Move to Jagran APP

HOLI 2020: समस्तीपुर के धमौन की छतरी होली... गले मिल गाते हैं फाग, उड़ाते हैं गुलाल

HOLI 2020 संस्कृतियों और परंपराओं को सहेजता बिहार के समस्तीपुर के पटोरी का धमौन गांव। विश्व समुदाय को विविधता में एकता का पाठ पढ़ाता।

By Murari KumarEdited By: Published: Wed, 11 Mar 2020 07:59 AM (IST)Updated: Wed, 11 Mar 2020 07:59 AM (IST)
HOLI 2020: समस्तीपुर के धमौन की छतरी होली... गले मिल गाते हैं फाग, उड़ाते हैं गुलाल

समस्तीपुर, जेएनएन। पर्व-त्योहार में दूर होती लोक संस्कृति। लुप्त होतीं परंपराएं और विमुख होते लोग। रंग और भेद पर बंटती आबादी। लेकिन, संस्कृतियों और परंपराओं को सहेजता बिहार के समस्तीपुर के पटोरी का धमौन गांव। विश्व समुदाय को विविधता में एकता का पाठ पढ़ाता। यहां जाति, धर्म और संप्रदाय एक छतरी में सिमटकर होली के रंग में एकरूप हो जाते।

loksabha election banner

 खुद में पौराणिकता लिए धमौन की ‘छतरी होली’ का अंदाज ही अनूठा है। यह वृंदावन और बरसाने की होली का एहसास दिलाती। धौम्य ऋषि के नाम पर स्थापित धमौन में लोग जाति, धर्म और संप्रदाय से ऊपर उठकर साक्षी बनते। बांस की एक छतरी के नीचे जब गांव-समाज जमा होकर होली के पारंपरिक गीत गाता और अबीर-गुलाल लगाता तो सारे भेद मिट जाते।  

 गांव के चौमुहाने पर मिले भूषण प्रसाद कहते हैं कि धमौन की छतरी होली लगभग सौ साल से भी पहले से मनाई जाती। हम लिखित प्रमाण तो नहीं देंगे, पर बात सही है। ग्रामीणों से पता चलता है कि यादव बाहुल्य गांव में 16वीं शताब्दी में आए संबलगढ़ (हरियाणा) के हजारों जाट (यादव) परिवार यहां के विभिन्न टोलोें में बस गए। इनके कुल देवता निरंजन स्वामी का मंदिर भी यहीं है। कुछ लोग तो यह भी दावा करते कि 16वीं शताब्दी से ही यह होली मनाई जाती। हालांकि, छतरियों को नया रूप देने का प्रमाण 1930 से देने की बात बताई जाती है। बताते हैं कि नबुद्दी राय के टोले से पहली आकर्षक छतरी निकाली गई थी। हालांकि, वे अब नहीं रहे। 

कुछ ऐसे मनती धमौनी की होली 

गांव के शशिकांत यादव बताते हैं कि होली की सुबह आकर्षक छतरियों के साथ ग्रामीण कुल देवता स्वामी निरंजन मंदिर में जमा होते। वहां अबीर-गुलाल चढ़ाते और ढोल-हारमोनियम के साथ पारंपरिक ‘धम्मर’ तथा ‘होली’ गाया जाता। इसके बाद होली खेलने का दौर शुरू होता। मंदिर परिसर में होली मिलन भी होता। छतरियों को कलाबाजी के साथ घुमाया जाता। उसमें लगीं घंटियाें के लय से पूरा इलाका गूंज जाता। बाद में यह शोभायात्रा का रूप ले लेता। लोग खाते-पीते महादेव स्थान तक पहुंचते। मध्य रात तक होली गायन होता, जबकि मध्य रात्रि के बाद चैता गाते हुए होली के त्योहार को अगले साल के आगमन तक के लिए स्थगित कर देते।

अलग-अलग शैली की छतरी 

बांस से बननेवाली छतरी का निर्माण होली से कई दिन पहले शुरू हो जाता। तीन से चार दर्जन टोलों में इन्हें आकार दिया जाता। हर किसी की अलग-अलग शैली और ढंग। कलाकारी और सजावट अलग, रंग-रोगन अलग। किस टोले की छतरी अधिक सुंदर, सभी में प्रतिस्पर्धा। छतरी इतनी बड़ी कि इसके नीचे दो दर्जन लोग आ जाएं। होली के दिन हर टोले से निकलीं टोलियां ढोलक, झाल-मजीरा व हरमोनियम के साथ फाग के ताल पर झूमतीं। इन छतरियों के साथ काफिला जुड़ता चला जाता। हर टोले की छतरी की अपनी पहचान होती। 

छतरी होली को लेकर अलग-अलग मान्यताएं

छतरी होली को लेकर गांव के लोगों की अलग-अलग मान्यताएं हैं। स्थानीय निवासी और पूर्व विधायक अजय कुमार बुलगानीन का दावा है कि इस होली की शुरुआत उनके पूर्वजों ने की थी। धीरे-धीरे व्यापक हो गया। गांव के ही विजय कुमार राय पुरानी मान्यताओं की दुहाई देते। बताते हैं कि इस होली से इष्टदेव निरंजन स्वामी प्रसन्न होते। 

एक छतरी बनाने में कम से कम पांच हजार का खर्च 

धमौन गांव से थोड़ी दूर बांसवाड़ी में मिले धर्मेंद्र कुमार बताते हैं कि कच्चे बांस की छतरी काफी भारी-भरकम हो जाती। इसलिए, हमलोग महीना दिन पहले काटकर सुखा लेते। इससे उसका वजन कम हो जाता और बनाने में आसानी रहती। बांस का ढांचा खड़ा करने के बाद उसे रंगीन कागज, थर्मोकोल, चार्ट पेपर, किरकिरी आदि से सजाया जाता। इसके बाद उसमें घंटियां बांधी जाती। इन सबपर करीब पांच हजार तक खर्च हो जाते। बदलते दौर में तो युवा फूलों से सजावट करने लगे हैं।


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.