लावारिस शवों का करते अंतिम संस्कार ताकि जिंदा रहे मानवता
सात दशक से बिना धार्मिक भेदभाव काम कर रही अंजुमन खुद्दाम ए मिल्लत। खर्च जुटाने के लिए संस्था के लोग डिब्बा लेकर मोहल्ले-मोहल्ले मांगते हैं चंदा।
दरभंगा, [अबुल कैश नैयर] । जिले में लावारिस शव का बिना भेदभाव बीते सात दशक से अंतिम संस्कार करने का काम कर रही अंजुमन खुद्दाम ए मिल्लत नामक संस्था। अंजुमन के पास आय का कोई स्थायी साधन नहीं है। इसलिए, खर्च जुटाने के लिए उसकेकर्मचारी प्रतिदिन डिब्बा लेकर लोगों से एक-एक, दो-दो रुपये चंदा मांगते हैं। कुछ अन्य लोग भी समय-समय पर आर्थिक मदद करते हैं। मानवता जिंदा रखने के इस काम की हर ओर तारीफ हो रही है।
किला घाट स्थित अंजुमन खद्दाम ए मिल्लत की स्थापना 1946 में समाजसेवी हाजी सैयद विरासत हुसैन ने की थी। लावारिस शवों का अंतिम संस्कार करने की जगह फेंक देने से द्रवित होकर उन्होंने यह कदम उठाया था। तब से यह अभियान अनवरत जारी है। अब तक कितने शवों का अंतिम संस्कार किया गया, इसकी गिनती तो नहीं है, लेकिन संख्या सैकड़ों में है।
इच्छानुसार दान देते लोग
लावारिस शव के दफनाने में आने वाले खर्च का इंतजाम करने के लिए अंजुमन ने दो कर्मचारियों को लगाया है। वे अंजुमन का सीलबंद डिब्बा लेकर सुबह में विभिन्न मोहल्लों में निकलते हैं। लोग अपनी इच्छानुसार उसमें रुपये, दो रुपये या 10 रुपये डाल देते हैं। कुछ लोग रसीद लेकर भी दान लेते हैं।
स्टेशन या जिले के किसी थाने से लावारिस शव की सूचना मिलने पर अंजुमन के संरक्षक सरफे आलम तमन्ना, इंजीनियर इश्तेयाक और नवीन सिन्हा पहुंचते हैं। कागजी प्रक्रिया के बाद अंतिम संस्कार किया जाता है। पहले ङ्क्षहदुओं के शव का अंतिम संस्कार उसी रीति-रिवाज से करने के लिए उस समाज के लोगों का सहयोग लेना पड़ता था।
लेकिन, एक साल पहले नवीन सिन्हा के सहयोग से कबीर अंत्येष्टि आश्रम नामक संस्था स्थापित की गई। अब यह संस्था हिंदुओं के लावारिस शवों का दाह संस्कार करती है। दोनों संस्थाएं अंतिम संस्कार में एक-दूसरे का सहयोग करती हैं। कोई भेदभाव नहीं है। इसके अलावा अंजुमन खोए बच्चों एवं मंदबुद्धि को तलाशने का भी काम करती है। अंजुमन के पास अपना लाउडस्पीकर है। वह रिक्शा भाड़ा अभिभावकों से लेती है।
जिला प्रशासन भी अंजुमन के काम की सराहना करता है। उसके सदस्यों को अनुमति है कि वह प्रशासन के सहयोग से लावारिस शव का पोस्टमार्टम कराकर उसका अंतिम संस्कार कर दे।
अब नहीं रहे पहले जैसे दान करने वाले
संरक्षक सरफे आलम तमन्ना कहते हैं, पहले लोग दिल खोलकर दान देते थे। अब ऐसा नहीं है। अंजुमन के पास अपनी कोई संपत्ति नहीं है। इसके बावजूद समाज में कुछ लोगों की मदद से यह काम चल रहा है। सचिव इंजीनियर इश्तेयाक आलम कहते हैं, समाज का भला तभी हो सकता है, जब नौजवान आगे आएं। अंजुमन का काम देख प्रभावित हुआ और इससे जुड़ा। समाजसेवा की भावना से काम करता हूं।