भी आए।

बीमारी का बढ़ता दायरा

मासूमों की लीलने वाली इस बीमारी का दायरा बढ़ता ही जा रहा। उत्तर बिहार के जिलों के अलावा यह नेपाल की तराई वाले क्षेत्र में भी फैल गया है। जो जिले प्रभावित हैं, उनमें मुजफ्फरपुर, पूर्वी चंपारण, पश्चिम चंपारण, शिवहर, सीतामढ़ी व वैशाली शामिल हैं।
मौत का आंकड़ा

वर्ष          मरीज         मौत

2010        59           24

2011       121         45

2012       336         120

2013       124         39

2014       342          86

2015       75            11

2016       30          04

2017        09         04

2018        35         11

2019 119 55

नोट : 2019 में 11 जून तक की स्थिति।

अमेरिका और इंग्लैंड की टीम नहीं खोज पाई वायरस

अमेरिका और इंग्लैंड के विशेषज्ञों की टीम भी इसके कारणों का पता नहीं लगा सकी। सीडीसी अमेरिका की टीम वायरस का पता नहीं लगा पाई। टीम के प्रमुख सदस्य डॉ. जेम्स कई बार आए। बच्चों के खून का नमूना संग्रह किया। जेई, नीपा, इंटेरो वायरस, चांदीपुरा व वेस्टनील वायरस आदि पर शोध हुआ। मगर, वायरस नहीं मिला।

एईएस के लक्षण

-तेज बुखार

-शरीर में ऐंठन

-बेहोशी

-दांत बैठना

-शरीर में चमकी आना

-चिकोटी काटने पर कोई हरकत नहीं

-सुस्ती व थकावट

लक्षण दिखे तो ये करें

-तेज बुखार होने पर पूरे शरीर को ठंडे पानी से पोछें, मरीज को हवादार जगह में रखें।

-शरीर का तापमान कम करने की कोशिश करें।

-यदि बच्चा बेहोश न हो तो ओआरएस या नींबू, चीनी और नमक का घोल दें।

-बेहोशी या चमकी की अवस्था में शरीर के कपड़ों को ढीला करें।

-मरीज की गर्दन सीधी रखें।

लक्षण दिखे तो ये न करें

-मरीज को कंबल या गरम कपड़े में न लपेटें।

-बच्चे की नाक नहीं बंद करें।

-बेहोशी या चमकी की स्थिति में मुंह में कुछ भी न दें।

-झाड़-फूंक के चक्कर में समय न बर्बाद करें, नजदीकी स्वास्थ्य केंद्र में ले जाएं।

पीड़ित को तेज बुखार के साथ बेहोशी

एसकेएमसीएच के शिशु रोग विभागाध्यक्ष डॉ. गोपाल शंकर सहनी के शोध में यह बात सामने आई थी कि जब गर्मी 40 डिग्री सेल्सियस से अधिक व नमी 70 से 80 प्रतिशत के बीच होती है तो इस बीमारी का कहर बढ़ जाता है। पिछले कुछ दिनों से मौसम की चाल उसी हिसाब से है। बीमारी में बच्चे को तेज बुखार के साथ झटके आते हैं। हाथ-पैर में ऐंठन होती है, वह देखते-देखते बेहोश हो जाता है। उनके शोध का प्रकाशन इंडियन पीडियाट्रिक जर्नल में हुआ था।

सबसे पहले तापमान मेंटेन करते

एसकेएमसीएच में शिशु रोग विभागाध्यक्ष डॉ. गोपाल शंकर साहनी के अनुसार, ऐसे मरीज के आते ही वार्ड के मुताबिक उसके शरीर का तापमान मेंटेन करते हैं। हाई फीवर को कम करने की दवा दी जाती है। इसके बाद लक्षण के आधार पर इलाज तय होता। इस बीच जांच के लिए कुछ सैंपल भी लिए जाते हैं।

बच्चों को लील गई यह बीमारी, जबकि 120 से ज्यादा मौत से जूझ रहे। मौत को मात भी दे गए जिंदगी भर के लिए दिव्यांगता।

कब जगेगा पूनम का लाल, 36 घंटे से निहार रहीं आंखें

वह घर का चिराग है...मां और दादी की आंखों का तारा...। अपनों के बीच अस्पताल के बेड पर बेसुध रोशन। खामोश...निढाल। 36 घंटे से उसकी आंखें नहीं खुलीं, मां पूनम की आंखें बंद नहीं हुईं। दादी सुदामा देवी को भी नींद कहां, भर रात देवी-देवताओं की गुहार। दोनों उस पल का इंतजार कर रहीं, जब उनका लाल नींद से जगेगा। शनिवार रात जो सोया, अब तक उठा नहीं। चमकी आने के बाद एसकेएमसीएच में भर्ती पांच साल का रोशन मौत से दो-दो हाथ कर रहा।

 कांटी निवासी पूनम कहती हैं... बौआ रात में ना खइलक। भोरे पांच बजे तक ठीक रहल। बलू, सात बजे तबीयत खराब हो गेल। बेहोश हो गेल। तहिया से इ आंख न खोल्लक। दू दिन से ओकर मुंह से माई-माई ना सुनली। बताऊ, हमर बौआ कखनी आंख खोलतई। डॉक्टर बाबू कहलन, बौआ जलदिए ठीक होलतई।

72 घंटे से बेसुध मोहित को आया होश

72 घंटे से बेसुध मोहित को आज होश आया है। यहां भर्ती होने के समय उसका शुगर लेवल 30 था। अब ठीक है। मां पूनम की गोद में बैठा मोहित तीन दिन बाद नानी के हाथों से खिचड़ी खाया है। यह देख परिजनों की आंखें नम होती हैं। ये आंखें तब भी रोई थीं, जब कई बच्चे घर तो गए, मगर उनकी सांसें यहीं रह गईं।

एसकेएमसीएच के एईएस वार्ड में यह पीड़ा आम है।

 खामोश बच्चों के बीच चीत्कार करते उनके परिजन से माहौल गमगीन है। हर चेहरे पर खौफ। अपने लाल को खोने का डर हर ओर है। बच्चों की हर हिचकी कलेजा धड़का रही। किस हिचकी के साथ सांसें साथ छोड़ जाएं, कहना मुश्किल।  

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