स्नेह और नैतिकता का संस्कार, रिश्तों की डोर से बंधा परिवार
परिवार सभ्यता का एक पड़ाव है जहां दायित्व का भाव। सदस्यों का समाजीकरण करता है परिवार। परिवार में मनुष्य का आत्मिक और मानसिक विकास संभव।
मुजफ्फरपुर, [अजय पांडेय]। जहां प्रेम है, स्नेह का सागर है। सहानुभूति, आदर, सम्मान, आजादी और अनुशासन भी। जीवन की पहली पाठशाला। बच्चों का संस्कार...यही है परिवार। यहां पूर्णता का एहसास है और संबंधों का स्पर्श। परिवार एक ऐसी नींव, जिस पर आदर्श समाज की बुलंद इमारत काबिज है। पाश्चात्य दार्शनिक आगस्त कॉम्टे कहते हैं कि परिवार समाज की आधारभूत इकाई है। इसलिए कि समाज भी परिवारिक तानेबाने पर बनता-बिगड़ता है। सदस्यों का समाजीकरण परिवार नियंत्रण का भाव विकसित करता है।
परिवार के केंद्र में भावनाओं का सामंजस्य
शिक्षाविद रामशरण अग्रवाल कहते हैं कि परिवार के केंद्र में भावनाओं का सामंजस्य है। सह आस्तित्व का मेल है। परिवार का हर सदस्य सामूहिक दायित्व के भाव से जुड़ा है। परिवार एक ऐसी जगह है, जहां मनुष्य का आत्मिक और मानसिक विकास संभव हो पाता है।
आर्थिक, सामाजिक और वैज्ञानिक परिवर्तन का प्रभाव
समाजशास्त्री डॉ. नवल किशोर सिंह कहते हैं कि परिवार एक संयुक्त आवरण और वातावरण का बोध कराता है। वहां सामूहिक दायित्व है। लेकिन, आर्थिक, सामाजिक और वैज्ञानिक दौर में इसका आकार सिमटता गया। परिवार का स्वरूप एकाकी हो गया। संयुक्त आवरण तो रहा ही नहीं। शहरीकरण के दौर में गांव से लोग पलायन कर शहर में पहुंचे। पूरा परिवार बिखर गया। इसका असर पारिवारिक और सामाजिक संस्कृति पर भी पड़ा। सामाजिक सरोकार खत्म हो गए।
सिमट गईं हमारी उपलब्धियां
रामशरण अग्रवाल का कहना है कि परिवार के आकार के साथ इसका दायरा भी सिमट गया है। सोच भी संकुचित हो गई है। सबसे बड़ी बात उपलब्धियां स्वार्थी हो गई हैं। इस दौर से हमें निकलना होगा।
डॉ. नवल कहते हैं कि गांव की समरसता खत्म हो गई। बच्चों में नैतिक शिक्षा औपचारिकता भर रह गई। इससे न सिर्फ परिवार का स्वरूप बदला है, बल्कि समाज भी बिखराव की ओर है।
परिवार के बदलते स्वरूप को सहेजने की जरूरत
बिखरते और स्वरूप बदलते परिवार को सहेजने की जरूरत है। समाजसेवी एचएल गुप्ता कहते हैं कि जब तक हमारे अंदर सामूहिक दायित्व का भाव नहीं आएगा, परिवार के मूल स्वरूप को नहीं वापस ला सकते। समय के साथ हमने जो खोया है, उसे वापस लाने की दरकार है। परिवार के आधार को बचाते हुए भावनात्मक जुड़ाव जरूरी है। डॉ. नवल कहते हैं कि हम गांवों से जुड़ें। समय-समय पर सामूहिक आयोजन हो, उसमें बच्चों को शामिल करें। छुट्टियों में कहीं बाहर जाने की बजाय गांवों में जाएं। अपने लोगों से मिलें, बच्चों को मिलवाएं...नैतिक मूल्यों को सहेंजे।
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